असत्य और उसके दुष्परिणाम

February 1965

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असत्य को संसार में सभी धर्मों, सम्प्रदायों, समाज प्रणालियों में बुरा माना है। सभी महापुरुषों ने असत्य को छोड़ देने का उपदेश दिया है। किसी वास्तविक तथ्य को, सही बात को छुपाकर उसके बदले दूसरी ही नई मनगढ़न्त बात कहना, वैसा ही करना, असत्य का अनुसरण करना है। वाचिक दोषों को असत्य भाषण में बहुत बड़ा दोष (पाप) माना गया है। अक्सर लोग किसी दण्ड से बचने के लिये अथवा अपने दोषों को छिपाने या किसी लाभ की प्राप्ति के लिये झूठे बोलते हैं। अनुचित रूप से दूसरों को दोष देना एवं निन्दा करना भी असत्य भाषण ही माना जाता है। इसी तरह अनाप-सनाप बकना, कटुता भरे वचन भी असत्य भाषण के ही रूप हैं। किसी भी रूप में असत्य भाषण का आधार प्रलोभन, राग, द्वेष, लाभ आदि ही होते हैं।

असत्य का अनुसरण किसी भी हालत में किया जाय, वह सभी प्रकार से सदोष और गड़बड़ी पैदा करने वाला है। असत्य भाषण, असत्य आचरण, मनुष्य के आन्तरिक और बाह्य जीवन में अनेकों विषमतायें पैदा कर देता है और उनसे समस्त व्यक्तित्व, कलुषित, सदोष बना जाता है। असत्य के त्याग की शिक्षा किसी रूढ़ि परम्परा पर आधारित नहीं है, वरन् यह उन वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित है जिनसे असत्य के दुष्प्रभाव की जाँच जीवन-विद्या-विशारदों ने की है।

किसी भी कारण झूठ बोलते रहने पर धीरे-धीरे यह अभ्यास परिपक्व हो जाता है और फिर मनुष्य जाने अनजाने हर समय झूँठ बोलने लगता है। इसका व्यक्ति के जीवन पर भारी प्रभाव पड़ता है। स्वाभाविक और सीधी सही जानकारी या वास्तविक तथ्य को छिपाकर उसके स्थान पर कृत्रिम प्रसंग गढ़ने पर मस्तिष्क को प्रायः सात गुना कार्य करना पड़ता है। एक ओर तो सही तथ्य को लेकर मन से निकलने वाले स्वाभाविक प्रवाह को जोरों से दबाना पड़ता है, दूसरी ओर ऐसी नई बात प्रस्तुत करनी पड़ती है, जो असत्य होते हुए भी पकड़ में न आवे। ऐसा ढंग खोजना पड़ता है, जिससे असत्य का पर्दा न खुल जाय। सचमुच असत्य को छिपाने के लिये मस्तिष्क को ऐसा ताना-बाना बुनना पड़ता है कि कहीं उसका भेद न खुल जाय। दूसरी ओर अन्तर से निकलने वाले सत्य के प्रवाह को जोरों से दबाना पड़ता है कि कहीं अनायास ही असलियत न खुल पड़े। असत्य वक्ता के दिमाग को असाधारण सतर्कता से इतना काम करना पड़ता है कि उससे भारी मानसिक-क्षति उठानी पड़ती है और उसका मानसिक संस्थान दुर्बल होने लगता है।

मानसिक संस्थान की दुर्बलता के साथ ही मनुष्य में “दो व्यक्तित्व” पोषण पाने लगते हैं ओर वे भी विषय प्रकृति के। एक असली दूसरा नकली। असली व्यक्ति सही बात को जानता है, उसी में आस्था रखता है, उसे ही प्रकट करना चाहता है। नकली व्यक्तित्व सही बात को छिपाता है, सत्य की आवाज को कुचलता है और मनगढ़न्त कहानी बना लेता है। वह सत्य को प्रकट नहीं होने देता। असली व्यक्तित्व नकली व्यक्तित्व के इस कृत्य से घृणा करता है, उससे परेशान एवं दुःखी रहता है। दोनों में द्वन्द्व पैदा हो जाता है। इससे असत्यवक्ता की मनोभूमि अन्तर्विरोधों, अंतर्द्वंद्वों से भर जाती है। मनोविज्ञान शास्त्र के अनुसार ऐसी स्थिति में कई मानसिक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। पागलपन, मूर्च्छा, अनिद्रा, स्मरणशक्ति का ह्रास, सिरदर्द, दुःस्वप्न, रक्तचाप, धड़कन, मधुमेह आदि रोग आमतौर से इसी स्थिति में पैदा हो जाते हैं।

