मानवता का विशिष्ट लक्षण - सहानुभूति

February 1965

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मानव-जीवन की सफलता, सौंदर्य और उपयोगिता में वृद्धि जिन नैतिक सद्गुणों से होती है, उनमें सहानुभूति का महत्व कम नहीं है। शक्ति , सत्यनिष्ठा, व्यवस्था, सच्चाई कर्म-निष्ठा, निष्पक्षता, मितव्ययिता और आत्म-विश्वास के आधार पर सम्मान मिलता है, समृद्धि प्राप्त होती है और जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलता के दर्शन होते हैं, किन्तु लौकिक जीवन में जो मधुरता तथा सरसता अपेक्षित है, वह सहानुभूति के अभाव में सम्भव नहीं। सहानुभूति चरित्र की वह गरिमा है, जो दूसरों का मन मोह लेने की क्षमता रखती है। इससे पराये अपने हो जाते हैं। किसी तरह की रुकावट परेशानी मनुष्य जीवन में नहीं आती। सहानुभूति से मन निर्मल होता है, पवित्रता जागती है और बुद्धि-प्रखरता से व्यक्तित्व निखर उठता है।

सन्त वेलूदलकाक्स का कथन है, “जब अपनी ओर देखो तो सख्ती से काम लो, दूसरों की ओर देखो तो नम्रता का उद्गार प्रकट करो। अनुचित छोटाकशी से परहेज करो- दोष-दर्शन साधारण मनुष्यों का कार्य है। इसमें सन्देह नहीं है कि दूसरों को गिराने, नीचा दिखाने की वृत्ति आत्म-हीनता की परिचायक है। निकृष्ट विचार-धारा के लोग सदैव समाज में कलह और कटुता के बीज बोते हैं। इससे सभी उनका निरादर करने लगते हैं। उनका विश्वास उठ जाता है और मुसीबत पड़ने पर कोई साथ तक नहीं देता। बीमार पड़े हैं, पर दवा का कहीं इन्तजाम नहीं । दूध माँगते हैं पर कोई पानी देने को भी तैयार नहीं होता । बड़ी दुर्दशा होती है, कोई पास तक नहीं आता। पर किया क्या जाए, जिसने दूसरों के साथ उदारता, करुणा, शालीनता, सभ्यता, मुक्तहस्तता एवं दयालुता का कभी भी रुख न अपनाया हो, उसको आड़े वक्त कोई सहयोग न करे, सहायता न दे तो इसमें आश्चर्य करने की कौन-सी बात है।

दूसरों को जीतने के लिये सहानुभूति एक रामबाण हैं। ‘सह’ का अर्थ है साथ-साथ, अर्थात् उस जैसा। अनुभूति का अर्थ है अनुभव, बोध। जैसी उसकी अवस्था हो वैसी ही अपनी, इसी का नाम सहानुभूति है। एक व्यक्ति पीड़ा से छटपटा रहा है, गहरी चोट लग गई, है इससे बेचारे का पाँव टूट गया है, कष्ट के मारे तड़फड़ा रहा है। एक दूसरा व्यक्ति उसकी बगल में खड़ा है, उससे यह दृश्य देखा नहीं जाता। यह कष्ट मुझे होता तो कितनी तकलीफ होती, वह इस भावना मात्र से छटपटा उठता है। उसकी भी दशा ठीक वैसी ही हो जाती है, जैसी चोट खाये व्यक्ति की। झट डॉक्टर को बुलाता है, घाव साफ करता है और दवा लगाता है। दूसरों की कठिनाई मुसीबतों को अपना दुःख समझ कर सेवा करने का नाम सहानुभूति है। यह मानवता का उच्च नैतिक गुण है। वाल्ट विटमैन के शब्दों से यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि सहानुभूति किसे कहते हैं। उन्होंने लिखा है, “मैं विपत्तिग्रस्त मनुष्य से यह नहीं पूछता कि तुम्हारी दशा कैसी है वरन्-मैं स्वयं भी आपदग्रस्त बन जाता हूँ।

