दान क्यों दें? किसे दें?

February 1965

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हमारे यहाँ दान को बहुत बड़ा महत्व दिया गया है। अपनी आमदनी का एक अंश दान के रूप में खर्च करना अनिवार्य माना है। हमारे पूर्वज मनीषियों ने दान का धर्म के साथ अटूट सम्बन्ध जोड़कर उसे आवश्यक धर्म-कर्तव्य घोषित किया था। दान की बड़ी-बड़ी आदर्श गाथाएं हमारे साहित्य में भरी पड़ी हैं और आज भी हम किसी न किसी रूप में दान की परम्परा को निभा रहे हैं। गरीब से लेकर अमीर, सभी अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार कुछ-न कुछ दान करते ही हैं। मानो दान देना हमारे स्वभाव का एक अंग ही बन गया हो।

लेकिन अन्य परम्पराओं की तरह ही दान की परम्परा में भी दोष उत्पन्न हो गये हैं। दान का सदुपयोग न होकर दुरुपयोग अधिक होने लगा है। दान के पीछे जो श्रद्धा, सद्भावना, त्याग तथा सदुपयोग की वृत्ति होनी चाहिये, उसकी जगह कई विकृतियों ने लेली है। दान क्यों करना चाहिए, दान किसे देना चाहिये, कैसे देना चाहिये, यह बहुत ही कम लोग जान पाते हैं। गीताकार ने दान की व्याख्या करते हुए कहा है-

दातव्यति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।

देशे कालेच पात्रे च तद्दानं सात्विकं स्मृतं॥

यत्ततु प्रत्युपकारार्थं फलर्मुाद्दश्य वा पुनः।

दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्॥

अदेशेकाले यद्दानमात्रेभ्यश्च दीयते।

असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्॥

“दान देना मनुष्य का कर्तव्य है, ऐसा जानकर बिना बदले की भावना से देश, काल, पात्र का ध्यान रखकर जो दान दिया जाता है वह सात्विक दान है।”

क्लेश पाकर या बदले की भावना से किसी कामना पूर्ति के लिये दिया जाने वाला राजसिक दान है।

जो दान बिना सत्कार के, देश-काल-पात्र का ध्यान रखे बिना, उपेक्षा या तिरस्कार के साथ दिया जाता है, वह तामसिक दान है।

व्यवहारिक क्षेत्र में भी दान के पीछे मुख्यतया तीन भावनायें निहित होती है। एक दान वह जो श्रद्धा से प्रेरित होकर किसी सामर्थ्यवान यथा-विद्वान, तपस्वी जननेता, देशसेवक, वैज्ञानिक, कलाकार आदि को दिया जाता है। इसमें श्रद्धा ही मुख्य होती है। दूसरे प्रकार का दान दया प्रेरित होकर दीन-हीन सामर्थ्य-विहीन लोगों को दिया जाता है। तीसरे प्रकार का दान अहंकार से प्रेरित होकर अपनी दानशीलता की ड्योढ़ी पिटवाने के लिये, नाम यश खरीदने के लिए, किसी लाभ के लिए, बड़ा बनने के लिए दिया जाता है।

अब हम देख सकते हैं कि हमारे समाज में दान की क्या स्थिति है? दान का उत्कृष्ट स्वरूप बहुत कुछ विलुप्त होता जा रहा है और उसके स्थान पर राजसिक, तामसिक दान की बाढ़-सी आ गई है और वह उसी तरह समाज के अंग नहीं लग पाता, जिस तरह अतिसार के रोगी को दिया जाने वाला भोजन। एक ओर गुलाब की खेती सूखी जा रही है और दूसरी ओर हम काँटे, झाड़-झंखाड़ों को सींच रहें हैं। दान के नाम पर कैसी विडम्बना व्याप्त है।

सच तो यह है कि दान के पीछे दातापन की भावना ही न होनी चाहिए। यह एक जीवन का स्वाभाविक कर्तव्य है। कालिदास ने कहा है।

“अदानं हि विसर्गाय सताँ वारिमुचामिव।”

“जैसे बादल पृथ्वी पर से जल लेकर फिर पृथ्वी पर ही वर्षा देते हैं, उसी तरह सज्जन जिस वस्तु का ग्रहण करते हैं, उसका त्याग भी कर देते हैं।” समाज में , संसार में से ही हमने संग्रह किया है, प्राप्त किया है, तो उसे समाज के लिए, संसार के लिए त्याग भी कर देना होगा। कितना सहज आधार है दान का । फिर “मैं दान कर रहा हूँ” ऐसा कहने का अधिकार भी कहाँ रह जाता है।

