देवता अब इन्सान बनो।
छोड़ भक्ति को तन्द्रा युग-युग संचित ज्ञान बनो॥
मन्दिर का कारागृह तज कर खेतों पर उतरो,
भूल वन्दना के स्वर प्राणों में संघर्ष भरो,
ताप से तप कंचन निखरो।
अन्धकार की निविड़ निशा में नवल विहान बनो।
देवता अब इन्सान बनो।
तुम ने नहीं सुना क्या पौरुष का बजता डंका,
नहीं देखते सजी-सजायी रावण की लंका
राम अब क्या भ्रम क्या शंका ।
सोमनाथ मत बनो पार्थ के अभ्युत्थान बनो।
देवता अब इन्सान बनो॥
अधः पतन का जाल चुनौती देने आया है,
भावों की झंझा ने पथ का दीप बुझाया है,
मनुज भूला भरमाया है,
सत्य, न्याय, समता, क्षमता के गौरव गान बनो।
देवता अब इन्सान बना
- विद्यावती मिश्र