सहानुभूति का अर्थ वाक्जाल या ऊपरी दिखावा मात्र नहीं। कई सयाने व्यक्ति बातों के थाल परोसने में तो कोई कसर नहीं करते, पर कोई रचनात्मक सद्भाव उनसे नहीं बन पाता। अरे भाई! बड़ा बुरा हुआ तुम्हारी तो सारी सम्पत्ति जल गई, अब क्या करोगे, आजीविका कैसे चलेगी, बच्चे क्या खायेंगे आदि-आदि अनेकों प्रकार की मीठी मीठी चिकनी-चुपड़ी बातें तो करेंगे, पर यह न बन पड़ेगा कि बेचारे को अभी तो खाना खिलादे। जो सामान जलने से बच गया है, उसे कहीं रखवाने का प्रबन्ध करवा दें। कोई ऐसा संकेत भी करे तो नाक भौं सिकोड़ते हैं। भाई-बेबस हूँ, पिछली दालान में तो बकरियाँ बंधती हैं, बरामदे में शहतीर रखे हैं। जबान की जमा-खर्च बनाते देर न लगी, पर सहायता के नाम पर एक कानी कौड़ी भी खर्च करने को जो तैयार न हुआ, ऊपरी दया दिखाई ही तो इससे क्या बनता है। सच्ची सहानुभूति वह है जो दूसरों को उदारतापूर्वक समस्याएँ सुलझाने में सहयोग दे। करुणा के साथ कर्तव्य का सम्मिश्रण ही सहानुभूति है। केवल बातें बनाने से प्रयोजन हल नहीं होता है, उसे तो दिखाया या प्रपंच मात्र ही कह सकते हैं।

प्रशंसा और आत्म-सुरक्षा का सहानुभूति से कोई सम्बन्ध नहीं। प्रशंसा एक मूल्य है, जो आप कर्तव्य के बदले में माँगते हैं। मूल्य माँगने से आपकी सेवा की कर्तव्य न रही, कर्म बन गई। इसे नौकरी भी कह सकते हैं । ऐसी सहानुभूति से कोई लाभ नहीं हो सकता क्योंकि आपकी इच्छा पर आघात होते ही आप विचलित हो जायेंगे। प्रशंसा न मिली तो आत्मीयता का भाव समाप्त हो जाता है। ऐसी अवस्था में भावना की शालीनता नष्ट हो जाती है। ऐसी सहानुभूति घृत निकाले हुए छाछ जैसी होगी। शहद निकाल लिया तो मोम की क्या कीमत रही। बदले में कुछ चाहने की भावना से सहानुभूति की सार्थकता नहीं होती, इसे तो व्यापार ही कह सकते हैं।

सहानुभूति मानव अन्तःकरण की गहन, मौन और अव्यक्त कोमलता का नाम है। इसमें स्वार्थ और संकीर्णता का कहीं भी भाव नहीं होता। जहाँ ऐसी निर्मल भावनायें होती हैं, वहाँ किसी प्रकार के अनिष्ट के दर्शन नहीं होते। आत्मीयता, आदर, सम्मान और एकता की भावनाएँ, सहानुभूतिपूर्ण व्यक्तियों के अन्तःकरण में पाई जाती हैं। इससे वे हर घड़ी स्वर्गीय सुख की रसानुभूति करते रहते हैं। उन्हें किसी प्रकार का अभाव नहीं रहता। क्लेश उन्हें छू नहीं जाता। उनके लिए सहयोग की कोई कमी न रहेगी। ऐसे व्यक्ति क्या घर, क्या बाहर एक विलक्षण सुख का अनुभव कर रहे होंगे। और भी जो लोग उनके संपर्क में चले जाते हैं, उन्हें भी वैसी ही रसानुभूति होने लगती है।

