बुद्धि-बल भी तो बढ़ाइए-

February 1965

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बुद्धि एक ऐसा महत्वपूर्ण तत्व है, जिसके द्वारा मनुष्य का जीवन प्रकाशित होता है, प्रेरित होता है। यदि अन्य प्राणियों से मनुष्य में कोई विशेषता है, तो वह है-बुद्धि। जहाँ बुद्धि नहीं, वहाँ मनुष्य, मनुष्य नहीं, वह बिना सींग-पूँछ का एक तुच्छ प्राणी मात्र रह जाता है। बुद्धि के द्वारा ही जीवन में गलत- सही, उत्कृष्ट-निकृष्ट, धर्म-अधर्म,कार्य-अकार्य की ठीक-ठीक निर्णय होता है। जिस तरह किसी यान में लगा हुआ प्रकाश यन्त्र चालक को सही मार्ग का दर्शन कराता है, उसी तरह मानव शरीर में बुद्धि का स्थान है। बुद्धि ही ऐसी कसौटी है, जिस पर मनुष्य जीवन को, जगत को परख कर ठीक-ठीक निर्णय पर पहुँच सकता है। जिस तरह नेत्रहीन के लिए मनोरम दृश्य व्यर्थ है उसी तरह बुद्धि-हीन के लिए जीवन और जगत के मधुर रहस्य, शास्त्र-वार्ता, ज्ञान-विज्ञान व्यर्थ है और उनके बिना जीवन जड़ है, पशु तुल्य है। इसीलिए हमारे यहाँ बुद्धि को शुद्ध-निर्मल बनाने के लिए बहुत जोर दिया गया है। संसार में जो भी गति, उन्नति-प्रगति, विकास, खोज, अन्वेषण हो रहे हैं, यह सब बुद्धि की ही देन हैं।

शास्त्रकार ने कहा है-

“बुद्धेर्बुद्धिमताँ लोके नास्त्यगम्यं हि किंचन।

बुद्धथा यतो हता नन्दाश्चाणक्ये नासिपाणयः॥”

“बुद्धिमानों की बुद्धि के समक्ष संसार में कुछ भी असाध्य नहीं है। बुद्धि से ही शस्त्र-हीन चाणक्य ने सशस्त्र नन्दवंश का नाश कर डाला।”

मनुष्य के हाथ पैरों की, शरीर की स्थूल शक्ति सीमित है। यह प्रत्यक्ष में अपनी सीमा तक ही कारगर सिद्ध होती है, लेकिन बुद्धि की शक्ति बहुत अधिक व्यापक है। यह दूर, आते दूर तक भी प्रभाव डाल सकती है। “दीर्घौ बुद्धिमतो बाहू याम्याँ दूरे हिनस्ति सः।” बुद्धिमान की भुजायें बड़ी लम्बी होती हैं, जिनसे वह दूर तक वार कर सकता है। महर्षि व्यास के अनुसार “बुद्धि श्रेष्ठानि कर्माणि” बुद्धि से विचारपूर्वक किए गये कार्य ही श्रेष्ठ होते हैं।

बुद्धि मनुष्य के लिए दैवी विभूतियों में उच्च कोटि का वरदान है। इसके सहारे मनुष्य अपने जीवन को अधिक उन्नत, प्रभावशाली बना सकता है। संसार में जो कुछ मनुष्य कृत उपलब्ध है, वह बुद्धि की ही देन है। कहावत है-बुद्धिमान का एक दिन मूर्ख के जीवन भर के बराबर होता है।

बुद्धि का विकास करना जीवन की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। बुद्धि को विकसित, संस्कारित और समर्थ बनाने की प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यकता है। इसलिए कि वह अधिकाधिक उत्कृष्ट जीवन बिता सके, मानवीय गरिमा को आत्मसात् कर सके। बुद्धि को अधिकाधिक प्रौढ़, व्यापक बनाने के लिए ज्ञान की साधना, विचारों की अर्चना करना आवश्यक है। ज्ञान, विचार-साधना के क्षेत्र में हम जितने अधिक प्रयत्न करेंगे, उतना ही हमारी बुद्धि का विकास होगा।

