लोगों की ऐसी मान्यता है कि इस धरती से अन्यत्र कहीं ऊपर आसमान में स्वर्ग अवस्थित है। इसके बारे में उन्हें तरह-तरह की कल्पनायें करते देखा जाता है। कहते हैं वहाँ सभी प्रकार के शरीर-सुख मिलते हैं। इस स्वर्ग की प्राप्ति के लिए लोग तरह-तरह के कर्मकाण्ड करते रहते हैं।
ऊपर कोई स्वर्ग है या नहीं, इस पचड़े में पड़ने की अपेक्षा यह देखना अधिक अच्छा है कि उस स्वर्ग जैसी परिस्थितियों को अपनी इस धरती पर भी उतारा जाना सम्भव है?
साधनों की दृष्टि से इस धरती में किसी प्रकार का अभाव नहीं है। रुपया-पैसा,धन-जायदाद, वस्त्र-आभूषण, फल-फूल, मेवा-मिष्ठान आदि सभी सुख सामग्रियों से धरती-माता की गोद भरी पूरी है। यदि यहाँ कुछ कमी हो सकती है तो वह भावनात्मक न्यूनता ही होती है। सुख के साधनों के साथ स्नेह, प्रेम और आत्मीयतापूर्ण भावनाओं के सम्मिश्रण को ही स्वर्ग कहा जा सकता है।
यह स्वर्ग आपके घर में ही मौजूद है, आप भले ही उसे न देख पाते हों। यह स्वर्ग-दाम्पत्य-जीवन का स्वर्ग, किसी ऊपर वाले स्वर्ग से कम सरस, सुखद और सुरुचिपूर्ण नहीं है। जिसने इसका रसास्वादन कर लिया वह अन्यत्र स्वर्ग की क्यों कामना करेगा?
पति और पत्नी का मिलन एक आध्यात्मिक मिलन होता है। दो आत्माओं का सम्मिलन इतना आनन्ददायक होता है कि वे दोनों अपने इस सुमधुर सम्बन्ध का परिपाक बनाये रखने के लिये सम्पूर्ण जीवन कठिनाइयों और मुसीबतों का खुशी-खुशी सामना करते रहते हैं। घर गृहस्थी जुटाने के लिए कितना श्रम, उद्योग और अध्यवसाय करना पड़ता है, इसे प्रत्येक सद्गृहस्थ भली प्रकार जानता है। इसी प्रकार घर के आन्तरिक मामलों की देख−रेख, बच्चों के लालन-पालन, भोजन व्यवस्था, पतियों की समुचित सेवा में बेचारी गृहणियों को कितनी दौड़-धूप करनी पड़ती है, यह किससे छुपा है। एक दूसरे के प्रति आत्म-उत्सर्ग की भावना निश्चय ही आध्यात्मिक तथ्य है। युग-युगान्तरों के संस्कारों के परिणामस्वरूप यह सुखद संयोग मिलता है। एक प्राण दो शरीरों की यह सम्मिलित इकाई जितनी प्रगाढ़ आत्मत्याग की भावनाओं से ओत-प्रोत होगी, उसी अनुपात से आपके आँगन में स्वर्ग बिखरा पड़ा होगा। उस वातावरण में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति जीवन के सच्चे सुख का रसास्वादन कर रहा होगा। जहाँ इस आत्मीयता में कमी होगी, वहाँ दुःख और दारिद्रय की परिस्थितियाँ ही दिखाई देंगी। स्वर्ग का आधार जिस प्रकार भावनात्मक परिष्कार है, उसी प्रकार कलह और कटुता के आधार पर नारकीय जीवन का सूत्रपात होता है। मनुस्मृति में कहा गया है :-
सन्तुष्टो भार्यया भर्ता भर्त्रा भार्या तथैव च ।
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्रवैवम्॥
स्त्रियाँ तु रोचमानायाँ सर्व तद्रोचते कुलम्।
तस्याँ त्वरोचमानायाँ सर्वमेव न रोचते॥
अर्थात् जिस कुल में पत्नी से पति और पति से पत्नी अच्छी प्रकार सन्तुष्ट रहते हैं, उसी घर में सौभाग्य और ऐश्वर्य निवास करते है। जहाँ उनमें कलह होता हैं। वहाँ दुर्भाग्य और दारिद्रय स्थिर रहता है। स्त्री की प्रसन्नता से घर की प्रसन्नता मुखरित रहती है। यदि वह अप्रसन्न रही तो सभी ओर अप्रसन्नता और दुःखद परिस्थितियाँ उठ पड़ती हैं।
दाम्पत्य-जीवन के सुख का चाव विवाह के थोड़े दिन तक पूर्ण स्थिर रहता है। जब तक दोनों में एक दूसरे के प्रति आकर्षण बना रहता है, तब तक दोनों ही एक विलक्षण सुख का अनुभव किया करते है। थोड़ी देर तक पति दिखाई न दे, तो नव-वधू का हृदय आशंका से छटपटाने लगता है। तरह-तरह की मंगल कामनायें अन्तःकरण से उठने लगती है। पति आ जाता है तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे खोए हुए प्राण वापस हुए हों। पुरुषों की भी ऐसी ही अवस्था होती है। उन्हें भी अपनी पत्नी के लिए तरह-तरह की वस्तुएं एकत्रित करने में बड़ा आनन्द आता है। इसके लिये वे अनेकों प्रयत्न भी करते हैं। जब तक यह भावनाओं का आदान-प्रदान चलता रहता है, तब तक घर का वातावरण अत्यन्त रोचक और सजीव बना रहता है।
