प्रयत्न करने पर भी सुख क्यों नहीं मिलता?

February 1965

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स्त्री-पुरुष, राजा-रंक, धनी-निर्धन, अशक्त -सशक्त सभी की यह कामना होती है कि उन्हें सुख मिले। सुख का सच्चा स्वरूप और उसकी वैज्ञानिक आवश्यकता पर बहुत थोड़े से व्यक्तियों ने विचार किया होता है। अधिकाँश तो शरीर की स्थूल उपभोग सामग्रियों को ही सुख का साधन मानते हैं और इन्हीं के पीछे अन्धी दौड़ लगाते रहते हैं। यह साधन और ये सुख इतने निर्बल होते हैं कि उनसे व्यक्ति की आन्तरिक पिपासा शान्त नहीं होती। क्षणिक सुख का-सा जो आभास होता है, वह भी अन्ततः अग्नि में घी डालने का ही काम करता है। इससे सुख प्राप्ति की कामना प्रबल होती है और इनके प्रति राग या आसक्ति बन जाती है।

यह भाव सुख न रहकर दुःख बन जाता है, क्योंकि शारीरिक सुख अधोगामी होते हैं। इनसे शक्यों का पतन होता है-और यह अशक्तता ही दुःख का कारण होती है। इसलिए इन्द्रियों की बाह्य लिप्सा को सुख नहीं मानते।

धन-दौलत, जिसे सुख का साधन मानते हैं, वह भी सुख कहाँ दे पाता है। ऐसा रहा होता तो हेनरी फोर्ड, राकफेलर आदि प्रमुख धनपति महा सुखी रहे होते। धन के कारण उत्पन्न होने वाला भय, आलस्य, भोग आदि से मनुष्य का हृदय हर घड़ी काँपता रहता है। धनिकों को थोड़ा घाटा लगा कि हार्टफेल हुआ। यह बात बताती है कि धन का साहसी भावनाओं से पूर्णतया सम्बन्ध-विच्छेद है। अतः भयदायक परिस्थितियों में रहकर, विपुल धन-सम्पत्ति का स्वामी होकर भी मनुष्य सुखी रह सकेगा, इसमें सन्देह ही है।

शारीरिक दृष्टि से बहुत मोटा या बलवान होने में भी स्थिरता नहीं है। संसार की अन्य वस्तुओं की तरह शरीर में भी परिवर्तन होता रहता है। आज की स्वस्थ अवस्था सदैव इसी तरह बनी रहेगी इसकी कहीं निश्चिन्तता नहीं है।

एक बात यह भी है कि शरीर की दृष्टि से सम्पन्न व्यक्ति भी कई बार अहंकार प्रदर्शन और दूसरों पर अपनी धाक जमाने की भावना से कुत्सित और नृशंस कर्म करने लगते हैं। अपराधों के वैधानिक दण्ड से मनुष्य बचाव कर सकता है, किन्तु पाप की प्रक्रिया जब मस्तिष्क में विद्रूप उत्पन्न करती है तो मनुष्य के बाह्य और आन्तरिक-जीवन में अशान्ति की आँधी छा जाती है। ऐसे व्यक्तियों का अन्त सदैव ही बड़ा निर्मम, निर्दय और भयानक हुआ है।

तब फिर क्या सौंदर्य को सुख मान लें ? अपने पास भरा-पूरा परिवार है, उससे क्या सुख मिलता है। बहुत पढ़-लिख लिया है, इससे क्या सुखी हैं? सोचते चले जाइये। एक-एक परिस्थिति पर पूर्णतया विचार कर लीजिये। बाह्य साधन सुख नहीं दे सकते। सौंदर्य का आकर्षण मनुष्य को पतित बना देता है, फिर वह सदैव साथ रहने वाला भी तो नहीं है। परिवार में संख्या तो अधिक है, किन्तु बेटे-बाप में नहीं बनती। बच्चियों की शादी की समस्या सताती है। बेटे दुष्ट और दुर्गुणी हों, स्त्रियाँ फूहड़ हों तो नारकीय यंत्रणायें देखने के लिये दूर जाने की आवश्यकता न होगी।

तथाकथित अर्थकरी विद्या भी मनुष्य को सन्तुष्ट नहीं कर सकी। आज शिक्षा का प्रसार हुआ है पर उसी अनुपात में बेकारी भी बढ़ी है। दिखावट, बनावट, फैशन-परस्ती, फिजूलखर्ची आदि बुराइयां आज अधिकाँश पढ़ें लिखे लोगों में ही दिखाई देती हैं। फलस्वरूप वे अशिक्षितों से भी अधिक दुखी रहते देखे जाते हैं। ऐसी दशा में शिक्षा को भी सुख का मूल कैसे मान लें।

मनुष्य का निर्माण जिस ढाँचे में हुआ है, वह सच्चाई और ईमानदारी का खाका है। आन्तरिक सद्गति जिसे सुख कहते हैं, वह मनुष्य की भावनाओं का परिष्कार मात्र है, अन्यथा इस विश्व में न तो कुछ सुख है न दुःख । आत्मा स्वभावतया उदात्त और विशाल है, उसे इस विशालता तथा समष्टिगत भावना में ही आनन्द आता है। स्वार्थ की संकीर्णता प्रवृत्ति और बाह्य भोगों की आसक्ति से उसकी स्वाभाविक पवित्रता पर लाँछन आता है। ऐसी अवस्था में उसका सुखी होना असम्भव ही है। दुर्भावनाओं से उसे तृप्ति नहीं होती। दुष्कर्मों से उसे दुःख मिलता है, अशान्ति रहती है। इसलिए सुखी जीवन का प्रमुख आधार यह है कि हमारा जीवन पवित्र बने और हम सब के हित में अपना हित समझें।

