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February 1965

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गृहमेव गृहस्थानाँ सुसमाहित चेतसाम्।

शान्ताहं कृ ति दोषाणाँ विजना वन भूमयः।

अरण्य सदनेतुल्ये समाहित मनोदृशाम्॥

- योग वाशिष्ठ 5। 56। 23

जिसका चित्त स्थिर है और अहंकार शान्त है उन गृहस्थों के लिये घर ही निर्जन वन के समान है। शाँत चित्त वालों के लिये घर और वन एक-सा है।

सत्य ही सब तरह से हमारे लिए उपासनीय है। सत्य के मार्ग पर आरम्भ में कुछ कठिनाइयाँ आ सकती हैं, किन्तु यह जीवन को उत्कृष्ट और महान् बनाने का राजमार्ग है। जिस तरह आग में तपाकर, कसौटी पर घिसकर सोने की परख होती है, उसी तरह सत्य की कसौटी पर खरे उतरने के लिए आने वाली कठिनाइयों का सामना करना ही उचित भी है और आवश्यक भी। एक बार सत्यनिष्ठा की प्रामाणिकता सिद्ध होने पर मनुष्य की स्थिति शुद्ध सोने जैसी हो जाती है। सत्य का मार्ग सरल, सहज और स्वाभाविक है। ऐसे मंगलमय पथ पर चलकर लोक और परलोक को सुख−शांतिमय क्यों न बनावें।


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