विनोबा के शब्दों में “दान के मानी फेंकना नहीं वरन् बोना है।” समाज के धरातल पर दान एक प्रकार की खेती है। जो दिया जाता है, वह परिपक्व होकर समाज की उन्नति, कल्याण, विकास में सहायक होना चाहिए। दान से समाज का शरीर पुष्ट होना चाहिए, तभी वह दान है। अन्यथा दान के नाम पर अपने धन, सम्पत्ति साधनों को नष्ट करना है, व्यर्थ गँवाना है। ज्ञान-दान में लीन, विद्वान, परोपकार में लीन, कर्मवीर, ज्ञानवृद्धि में सहायक तत्वज्ञानी, अनेकों जन-सेवकों के अभावों की पूर्ति करना समाज को ही भोजन देना है। इन परमार्थकारियों को दिया गया दान खेत में बोये गए बीज की तरह कई गुना होकर समाज को ही मिल जाता है।

विनोबा ने कहा है “तगड़े और तन्दुरुस्त आदमी को भीख देना, दान करना, अन्याय है। जो दान अनीति और अधर्म को बढ़ाता है, वह दान नहीं वह तो अधर्म ही है। विवेकशील लोग अनुमान लगा सकते हैं कि इस तरह की अन्धदान प्रवृत्ति के कारण समाज में बहुत से लोगों ने भीख माँगकर, दान के ऊपर ही गुजारा करने का जन्म सिद्ध अधिकार-सा मान लिया है। हमारे देश में भिखमंगों की एक जमात-सी खड़ी हो गई है, जिनका पेशा ही दान लेना और उससे मौज करना बन गया है।

देश और समाज के लिये, जनकल्याण के लिए गरीब जरूरत मन्द लोगों की सहायता के लिए, लोकसेवी परमार्थरत सज्जनों की अभावपूर्ति के लिए हृदय खोलकर दान दीजिए। लेकिन जिन्होंने दान लेना अपना पेशा बना लिया है, जो दान के माध्यम से अपने लिए धन जायदाद एकत्र कर रहे हैं, जो दान के पैसे से खूब मौज गुलछर्रे उड़ाते हैं, तरह-तरह की बदमाशियाँ करते हैं, उन्हें एक फूटी कौड़ी भी न दें। अन्यथा धन नाश के साथ-साथ आपको अनेकों पापों का भागी बनना पड़ेगा, यह ध्रुव सत्य है।

बहुत से लोग किसी मन्दिर धर्मशाला में कुछ रुपया देकर अपने नाम का पत्थर लगाने में, किन्हीं धर्म संस्थाओं को कुछ धन देकर अपना नाम पत्र पत्रिकाओं, सभा समितियों में रोशन कर लेने को ही दान समझते हैं। कुछ लोग अपनी कामनापूर्ति का दाव सफल हो जाने पर दान का पुण्य लूटते हैं। कई लोग अपनी खुशामद कराकर, अपनी दान-वीरता, धर्मशीलता के गुणगान के लिए दान करते हैं। यह तो एक तरह का व्यापार है, जहाँ दान के बदले यश, नाम, कीर्ति, कामनापूर्ति, अपनी खुशामदगिरी, सेवा-चाकरी खरीदी जाती है।

ईसामसीह ने कहा था-”तुम्हारा दायाँ हाथ जो देता है उसे बाँया हाथ भी न जान पाये।” किसी को आपके सहयोग सहायता की आवश्यकता है, कोई जरूरतमंद-अभावग्रस्त, परेशान है तो चुपचाप उसकी सहायता कर दीजिए कि दान लेने वाला भी न जान पाए। इसीलिए गुप्त दान को सर्वोपरि माना गया है। स्मरण रहे दान के बदले यदि आपको तुरन्त ही कोई लाभ मिल गया, चाहे वह नाम, यश, कीर्ति या सामाजिक महत्व ही क्यों न हो तो आपके दान का भी मूल्य गिर गया। शास्त्रकारों ने श्रेष्ठ दानी उसे ही बताया है जो बिना माँगे और बिना प्रकट किए हुए ही दान करता है।

बहुत से लोग दूसरों को दीन-हीन,गरीब असहाय, मानकर दान करते हैं, मानो वे दूसरों के साथ बड़ा उपकार कर रहें हों। लेकिन इस तरह का भेदभाव दान की पवित्रता सात्विकता को नष्ट कर देता है। अहसान, बड़प्पन जताकर, दूसरे को निम्न कोटि का समझकर, उपेक्षा या तिरस्कार के साथ दिया गया दान तामसिक दान है। दूसरे लोग भी आपकी ही तरह समाज के एक अंग हैं। यह ठीक है कि अपने प्रयत्न या संयोगवश साधन संपत्ति आपके पास एकत्र हो गई है, लेकिन वह सम्पूर्ण समाज की, धरती की ही तो है। आवश्यकता पड़ने पर समाज को लौटा देने में आपको गर्व, बड़प्पन की भावना नहीं रखनी चाहिए।

आपका दान समाज के लिए जितना उपयोगी होगा, उतनी ही उसकी पवित्रता, सात्विकता बढ़ेगी और पात्र के साथ-साथ आपका भी कल्याण सध सकेगा। सोच समझकर पात्र और उसकी आवश्यकता को देखकर, उपयोगिता को समझकर, बिना किसी, लाग लपेट के शुद्ध हृदय से दान दीजिए और समाज का भला कीजिए।


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