बौद्धिक क्षमता को बढ़ाने के लिए सर्वोपरि आवश्यकता है ‘सीखने और सिखाने की तीव्र लगन की।’ सीखने के लिए मानव जाति का संचित अब तक का ज्ञान कुछ कम नहीं है। नाना क्षेत्रों में ज्ञान का अथाह भण्डार भरा पड़ा है। इसके अतिरिक्त संसार की खुली पुस्तक से हर समय कुछ न कुछ सीखने को मिलता ही रहता है। दूसरी बात है, सीखे हुए को सिखाने की। दूसरों को सिखाने से भी बुद्धि का विकास होता है। वस्तुतः दूसरों के माध्यम से ही जो कुछ सीखा हुआ है, वह परिष्कृत होता है।

सीखने के क्षेत्र में दूसरों के विचारों से परहेज नहीं करना चाहिए। खासकर हमारे यहाँ की यह विशेषता है और हमारी परम्परा ही कुछ ऐसी रही है, जिसके अनुसार हमने किसी के भी विचार से परहेज नहीं किया। संसार भर के विचारों का हमने प्रयोग किया और जो उपयुक्त लगा उसे स्वीकार करने में आना-कानी नहीं की। बुद्धि की साधना करने वाले के लिए अपनी ग्रहण शक्ति को एकाँगी नहीं बनाना चाहिए। अपने आपको किसी एक ही विचारधारा में कैद नहीं कर लेना चाहिए। जो ऐसी भूल कर बैठते हैं, उनकी बुद्धि भी एकाँगी बन जाती है। वह नाना दिशाओं में विकसित नहीं हो पाती।

बुद्धि के साधक लिए-ज्ञान की उपासना करने वाले को किसी भी स्थिति में पहुँचकर यह नहीं मान लेना चाहिए कि बस, अब इतिश्री हो चुकी। स्मरण रखिये, ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। यह नित नूतन विकास क्रम की गोद में पलता है, इसीलिए बुद्धि की भी कोई सीमा नहीं हो सकती। उसके लिए भी विकसित होने के नित नये अध्याय खुलते रहते हैं। प्रसिद्ध विचारक बेकन ने कहा है “ईश्वर ने बुद्धि की कोई सीमा निश्चित नहीं की है।”

ज्ञानार्जन के लिए अपने बुद्धि के यन्त्र को सब क्षेत्रों में, सब संस्थाओं में, सब प्रणालियों में घुसकर सीखने दें। किसी एक-संस्था, विचार-प्रणाली, नियम में आबद्ध न करें। जहाँ-जहाँ भी ज्ञान के नये स्रोत प्रकाश में आवें, वहाँ-वहाँ ही आप प्रवेश कीजिए-सीखिए। अध्यात्म, समाजशास्त्र, परिवार, अर्थ विज्ञान, नीति, सदाचार, राजनीति, विज्ञान, जन-सेवा, मानस-शास्त्र, धर्म-संस्कृति सभी विषयों, सभी क्षेत्रों में अपनी गति रखें। आपके ज्ञानार्जन का क्षेत्र जितना व्यापक होगा, उतनी ही आपकी बुद्धि भी विशाल-व्यापक बनेगी।

नीतिकार ने कहा है- “दृष्टि पूर्तन्यसेत्पादं वस्त्रपूतं पिबेज्जलं।” देखकर कदम रखिये, छानकर पानी पीजिये। सब ओर से जानकारी किया हुआ खरा उतरे, उसे व्यवहार में लाइये। किसी भी बात को इसलिए मत मान लें कि किसी व्यक्ति विशेष ने कहा है या वह किसी ग्रन्थ में लिखी है अथवा एक बहुत बड़ा मानव समुदाय उसके अनुसार चलता है। प्रत्येक बात, विचार, परम्परा को मौलिक चिन्तन की कसौटी पर ही सही-सही परखे बिना व्यवहार में नहीं लाना चाहिए।

बुद्धि को किसी भी तरह आग्रह प्रधान, मोहासक्त एकांगी नहीं रखना चाहिए। पुरातन का ज्ञान भी प्राप्त करना चाहिए तो वर्तमान का भी। लेकिन ग्रहण वही करना चाहिए जो अपने स्वतन्त्र विचार की कसौटी पर, अपने तथा समाज के लिए हितकर सिद्ध हो। हममें से बहुत कम लोग ही इस तरह बुद्धि को स्वतन्त्र रख पाते हैं। हममें से अधिकाँश तो किन्हीं संस्थाओं, विचार प्रणालियों, चली आ रही मान्यताओं अथवा नये विचारों को आँख मूँद कर बुद्धि पर पर्दा डालकर मान लेने के अभ्यासी हैं। हमारे जो विश्वास बन गये हैं जो मान्यतायें हमारी हैं, उनसे हम इस तरह चिपक जाते हैं कि उनसे परे-कुछ सोचने, समझने, मानने की गुंजाइश ही नहीं रहने देते। लेकिन इस तरह को प्रवृत्ति बुद्धि की विकसित न कर उसे कुण्ठित करना ही है। इसलिए सब पढ़ लिख कर, देखकर सुनकर भी बुद्धि को स्वतन्त्र रखना, उसमें मौलिकता का जीवन डालना आवश्यक है।

