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January 1967

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मनुष्य-जीवन का अनुपम अवसर-

अवसर का यथोचित उपयोग ही मनुष्य-जीवन की सफलता का रहस्य है। कोई भी ‘अवसर’ अपनी अञ्जलि में मनुष्य के लिए बहुमूल्य उपहार लेकर ही उपस्थित होता है। अब उनको प्राप्त करना, न करना मनुष्य के अपने हाथ की बात है।

किसी एक ‘अवसर’ के अनेक प्रत्याशी हो सकते हैं, जिनमें प्रतिद्वन्द्विता भी हो सकती है। किन्तु जीतता वही है, जिसके पक्ष में ‘अवसर’ लड़ता है और ‘अवसर’ उसी पक्ष में लड़ता है जो सद्गुणी और सत्पात्र होता है।

हर मनुष्य के जीवन में ‘अवसर’ आता है। किन्तु एक बार निराश होने पर दुबारा नहीं आता है। किसी भी ‘अवसर’ से यह आशा करना मृग-मरीचिका के तुल्य है कि वह आपका द्वार दुबारा खटखटायेगा। बुद्धिमान लोग ‘अवसर’ को आगे से आलिंगन करते हैं, घेरते हैं और पकड़ते हैं क्योंकि इसके दुम नहीं होती जो आगे बढ़ जाने पर पकड़ी जा सके।

मनुष्य-जीवन से बढ़कर कोई ‘अवसर’ नहीं। इसके सदुपयोग न करने से बढ़कर कोई दुर्भाग्य नहीं हो सकता।

-डिजरायली

आश्रम धर्म और सन्तान सीमाबन्ध

परिवार नियोजन अथवा संतति निरोध आज का एक आवश्यक प्रश्न ही नहीं महती आवश्यकता है। इस प्रश्न को हल करने और आवश्यकता को पूरी करने के लिए उपाय, प्रयास तथा उपचार चल रहे हैं। किन्तु समस्या हल होती नहीं दीखती और जनसंख्या वृद्धि से सम्भावित खतरा निश्चित होता चला जा रहा है।

इस समस्या तथा आवश्यकता पर विश्व के विद्वानों का आज ही ध्यान गया हो अथवा यह खतरे की नई जानकारी हो ऐसा नहीं। आज तो जब जनवृद्धि की भयंकरता सामने आ गई और लोग उसका कष्ट पूरी तरह अनुभव करने लगे हैं तब चौंके, आँखें खोलीं और विचार, प्रचार व प्रयास शुरू हुआ।

भारतीय दार्शनिकों, विचारकों, समाज-वेत्ताओं और विद्वानों ने अपनी दूरदृष्टि से इस विभीषिका को अनेक सहस्राब्दियों पूर्व देख लिया था और संसार को बचाने के लिये उपाय कर दिया था। ऐसा उपाय जो न तो अवैज्ञानिक था, न अप्राकृतिक, न अनिश्चित, न हानिकर और न दुष्कर, बल्कि जो हर प्रकार से युक्त, उचित साध्य और जीवन की हर दिशा में अतिरिक्त कल्याणकारी था। ऐसा विधान ऐसा उपाय, जिस का अवलम्बन कर लेने से एक साथ संतति निरोध, आत्मोद्धार, समाज विकास तथा लोक-परलोक की समस्यायें हल सकती थीं।

रेतस ही प्रजनन का मूल आधार है। यदि उसका उस दिशा में प्रयोग न हो तो सन्तानोत्पत्ति का प्रश्न ही नहीं उठता। यदि वीर्य अन्तर्मुखी रखा जाये और उसका उपयोग न किया जाये तो गर्भ निरोध के कृत्रिम उपकरणों के प्रयोग की आवश्यकता ही न रहे। आज इस माँगलिक एवं मूल उपाय पर तो ध्यान दिया नहीं जा रहा है बल्कि अवरोध, निरोध, शल्य, पात एवं औषधियों का सहारा लेकर स्त्री-पुरुषों की दुर्दशा का उपाय अपनाया जा रहा है। ब्रह्मचर्य धारण करने के स्थान पर उसे अथवा उसके प्राकृतिक प्रभाव को व्यर्थ करने की ओर ध्यान दिया जा रहा है। वीर्य जैसा तत्व जो कि मनुष्य का जीवन तत्व और प्राण है, और कृपणता के साथ जिसका व्यय केवल सन्तान प्राप्ति के उद्देश्य के लिये किया जाता था, आज विजातीय तत्व की तरह बाहर फेंका और इसलिये व्यर्थ किया जा रहा है कि सन्तान न हो। जब पौध नहीं चाहिये तो बीज वपन क्यों किया जाए, इस सीधी-सी बात को कोई नहीं समझ पा रहा है। बीज बो कर उसे नष्ट करने में कौन सी बुद्धिमानी है? किन्तु क्या कहा जाये इस विषयी वृत्ति और घातक मनोरंजन को जो क्षणिक ही नहीं अकल्याणकारी भी है जिसकी लिप्सा में इस सत्य को नहीं समझा जा रहा है कि जिस तत्व के क्षय में इतना सुख है उसके संचय में कितना आनन्द होगा, जबकि क्षय का सुख मिथ्या और संचय का आनन्द चिरन्तन एवं स्थायी है।

