इन्द्रासन प्राप्त हुआ

February 1965

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नहुष को पुण्य फल के बदले में इन्द्रासन प्राप्त हुआ। वे स्वर्ग में राज्य करने लगे। ऐश्वर्य और सत्ता का मद जिन्हें न आवें, ऐसे कोई विरले ही होते हैं। नहुष भी सत्ता मद से प्रभावित हुये बिना अछूते न रह सके। उनकी दृष्टि रूपवती इन्द्राणी पर पड़ी। वे उसे अपने अन्तःपुर में लाने की विचारणा करने लगे। प्रस्ताव उनने इन्द्राणी के पास भेज ही दिया।

इन्द्राणी बहुत दुखी हुई। राजाज्ञा के विरुद्ध खड़े होने का साहस उसने अपने में न पाया तो एक दूसरी चतुरता बरती। नहुष के पास उसने सन्देश भिजवाया कि वह ऋषियों को पालकी में जोते और उस पर चढ़कर मेरे पास आवे तो प्रस्ताव स्वीकार कर लूँगी।

आतुर नहुष ने अविलम्ब वैसी व्यवस्था की। ऋषि पकड़ बुलाये, उन्हें पालकी में जोता गया, उस पर चढ़ा हुआ राजा जल्दी-जल्दी चलने की प्रेरणा करने लगा।

दुर्बलकाय ऋषि दूर तक इतना भार लेकर तेज चलने में समर्थ न हो सके। अपमान और उत्पीड़न से वे क्षुब्ध हो उठे। एक ने कुपित होकर शाप दे ही डाला- “दुष्ट! तू स्वर्ग से पतित होकर पुनः धरती पर जा गिर।” शाप सार्थक हुआ, नहुष स्वर्ग से पतित होकर मृत्यु लोक में दीन-हीन की नाईं विचरण करने लगे।

इन्द्र पुनः स्वर्ग के इन्द्रासन पर बैठे। उन्होंने नहुष के पतन की सारी कथा ध्यानपूर्वक सुनी और इन्द्राणी से पूछा-भद्रे! तुमने ऋषियों को पालकी में जोतने का प्रस्ताव किस आशय से किया था?

शची मुस्कराने लगीं। वे बोलीं-नाथ, आप जानते नहीं, सत्पुरुषों का तिरस्कार करने, उन्हें सताने से बढ़कर सर्वनाश का कोई दूसरा कार्य नहीं। नहुष को अपनी दुष्टता समेत शीघ्र ही नष्ट करने वाला सबसे बड़ा उपाय मुझे यही सूझा। वह सफल भी तो हुआ।

देव सभा में सभी ने शची से सहमति प्रकट कर दी। सज्जनों को सताकर कोई भी नष्ट हो सकता है। बेचारा नहुष भी उसका अपवाद कैसे रहता।


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