दूसरों के दुःखों में अपने को दुःख जैसे भावों की अनुभूति हो तो हम कह सकते हैं कि हमारे अन्तःकरण में सच्ची सहानुभूति का उदय हुआ है। इससे व्यक्तित्व का विकास होता है और पूर्णता की प्राप्ति होती है। सभी में अपनापन समाया हुआ देखने की भावना सचमुच इतनी उदात्त है कि इसकी शीत छाया में बैठने वाला हर घड़ी अलौकिक सुख का आस्वादन करता है। दीनबन्धु परमात्मा की उपासना करनी हो तो आत्मीयता की उपासना करनी चाहिये। दार्शनिक बालक ने परमात्मा की पूजा का कितना हृदय स्पर्शी चित्र खींचा है। उन्होंने लिखा है- “दीनों के प्रति मैं सहज भाव से खिच जाता हूँ, उनकी भूख मेरी भूख है, उनके पैरों में रहता हूँ, वंचनाओं की पीड़ा सहना है, गले से लगाता हूँ, मैं भी उतनी देर के लिये दीन और ठुकराया हुआ प्राणी बन जाता हूँ।”

सहानुभूति लोगों में एकात्म-भाव पैदा करती है। दूसरे लोगों का आन्तरिक प्रेम और सद्भाव प्राप्त होता है। ऐसे लोगों में विचार-हीनता और कठोरता नहीं आ सकती। वे सदैव मृदुभाषी, उदार, करुणावान और सेवा की कोमल भावनाओं से ओत-प्रोत बने रहेंगे। जो दूसरों के साथ सहयोग करना नहीं जानते, जो समाज में सदैव अत्याचार और विक्षोभ की गलित-वायु फूँकते रहते हैं, उन्हें इन दुर्गुणों के बुरे परिणाम भी अनिवार्य रूप से भोगने पड़ते हैं। स्वार्थी असंवेदनशील और हिसाबी व्यक्ति चतुराई में कितने ही बड़े चढ़े रहें, कितने ही पढ़े-लिखें, शिक्षित तथा योग्य क्यों न हों, अन्त में सफलता से हाथ धोना ही पड़ेगा।

सहानुभूति मनुष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता है। हर मनुष्य दूसरे मनुष्य से मानवता के एक सूत्र से बँधा हुआ है। इस नियम में शिथिलता पड़ जाय तो सारा जीवन अस्त−व्यस्त हो सकता है। स्वार्थ और आत्मतुष्टि की भावना से लोग दूसरों के अधिकार छीन लेते हैं, स्वत्व अपहरण कर लेते हैं, शक्ति का शोषण कर लेने से बाज नहीं आते। इन विशृंखलता के आज सभी ओर दर्शन किये जा सकते हैं। अपनी स्वादप्रियता के लिए जानवरों, पशु-पक्षियों की बात दूर रही, लोग दुधमुँह बच्चों तक माँस खा जाते हैं, ऐसे समाचार भी कभी-कभी पढ़ने को मिलते रहते हैं। दवा, शृंगार और विलासिता के साधनों की पूर्ति अधिकाँश अनैतिक कर्मों से हो रही है । इस जीवन काल में मानवता के संरक्षण के लिए सहानुभूति अत्यन्त आवश्यक है। इसी से दैवी सम्पदाओं का संरक्षण किया जा सकता है। तत्वों से संघर्ष करने के लिये जिस संगठन की आवश्यकता है, उसे सहानुभूति के द्वारा ही पूरा किया जा सकता है। सहानुभूति एक शक्ति है, एक सम्बल है, जिससे मानवता के हितों की रक्षा होती है।

सहानुभूति इतनी विशाल आत्मिक भाषा है कि इसे पशु-पक्षी तक प्यार करते हैं। किसी चरवाहे पर सिंह हमला कर दे तो समूह के सारे जानवर उस पर टूट पड़ते हैं और सींगों से मार-मारकर बलशाली शेर को भगा देते हैं। एक बन्दर की आर्त पुकार पर सारे बन्दर इकट्ठा हो जाते हैं। बाज के आक्रमण से सावधान रहने के लिये चिड़ियाँ विचित्र प्रकार का शोर मचाती हैं। यह बिगुल सुनते ही सारे पक्षी अपना-अपना मोर्चा मजबूत बना कर छुप जाते हैं। सहानुभूति की भावना से जब पशुओं तक में इतनी उदारता हो सकती है, तो मनुष्य इससे कितना लाभान्वित हो सकता है, इसका मूल्याँकन भी नहीं किया जा सकता । हृदय की विशालता, जीवन की महानता, सहानुभूति से मिलती है। सार्वभौमिक, प्रेम, नियम और ज्ञान प्राप्त करने का आधार सहानुभूति है। इससे सारा संसार एक ही सत्ता में बँधा हुआ दिखाई देता है।

