स्वाध्याय सन्दोह :-

February 1965

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हमारी आध्यात्मिक संस्कृति

भारतीय संस्कृति की अनासक्त भावना -

आर्य संस्कृति का उद्देश्य है अपने को संकीर्ण स्वार्थपरता से बारह निकाल कर जीवन को जगत में मिला देना। इस साधना में यहाँ के निवासी इतने आगे बढ़ गये थे कि वे केवल मनुष्यों को ही नहीं, समस्त चराचर को आत्मवत् देखकर उनसे आत्मीय के समान ही प्रेम करते थे। यह ध्यान में रखना चाहिये कि यह आत्मोत्सर्ग- आत्म-प्रसार की भावना किसी दर्शन या नीतिवाद के उपदेश से नहीं थी। हम इसे जीवन की बिल्कुल सामान्य क्रिया समझते है। हरिश्चन्द्र का आत्मदान, दधीचि का आत्मोत्सर्ग आदि के उदाहरण बहुत प्राचीन है। हर्ष-वर्धन की अनन्य साधारण उदारता (सर्वस्वदान) इतिहास की बात है। इस प्रकार के उदाहरणों से हमारा जातीय इतिहास भरपूर है।

इस प्रकार भारतीयों का जीवन कर्म-मय है। उन्होंने कर्म-मय जीवन में किसी आसक्ति या फल लाभ की आशा नहीं रखी। वे समझते हैं कि फल की आशा से कर्म करने पर कर्म पर मेरा ऐसा अहंकार पैदा हो जायगा और इससे आत्मोन्नति नहीं हो पायेगी। क्योंकि, धर्म की दृष्टि से यह संसार एक बन्धन है। इस बन्धन के कारण स्वार्थभाव या अहंकार बुद्धि की उत्पत्ति होती है। अपने को किसी विशेष कर्तव्य या सुख दुःख में बँधा हुआ मानने से उसकी विशाल दृष्टि सीमाबद्ध हो जाती है, वह ‘मैं’ और ‘मेरा’ समझकर अहंकार करने लगता है और कर्म फल की आशा रखता है। संसारी प्राणी की यह स्वाभाविक वृत्ति है। इसलिये कर्म करते हुये भी उसे केवल कर्तव्य समझकर करते रहना भारतीय संस्कृति का आदेश है। इस साधना से आत्मा में मलिनता नहीं आने पाती और विश्व-भावना नष्ट नहीं होती। इससे अज्ञान-युक्त आत्म-मोह उत्पन्न नहीं होने पाता

-भारतीय संस्कृति का इतिहास

भारतीय संस्कृति का आधार-

यदि इस पृथ्वी पर ऐसा कोई देश है, जिसे पुण्य-भूमि या कर्म-भूमि कहा जा सके, यदि ऐसा कोई स्थान है जहाँ पृथ्वी के सभी जीवों को कर्म-फल भोगने के लिये आना होगा, यदि ऐसा कोई स्थान है जहाँ ईश्वर को पाने की इच्छा रखने वाले जीवों को आना होगा, यदि ऐसा कोई देश है जहाँ सबसे अधिक आध्यात्मिकता और अंतर्दृष्टि का विकास हुआ है, तो मैं निश्चय-पूर्वक कह सकता हूँ कि वह हमारी मातृ-भूमि यह भारतवर्ष ही है। यहाँ पर भिन्न-भिन्न धर्मों के संस्थापक आविर्भूत होकर सारे जगत को कई बार सनातन धर्म की पवित्र आध्यात्मिक धारा में नहला चुके हैं। यहाँ से उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम सर्वत्र दार्शनिक ज्ञान की प्रबल तरंगें वही हैं। अगर विभिन्न देशों की आपस में तुलना की जाय, तो यह दिखलाई पड़ेगा कि इस सहिष्णु हिन्दू-जाति का संसार जितना ऋणी है, उतना और किसी जाति का नहीं हैं।

यह सच है कि संसार के दूसरे-दूसरे स्थानों में भी सभ्यता का विकास हुआ है, यह सत्य है कि प्राचीन काल और वर्तमान काल में बहुत-सी शक्ति शाली जातियों द्वारा उच्च-भाव प्रकट हुए हैं तथा समय-समय पर एक जाति से दूसरी जाति में अद्भुत और अनोखे तत्व फैले हैं, यह भी सत्य है कि प्राचीन काल में और आजकल भी किसी जातीय जीवन की तरंग चारों ओर अत्यन्त शक्ति शाली सत्य के बीजों को पहुंचा रही है, पर इस सबके साथ आप यह भी देखेंगे कि इन सब सत्यों का प्रचार, रणभेरी के निनाद और रण-सज्जा से युक्त गर्वीली सेना के आगमन के साथ ही हुआ है। लाखों बेकसूर लोगों के खून की बिना बहाये, जमीन को खून से बिना रंगे कोई जाति दूसरी जाति को नवीन भाव प्रदान करने में समर्थ नहीं हुई है।

भारत की स्थिति इससे सर्वथा पृथक है और उसने अन्य जातियों की आक्रमणकारी नीति का अवलम्बन न करके ही संसार का हित साधन किया है।