किन्तु आकर्षण की कमी के साथ भावनाओं का स्तर भी गिरने लगता है। पारस्परिक प्रिय-दर्शन और आत्मदान के स्थान पर एक दूसरे के दोष, ऐब और कमियाँ ढूँढ़ने लग जाते है। यही से गृहस्थ की दुर्दशा प्रारम्भ होती है जो घर को अन्ततः नरक जैसी दुःखद परिस्थितियों में जा पटकती है।
आकर्षण में गिरावट का प्रमुख कारण अनियन्त्रित काम वासना ही है। इसका प्रधान दोषी पुरुष है। भारतीय परम्पराओं के अनुसार पुरुषों के अधिकार बड़े माने जाते हैं। अधिकाँश व्यक्ति इस स्वामित्व का दुरुपयोग अपनी क्षणिक इन्द्रिय उत्तेजना की पूर्ति में किया करते है। इससे सौंदर्य का आकर्षण कम होने लगता है और लोग आध्यात्मिक सन्निकटता से दूर हटने लगते हैं।
स्त्रियों को अपनी सम्पत्ति मानकर उनसे व्यवहार करने की पुरुष की आदत नितान्त दुर्भाग्यपूर्ण है। जो कर्त्तव्य स्त्रियों के पुरुषों के प्रति होते हैं, वैसा ही निर्वाह यदि पुरुष भी अपनी पत्नियों के प्रति करें तो दाम्पत्य जीवन को चिरकाल तक सुखद शान्तिमय बनाये रखा जा सकता है। पुरुषों के कर्त्तव्यों की विवेचना करते हुए पद्मपुराण में लिखा है ।
नास्तिभार्या समंतीर्थं नास्ति भार्या समंसुखम्।
नास्ति भार्या सर्मंपुण्य, तारणाय हिताय च॥
पुरुष के हित व कल्याण के लिए पत्नी से बढ़कर न तो कोई तीर्थ है न पुण्य, स्त्री के समान सुख अन्यत्र मिलना असम्भव है।
इस सुख की अनुभूति तभी मिल सकती है, जब स्त्री-पुरुषों में पारस्परिक विश्वास सुदृढ़ बना रहे। इससे आत्मीयता बनी रहती है, स्नेह स्थिर रहता है। छोटी-मोटी गलतियाँ भी हो जाती हैं, तो उन्हें उदारतापूर्वक क्षमा कर देने से सम्बन्धों में बिगाड़ पैदा नहीं होता। जो इतना भी न कर सकें, उसे मनुष्य कहना भी भूल है। मनुष्य की सच्ची कसौटी वह है कि यह अपने संरक्षण में निवास करते वालों का शारीरिक और मानसिक भरण पोषण करने हुए दूसरों के हितों में ही अपना सुख माने। अपनी पत्नी, अपने बच्चों को सुखी, हँसता-खेलता देखकर कौन ऐसा सद्गृहस्थ होगा, जिसे खुशी न होती हो। छोटी-छोटी गलतियाँ प्रायः सबसे होती रहती हैं। दाल में थोड़ा नमक ज्यादा हो गया, बच्चे ने दूध बिखेर दिया या भोजन पकाने में थोड़ा विलम्ब हो गया, इतने मात्र से यह मान लेना कि आपकी पत्नी आपका ध्यान नहीं रखती, उचित प्रतीत नहीं होता। जिस प्रकार पुरुषों को बाह्य जीवन में अनेकों उलझनें आती हैं, वैसी ही घर में भी सम्भव हैं। इन समस्याओं को लेकर अपने मधुर सम्बन्ध क्यों खराब करें? उदारता पूर्वक गलतियों को क्षमा कर देने से दूसरे भी सोचते है कि आपको उनका कितना ध्यान है। इसी बात को लेकर तो नारियाँ अपने पिता का घर छोड़कर पतियों का सहचर्य स्वीकार करती हैं जिससे इसकी पूर्ति भी सम्भव न हो सकी, इतना भी नहीं बन पड़ा तो उस अभागे पति को कंजूस ही कहा जायगा।
आनन्द का वातावरण पति-पत्नी के स्नेहपूर्ण सम्बन्धों पर आधारित है। उनमें आत्मीयता हो तो कम-शिक्षित और कम सुन्दर दम्पत्ति भी अभावपूर्ण जीवन में भी सुख का रसास्वादन प्राप्त कर सकते हैं। आकर्षण का कारण बाह्य सौंदर्य नहीं कहा जा सकता। आन्तरिक पवित्रता, स्नेह और आत्मीयता के कारण अपनी कम सुन्दर पत्नी भी प्राण-प्रिय होती है। घर का सौंदर्य भी मधुर सम्बन्धों से ही फलता-फूलता है।-शास्त्रों का कथन है-
भार्यापत्युर्व्रतं कुर्याद् भार्यावाश्व पतिवतम्।
संसारोऽपि हि सारः स्याद दम्पत्योरेक कः॥
यदि पति-पत्नी एक हृदय हों तो यह अनुसार संसार भी सारवान् बन सकता है। वहाँ इसी धरती में भी स्वर्ग के दर्शन करने हों तो हर सद्गृहस्थ को अपने दाम्पत्य जीवन में प्रेम, स्नेह, आत्मीयता और अभिन्नता की भावना पैदा करनी होगी।