भारतीय विचारकों की दी हुई जीवन व्यवस्था आश्रम धर्म पर आधारित थी। ब्रह्मचर्य-आश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ-आश्रम, संन्यास-आश्रम। मनुष्य की औसत आयु सौ वर्ष की मान कर इन चारों आश्रमों की अवधि पच्चीस-पच्चीस वर्ष रखी गई थी। परिवार नियोजन का उद्देश्य सामने रख कर यदि इस आश्रम धर्म व्यवस्था की विवेचना की जाए और आलोक में देखा जाए तो स्पष्ट पता चल जायेगा कि ऋषियों ने इस जीवन-विधान में निश्चय ही परिवार नियोजन तथा संतति निरोध का दृष्टिकोण इस उद्देश्य से अवश्य रखा है कि देश की जनसंख्या सीमित रहे, सन्तान स्वस्थ एवं सुयोग्य बने, गृहस्थों का स्वास्थ्य सुरक्षित रहे जिससे कि समाज एवं राष्ट्र, स्वस्थ, सुखी और सशक्त स्थिति में बना रह कर अजेय रहे।

ब्रह्मचर्याश्रम में रह कर पच्चीस वर्ष से पहले विवाह करने का कोई प्रश्न ही नहीं था। जहाँ सोलह साल से पूर्व ही विवाह हो जाते हैं और सत्तरह अठारह साल की आयु से बच्चे होने लगते हैं, वहाँ तब पच्चीस वर्ष के बाद विवाह करने पर छब्बीस, सत्ताईस वर्ष की अवस्था से पूर्व सन्तान होने का प्रश्न ही नहीं था। अनुमान लगाया जा सकता है कि इन दस वर्षों के अन्तर में पूरे देश में जनसंख्या वृद्धि में कितना अन्तर हो सकता है। यदि दो वर्ष में एक सन्तान का अनुपात लगा लिया जाए तब भी प्रति व्यक्ति पाँच बच्चे कम हो जाते हैं इस प्रकार पूरे राष्ट्र में प्रति वर्ष लाखों करोड़ों का अन्तर पड़ जाता है।

आगे, जब ब्रह्मचारी गृहस्थ धर्म में आता था तब वह यों ही नहीं आ जाता था, अपने पूर्व आश्रम में गृहस्थ धर्म की शिक्षा लेकर और संस्कार बना कर आता था, जिससे वह कामुक विषयी बनकर इस आश्रम का उपयोग नहीं करता था बल्कि धर्मपूर्वक गृहस्थ का कर्त्तव्य पालन करता था। दाम्पत्य एवं संतानोत्पादन संबंधी नियमों का पालन करता था। उसकी शिक्षा-दीक्षा और संस्कार उसे इसमें पूरी मदद करते थे। साथ ही वह अपने ब्रह्मचर्य के विषय में बड़ा कृपण एवं ममतावान रहता था। इसलिये कि अपने पूर्वाश्रम में ब्रह्मचर्य का सुख देख चुका होता था, आवश्यकता समझ चुका होता था और आत्मोद्धार के अगले दो चरणों में उसकी अनिवार्यता जान चुका होता था। पूर्वकालिक ब्रह्मचर्य का अभ्यास उसे गृहस्थाश्रम में पूरी मदद करता था। क्योंकि ब्रह्मचर्य पालन से ब्रह्मचर्य में और विषय से विषय में ही प्रवृत्ति बढ़ती है-ऐसा नैसर्गिक नियम है।