वैज्ञानिक शोधों से यह सिद्ध हो गया है कि मनुष्य की असन्तुलित, अंतर्द्वंद्व भरी मनोभूमि उसके शारीरिक और मानसिक रोगों का प्रमुख कारण बन जाती है। दो व्यक्तित्वों की अन्तर्द्वन्द्व भरी मानसिक स्थिति से स्वास्थ्य पर बहुत बड़ा दुष्प्रभाव पड़ता है। कपटी, छली, धूर्त, कुचक्री, चोर, असत्यवादी प्रकृति के लोग धीरे-धीरे अपने मानसिक, शारीरिक स्वास्थ्य को नष्ट कर लेते हैं।

असत्य मनुष्य के बाह्य जीवन को भी उसी तरह प्रभावित करता है जैसे उसके स्वयं के व्यक्तित्व को। मालिक और नौकर के बीच, मित्र-मित्र के बीच, स्वजनों और सम्बन्धियों के बीच अविश्वास, घृणा और द्वेष, दुर्भावना पैदा करने में असत्य आचरण, असत्य भाषण का ही पुरा हाथ होता है। कोई भी व्यक्ति दूसरों के साथ धोखेबाजी भरा झूठा व्यवहार कर लेगा किन्तु वह यह नहीं सहेगा कि कोई उसके साथ भी कोई धोखेबाजी करे। जब वह अपने साथ इस तरह का व्यवहार देखता है तो उसमें बड़ा क्रोध और रोष पैदा होता है। जिसने ऐसा किया है उसके प्रति घृणा और प्रतिहिंसा की भावना बल पकड़ लेती है। बदला लेने के लिये जो न पड़ता है, करता है। दण्ड देने, बदला लेने, असमान निन्दा आदि में जो भी सम्भव होगा वह करेगा। इस तरह असत्य जहाँ भी प्रयुक्त होगा वहीं इस तरह के विष बीज बो देगा। परस्पर के द्वेष, क्रोध, घृणा प्रतिशोध से समाज में भी गन्दगी और अशान्ति फैलती है। जिस समाज में इस तरह के झूँठे, बेईमान, धोखेबाज लोग अधिक होते हैं, वहाँ शान्ति, प्रेम, मैत्री सद्भावना के सम्बन्ध स्थिर नहीं रह पाते और परस्पर कलह, उपद्रव, आक्रमण की दुर्भावनापूर्ण प्रक्रियायें बढ़ती हैं और पनपती हैं।

असत्य से किसी स्थायी लाभ की प्राप्ति नहीं होती, वह तो धोखे का सौदा है। लेकिन खेद का विषय है लोग फिर भी असत्य का अवलम्बन लेते हैं। एक-दो बार भले ही असत्य, धोखेबाजी से कुछ भौतिक लाभ प्राप्त कर लिया जाय किन्तु फिर सदा के लिये ऐसे व्यक्ति से दूसरे लोग सतर्क और होशियार हो जाते है उससे दूर रहने का प्रयत्न करते हैं । असत्यभाषी को लोक-निन्दा को पात्र बनकर समाज से परित्यक्त जीवन बिताना पड़ता धोखेबाज, झूठे, चालाक व्यक्ति का साथ उसके भी बच्चे नहीं देते।

किसी भी तथ्य की असलियत को छिपाने, किसी दण्ड के भय से बचने, किसी लाभ की प्राप्ति करने, किसी की निन्दा आलोचना करने, अनर्गल प्रलाप के रूप में, जिस किसी भी कारण झूठ बोलने की, असत्याचरण की आदत को छोड़ देना ही श्रेयस्कर होता। किसी भी कारण से जीवन में असत्य को स्थान देना अपनी बरबादी का द्वार खोलना है। वस्तुतः प्रारम्भ में झूठ बोलना लाभ और प्रसन्नतादायक लगता है, किन्तु अन्ततः देर सवेर में असत्य का पर्यवसान घोर संकटों, मुसीबतों असफलताओं के रूप में भी हानिकर सिद्ध होता है। असत्य का आश्रय लेकर कभी भी किसी ने कोई महत्वपूर्ण लाभ नहीं कमाया। यों किसी ने प्रारम्भ में कुछ लाभ भी प्राप्त किया, तो भी सदा के लिये समाज की नजरों से गिरकर हेय, परित्यक्त, अछूत जीवन बिताना कोई जीवन है। असत्य, धोखे-बाजी, चालाकी, सदैव घाटे का सौदा है।


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