स्वतन्त्र बुद्धि की कसौटी पर जो सत्य लगे उसे अपने तक ही सीमित न रखकर, उसे स्वतन्त्रता पूर्वक व्यक्त करने, दूसरों को सिखाने की क्षमता और साहस का होना भी आवश्यक है। बहुत से लोग बड़े बुद्धिमान होते हैं, निर्णय पर भी पहुँच जाते हैं लेकिन वे साहस के साथ अपने अनुभव को प्रकट नहीं करते। उक्त प्रकार से बुद्धि को दबाने पर वह कुण्ठित हो जाती है, उसकी क्षमता नष्ट हो जाती है।

आप जिस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, उसे साहस के साथ प्रकट कीजिए, दूसरों को सिखाइये। चाहे आपको कितने ही विरोध-अवरोधों का सामना करना पड़े, आपकी बुद्धि जो निर्णय देती है, उसका गला न घोटें। आप देखेंगे कि इससे और आपकी बुद्धि अधिक कार्य कुशल समर्थ बनेगी।

बौद्धिक विकास के लिए एक सरलतम, प्रभावशाली, सर्व-सुलभ मार्ग है-भगवान की उपासना। ईश्वरी सत्ता के साथ एकात्मकता जितनी बढ़ेगी, उतनी ही बुद्धि सूक्ष्म और सामर्थ्यवान् बनेगी। सन्त बिनोवा ने कहा है- “बुद्धि की शुद्धि के लिए भगवान की भक्ति से बढ़कर कोई भी साधन आज तक अनुभव में नहीं आया।” हमारे देश में भगवान की भक्ति , उपासना का जो व्यापक प्रचार है वह पूर्वज मनीषियों द्वारा समाज के बौद्धिक जागरण की एक महत्वपूर्ण योजना का ही रूपांतरण हैं। दैवी चेतना का प्रकाश बुद्धि के क्षेत्र में जितना अधिक होता है, उतना ही वह प्रखर, तेजस्वी बनती है। मन्त्रराज गायत्री में तो बुद्धि को प्रखर, शुद्ध बनाने के लिए परमात्मा से स्पष्ट प्रार्थना का विधान है। किसी भी रूप में परमात्मा का चिन्तन, मनन, ध्यान, पूजा, उपासना बौद्धिक क्षमता को बढ़ाने का महत्वपूर्ण उपाय है।

नियमित स्वाध्याय, सत्संग, मौलिक चिन्तन, जीवन और जगत का अनुभव, निर्भयता पूर्वक सीखने और सिखाने की लगन, उत्साह, ईश्वर भक्ति , परमात्मा की पूजा उपासना आदि ऐसे आधार हैं, जिनके द्वारा हम अपनी बुद्धि का विकास कर सकते हैं। बौद्धिक विकास के क्षेत्र में न तो किन्हीं प्राचीन ग्रन्थों के पाठ करने से काम चलेगा, न पूर्वजों की गुण गाने से। इसी तरह वर्तमान युग के उच्छृंखल लहरों में बह जाने से भी कुछ प्रयोजन सिद्ध न होगा। बौद्धिक विकास के लिए आधुनिक युग के अनुरूप नई प्रयोगशालाएं बनानी पड़ेंगी, जहाँ प्राचीन और अर्वाचीन समन्वय के नवीन प्रयोग करने होंगे, नई सूझ-बूझ का परिचय देना होगा, नई राह निकालनी पड़ेगी।

आज हमारी बुद्धि भ्रमित है। हममें से अधिकाँश लोग जीवन के किसी भी क्षेत्र में कोई सही निर्णय नहीं कर पाते। जिधर की हवा आती है, हम उधर ही बह जाते हैं। यह स्थिति छोड़नी होगी और बुद्धि के प्रकाश स्तम्भ की ज्योति दीप्त करनी होगी। स्मरण रहे यह महान कार्य जादू की तरह अचानक नहीं हो जाता। इसके लिए जीवन भर धैर्य, गम्भीरता के साथ, निरालस्य होकर अनवरत प्रयत्न करना आवश्यक होता है।


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