सहानुभूति के विकास के साथ चार और सद्गुणों का विकास होता है। (1) दयाभाव (2) उदारता (3) भद्रता (4) अंतःदृष्टि। सहानुभूति की भावनाएँ जितना अधिक प्रौढ़ होती हैं, दया भावना उसी के अनुरूप एक आवेश-मात्र न रहकर स्वभाव का एक अंग बन जाती है। जीव-जन्तुओं के प्रति भी दया आने लगती है। किसी का दुःख देखा नहीं जाता। सभी के दुःखों में हाथ बटाने की भावना पैदा होती है। स्वेच्छापूर्वक किसी का उपकार करना ही उदारता है, यह सहानुभूति का दूसरा चरण है। इस कोटि के सभी व्यक्ति भद्र माने जाते हैं। इन सज्जनोचित भावनाओं से अंतःदृष्टि जागृत होती है। समता का भाव उत्पन्न होता है। जो सबको परमात्मा का ही अंश मानते हैं, वही आत्मज्ञान के सच्चे अधिकारी होते हैं।

निर्दयतापूर्वक किये गए कार्य, नीचता, ईर्ष्या विद्वेष और सन्देह के दुर्गुणों के कारण लोगों को बाद में बड़ा पश्चात्ताप करना पड़ता है। जब चारों तरफ से असहयोग, अविश्वास और असम्मान लोग व्यक्त करने लगते हैं तो अपने कुकृत्यों पर बड़ी आत्मग्लानि होती है। सोचते हैं, हमने भी परोपकार किया होता, दूसरे के दुःखों को अपना दुःख समझकर मेल-व्यवहार पैदा किया होता तो आज जो अकेलेपन का दुःख भोग रहे हैं, उससे तो बच गए होते। इस पश्चात्ताप की अग्नि में जल-जलकर लोग अपनी शेष शक्तियों का भी नाश कर लेते हैं। किन्तु जो दूसरों के हृदय के साथ अपना हृदय मिला देते हैं उन्हें सभी से निश्छल प्रेम मिलता है और मर्म-ज्ञान प्राप्त होता है।

मनुष्य का जीवन कुछ इस प्रकार बँधा हुआ है कि वह दूसरों की सहायता प्राप्त न करे तो एक पग भी आगे बड़ा नहीं सकता। पशुओं के बच्चे जन्म लेने से कुछ घण्टे बाद ही प्राकृतिक प्रेरणा से यह जान लेते है कि दूध जो हमें पीना चाहिए, कहाँ है। बिना किसी संकेत के चट से अपनी आवश्यकता आप पूरी कर लेते हैं। किन्तु मनुष्य के लिये यह सब कुछ सम्भव नहीं। पालन-पोषण हुआ तो माता-पिता के द्वारा, शिक्षा के लिए विद्यालयों की शरण ली। खाना खाने से लेकर चलने-बोलने तक में वह पराश्रित है। बैल न हो तो खेती कहाँ से करें। लुहार हल न बनाए तो खेत कैसे जोतें। जुलाहा कपड़ा न बुने तो वस्त्र कहाँ से आवें। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे उदारपूर्वक आदान-प्रदान करते रहना पड़ता है। अपनी कमाई वस्तु का उपयोग दूसरों के लिए करता है तो दूसरों से भी अनेकों सुविधायें प्राप्त करते हैं। यह सम्पूर्ण क्रिया-व्यवसाय पारस्परिक सहयोग और सहानुभूति पर निर्भर है। इसी से जीवन में व्यवस्था है। मानवीय प्रगति की सम्भावनायें एक दूसरे की सहानुभूति की भावना पर टिकी है। हमें भी सब के साथ उदारतापूर्ण बर्ताव, करना चाहिए। इसी में ही हमारी सफलता है, इसी में मनुष्य का कल्याण है।


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