मनुष्य जब इस स्वाभाविक आकाँक्षा पर पर्दा डालने का प्रयत्न करता है, छल, कपट, द्वेष और दुर्भावनाओं से अपनी आन्तरिक निर्बलता पर आघात पहुँचाता है, तो आत्मा छटपटाती है, दुखी और बेचैन होती है। थोड़ी देर के लिये लगता है कि हमें बड़ी सफलता मिल गई, पर वह व्यक्ति सचमुच निरा निर्धन ही है, जो अपनी आत्मिक संपत्तियों को इस तरह खिलवाड़ में विनष्ट कर देता है। कितनी दयनीय अवस्था है कि मनुष्य प्रत्येक वस्तु का मूल्याँकन बाह्य-दृष्टि और साँसारिक दृष्टिकोण से करता है।

मनुष्य के दुःख का प्रमुख कारण उसके निजत्व की अज्ञानता है। इस कारण मनुष्य का दृष्टिकोण ही भिन्न हो जाता है। जिस स्थिति में है उसी को आधार मानकर जीवन का सारा क्रिया व्यापार चलता है। इन व्यवसायों में जब विघ्न उत्पन्न होते हैं, तो भाग्य को दोष देते हैं। भगवान को कोसते, रोते बिलखते रहते हैं।

हमारी स्थिति ठीक उस नाटक के राजा की-सी है जो नाटक समाप्त होने पर भी इस बात पर अड़ जाता है कि मेरा वह खजाना, रानी, सेना, सिपाही लाओ, नहीं तो घर नहीं जाऊंगा। तब नाटक-कम्पनी का मालिक उसे समझता है कि भाई, तुम्हें राजा तो इस नाटक की सफलता के लिये बनाया था। तुम सचमुच राजा तो नहीं हो। एक निर्धन व्यक्ति हो, जिसे पारिश्रमिक देकर इस कम्पनी में भरती किया था।

ऐसे बावले राजा पर लोग हँसते हैं। कहते हैं वह बिल्कुल बुद्धिहीन है। पर हम सब ठीक उस राजा जैसे ही हैं। जो अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर हाड़-माँस की मानव देह पर अभिमान कर बैठे हैं। प्रत्येक बात, सुख और सुविधाओं का चिन्तन इस पंचभौतिक शरीर की दृष्टि से ही करते रहते हैं। पर जब इस जीवन का नाटक खतम होता है और हम शरीर के स्टेज से उतार दिये जाते हैं, तो कितने दुःखी हो सकते हैं, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।

इस संसार में वही परमात्मा विभिन्न रूपों में रूपांतरित होकर अपना प्रकाश फैला रहा है। वह कण-कण में समाया है। वह साक्षी है, वह नित्य, अविनाशी, परमात्मा ही सच्चे आनन्द का स्त्रोत है, उसी को जानने की प्रेरणा देते हुए उपनिषद्कार ने लिखा है-

भूर्भुवः स्वस्त्रयो लोका व्याप्त भोम्व्रह्यतेषूहि।

स एव तथ्यतो ज्ञानी यस्तद्वेति विचक्षणा॥

“अर्थात् इस पृथ्वी, आकाश और पाताल में जो सर्वत्र विद्यमान् परमात्मा है, वही जानने योग्य है। उसे जाने बिना मनुष्य दुःख, क्लेश और सन्ताप से विमुक्त नहीं हो सकता।

मनुष्य जीवन में सात्विकता की ऊँची कक्षा प्राप्त कर लेना ही सर्वसुलभ और सहज उपाय है। इसके लिए कहीं जटिल ऊहापोह की आवश्यकता नहीं। निष्काम भावना से संसार के सम्पूर्ण कर्मों का पालन करते हुए मनुष्य अपनी भौतिक सात्विकता प्राप्त कर सकता है। मनुष्य सत्याचरण करे, इसमें कौन-सी कठिनाई है। परमात्मा की उपासना सद्व्यवहार, सहृदयता, उदारता, निष्कपटता, ये कौन-से वजनदार पत्थर हैं, जो उठाये नहीं उठते। मनुष्य इन सद्गुणों को अपने जीवन में विकसित करने का साहस करे, तो ऐसी कोई भी बाधा नहीं जो उसे सुख प्राप्ति से रोक सके। मनुष्य जीवन की सरलता, शुचिता और सात्विकता की त्रिशक्ति के आधार पर ही उसके भौतिक, भावनात्मक और पारलौकिक सुख विकसित होते हैं।

हमारे श्रेष्ठ अन्तःकरण का जो दिव्य पुरुष इस शरीर में विद्यमान है, अपना धन, शक्ति , विद्या तथा सौंदर्य, सब कुछ वही है। बाह्य साधनों में जो सुख दिखाई देते हैं, वे रेगिस्तान की मरीचिका के समान ही हैं। उनमें भटकता हुआ इन्सान मृग की भाँति धोखा ही खाता है।

इस तथ्य को जितना ही विचार सकें उतना ही अच्छा है, जितना अपने जीवन में समावेश कर सकें, उतना ही श्रेयस्कर है। सत्य और न्याय के साँचे में विनिर्मित मनुष्य जीवन को इन्हीं की प्राप्ति में ही सन्तोष मिल सकता है।


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