इस प्रकार आश्रम धर्म का अनुयायी गृहस्थ जीवन भी अधिकाधिक ब्रह्मचारी ही रहा करता था जिससे परिवार नियोजन का उद्देश्य आप-से-आप पूरा होता रहता था। इसके लिए हठात् प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती थी। फिर गृहस्थाश्रम की सफलता, पवित्रता, सम्पन्नता तथा सुख शाँति के लिये वर्ष में न जाने कितने यज्ञ-याग, पूजा-अनुष्ठान, व्रत-उपवास, पर्व-उत्सव, पाठ-पारायणध आदि का विधान रहता था जिनमें संयम एवं पवित्रता का नियम अनिवार्य था। अनेक बार तिथि, मास और समय का समागम के संबंध में निषेध था। सन्तान के लिये दाम्पत्य धर्म का एक शास्त्रीय विधान था जिसका पालन करना प्रत्येक गृहस्थ का पावन कर्त्तव्य था। इस प्रकार पूरी आयु के चौथाई भाग में भी अधिकाँश भाग ऐसा रहता था जिसमें समय एवं ब्रह्मचर्य की रक्षा रहती थी। शेष बचे हुये समय में कुछ ही संतानों की संभावना हो सकती थी।

इसके अतिरिक्त गृहस्थों पर सन्तान के संबंध में एक सामाजिक उत्तरदायित्व भी था-कि सन्तान धर्मात्मा, निरोग, सशक्त, संयमी, सुयोग्य तथा सुशील होने के साथ-साथ दीर्घजीवी भी हो। इसके लिये धर्माचरण का निर्वाह तो किया ही जाता था आयुर्वेद तथा कामशास्त्र के नियमों का भी पालन करना पड़ता था जिसके लिये यथायोग्य सन्तान पाने के लिये एक सन्तान के बाद दूसरी सन्तान के लिये बीच में गर्भ, प्रजनन सौर, दूध, पालन तथा अन्य संस्कारों के लिये कम से कम चार पाँच साल का अन्तर रहना जरूरी था। अन्यथा संतान का निर्बल एवं कुसंस्कारी होना स्वाभाविक था। यह स्थिति समाज में हेयता तथा अपवाद का कारण बनती थी। साथ ही पूर्वकालीन धर्मनिष्ठ, नैतिक तथा शीलवान व्यक्ति पहली संतान के समझदार होते ही प्रजनन इसलिये भी बन्द कर देते थे कि बच्चे पर अवाँछित प्रभाव पड़ सकता है, पारिवारिक मर्यादा तथा शील संकोच के नैतिक गुणों की हानि हो सकती थी।

नैतिक और शुभ कमाई से पाली गई सन्तान ही सु-संस्कारी हो सकती है इस शाश्वत सत्य को प्रत्येक गृहस्थ अच्छी तरह जानता था और उसका पालन करता था। शुभ तथा ईमानदारी की कमाई इतनी कदापि नहीं हो सकती जिससे कि चार-चार छः-छः संतानों का समुचित पालन, पूरी शिक्षा-दीक्षा आदि का प्रबंध किया जा सके। एक या दो सन्तानों को ही सुसंस्कृत-सुनिश्चित बनाया जा सकता है। इसलिये गृहस्थ अपने तथा समाज के हित में भी प्रयत्नपूर्वक कम से कम संतान की कामना करते थे। इन सब प्रतिबंधों, नियमों एवं निबंधों के साथ गृहस्थ जीवन में लोगों के प्रायः एक या दो सन्तानें ही होती थीं, जो कि पूर्ण स्वस्थ, सुयोग्य एवं सामर्थ्यवान होती थीं। तभी किसी समाज में राम, कृष्ण, भीम, द्रोण, अर्जुन, प्रताप व शिवा जैसे शूरवीर और गौतम कणाद तुलसी एवं विवेकानन्द जैसे विद्वान होते हैं जिनसे राष्ट्र अभेद्य, अजेय, उन्नत तथा जगद्गुरु बनते हैं।

अब भी कुछ अधिक नहीं बिगड़ा है। यदि संसार कृत्रिम, अप्राकृतिक, नैतिक, अनिश्चित एवं वीभत्स उपायों को छोड़कर भारतीय आश्रम धर्म को अपने जीवन में स्थान दें सके तो न केवल आपसे आप परिवार नियोजन ही हो जाये बल्कि लोक परलोक दोनों के लिए सफलता एवं सुख का पथ प्रशस्त हो जाये।


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