-जागृति का सन्देश

आडम्बर, बाह्याडम्बर और चमत्कार-

मनुष्य के चरित्र तथा सद्गुणों के सम्बन्ध में हमारा समाज उलटी चाल ही चल रही है। एक व्यक्ति चाहे जितना सद्गुणी हो, वह चाहे जितनी प्रामाणिकता, सत्य निष्ठा और कर्तव्य बुद्धि से अपना जीवन चलाता हो, फिर भी यदि धार्मिकता के बाह्य चिन्ह धारण नहीं करता, कर्म-काण्डों को नहीं करता अथवा वह दैवी चमत्कार के लिए प्रसिद्ध नहीं है- इस प्रकार का कोई बाह्याचार उसके पास नहीं है, या लोगों की मनो-कामना सिद्ध करने की सामर्थ्य के विषय में वह भ्रम नहीं फैला सकता तो उसे पूज्य या श्रेष्ठ नहीं माना जाता। मनुष्य का सच्चा लक्ष्य है पवित्रता या चारित्र्य । किन्तु हम उसे आदरणीय अनुकरणीय नहीं मानते। इसके बजाय साधुत्व का केवल बाह्याचार ही हमें वन्दनीय मालूम होता है। कर्तव्य-निष्ठ और उदार चरित्र गृहस्थाश्रमी मनुष्य के मूल्य को हम नहीं आँकते, वैराग्य का बाह्याडम्बर ही हमें पूजनीय मालूम देता है। इसलिये हमको कहना पड़ता है कि हमारे समाज में मनुष्य बनना कठिन है, देवता अथवा ईश्वर बनना सहज है। इसी कारण हम में मानवता की, सद्गुणों की वृद्धि नहीं हो पाई है। मानवता को अपने जीवन का ध्येय मानकर उसे प्राप्त करने के लिये हम प्रयत्न नहीं करते। भगवद् भक्ति को प्रधान मानकर सद्गुणों की उपासना और उनकी वृद्धि करने वाले कुछ सन्त हम में हो गये, पर उनमें सद्गुण थे, मानवीय गुणों का विकास हुआ था, यह हम भूल जाते हैं। इसकी अपेक्षा वे ईश्वर के साथ तदनुरूप हो गये थे और ईश्वर की सहायता से चाहे जैसा चमत्कार कर सकते थे, ऐसी लोक-श्रद्धा ही उनकी पूजनीयता का कारण रही और आज भी है। यह बात लोक-मानस का निरीक्षण करने पर ध्यान में आती है। प्रत्यक्ष सज्जनता की अपेक्षा बाह्याडम्बर और चमत्कार सम्बन्धी भ्रम के कारण हमारे समाज में तत्सम्बन्धी दम्भ बहुत बढ़ गया है और उससे समाज की असीम हानि होती है।

-विचार -दर्शन

दिखावटी वैराग्य की व्यर्थता-

वैराग्य के सम्बन्ध में हमारे देश में बहुत विचित्र कल्पनायें फैली हुई हैं। इन सबका साराँश यह है कि सगे-सम्बन्धी, कुटुम्बी, समाज आदि से सम्बन्धित स्वाभाविक प्रेम को छोड़कर, उनके प्रति उदासीन हो जाना और जितना बन सके उतना वस्तुओं का त्याग करना साधु मण्डलियों में इसके लिये जड़ भरत का चरित्र आदर्श रूप में सुनाया जाता हैं। जड़ भरत ने घर बार से मुक्त होने के लिये उन्मत्त वृत्ति धारण कर ली थी और जो कुछ काम उसे सोचा जाता, उसे वह बिगाड़ डालता था। अन्त में तंग आकर घर वालों ने उसे निकाल दिया और तब जंगल में रहकर उसने अपरिग्रह की पराकाष्ठा की । इस कथा को पुराणकारों ने वैराग्य का उपदेश देने के लिये लिया है, पर आजकल लोगों ने उसे कर्त्तव्य कर्म से विमुख होकर निकम्मेपन का जीवन व्यतीत करने का साधन समझ लिया है। ऐसा कोई मनुष्य यदि अपने घर में माँ-बाप या किसी अन्य सम्बन्धी के अत्यन्त बीमार होने पर उनकी तरफ से आँखें मूंद कर मन्दिर में या साधुओं के पास बैठा रहे और उनकी बीमारी की चर्चा करने पर ऐसा उत्तर दे कि “खटिया का पाया टूट जाय तो उसका क्या करते हैं? चूल्हें में ही तो जलाते हैं ना? उसी तरह यह हड्डियों की खटिया है, टूट जायगी तो बहुतेरे लोग हैं जो जाकर जला आवेंगे। इसकी क्या चिन्ता की जाय। माँ-बाप और सगे-सम्बन्धी तो चौरासी लाख योनियों में जहाँ कहीं हमारा जन्म हुआ है, मिले हैं और मिलेंगे। परन्तु साधु-समागम क्या बार-बार मिलने वाला है?” तो यह समझा जाता है कि उसके वैराग्य का घड़ा लबालब भर गया है और साधु लोग ऐसे अविवेक को प्रोत्साहन देते हैं।

विशाल समाज के हितार्थ अनेक व्यक्तियों द्वारा अपने निजी तथा अपने कुटुम्बियों के भी सुख, सुविधा, स्वार्थ और जीवन के बलिदान कर देने के उदाहरण प्रत्येक देश में मिलते हैं। उनके नाम सब जगह आदरपूर्वक लिये जाते हैं। परन्तु पूर्वोक्त वृत्ति में तो वैराग्य के नाम पर एक मनमानी और गैर जिम्मेदारी से भरी स्वच्छन्दता है। मनुष्य अपने मन के किसी आवेग की पुष्टि के लिये यदि कुछ शारीरिक कष्ट या असुविधा सहन करता है तो उसे वैराग्य नहीं कह सकते।

-जीवन-शोधन


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