काम करने से जी न चुराइये

February 1965

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मकान-मालिक जब घर छोड़कर कहीं अन्यत्र चला जाता है तो उस मकान की दुर्दशा प्रारम्भ हो जाती है। मकड़ियाँ जाला बनाने लगती हैं। जगह-जगह चिड़ियाँ घोंसले बना लेती हैं। कीड़े-मकोड़े बढ़ जाते हैं। वर्षा और वायु के प्रकोप से दीवालों में दरारें पड़ने लगती हैं। धीरे-धीरे आलीशान मकान भी खाली पड़े रहने पर ध्वस्त होकर धराशायी बन जाते हैं। यह स्थिति घर में फली क्रियाशीलता के अभाव से हो जाती है। जब तक मालिक रहता है, तब तक उसकी लिपाई, पुताई, छानी-छप्पर, मिट्टी-मरम्मत होती रहती है। इससे वही मकान साफ -सुथरा और वर्षा में भी सुदृढ़ बना रहता है। ठीक यही बात मानव जीवन के बारे में भी लागू होती है। जब तक मनुष्य क्रिया-शील रहता है तब तक अंग-प्रत्यंग तथा मानसिक चेष्टायें सही दिशा में लगी रहती हैं, पर जैसे ही आलस्य और अकर्मण्यता संवार हुई कि रोग-शोक, असन्तोष और अशान्ति, दैन्य और दीनता के जीव-जन्तु अपना-अपना अड्डा मनःक्षेत्र में जमाने लग जाते हैं और चारों ओर निराशा की मुर्दनी छाई जान पड़ने लगती है।

लोहा देखने में कितना ठोस व मजबूत दिखाई पड़ता है। सारे शरीर की शक्ति लगा कर भी उसे तोड़ा जाना सम्भव नहीं। काटना हो तो पैनी छैनी और वजनदार घनों की चोट देनी पड़ेगी। पर उसी लोहे को किसी कूड़े-कचरे के ढेर में फेंक दीजिये तो कुछ ही दिन में जंग लग जायगी और सम्पूर्ण लोहे को चाट कर बैठ जायेगी। मनुष्य शरीर भी लोहे जैसा ही है। इसकी सुन्दरता और मजबूती तभी तक स्थिर समझिये, जब तक इसमें क्रियाशीलता है। काम से जी-चुराने और दूर भागने का परिणाम लोहे में जंग लग जाने जैसा ही हो सकता है। शरीर का महत्व काम से ही है।

कहावत है- “खाली दिमाग शैतान का घर” अर्थात् निरर्थक समय बिताने और आलस्य में पड़े रहने से उत्पन्न शिथिलता अनेक प्रकार की विकृतियाँ ही पैदा करती है। अपने साथ अनेक औरों को भी इससे हानि ही होती है। पारस्परिक कलह, अनैतिक तत्व और दुराचार बरतने वाले वे ही लोग होते हैं जो श्रम से जी चुराते हैं। जो फैशनपरस्ती को ही जीवन मानकर केवल बन ठन कर इधर-उधर घूमते रहते हैं, ऐसे लोग समाज और राष्ट्र के लिये अभिशाप माने जाते हैं । ऐसे आदमियों को कोई अच्छी दृष्टि से नहीं देखता। उनका सभी जगह निरादर होता है। प्यारा चाम नहीं काम होता है।

जीवन-विद्या के विद्वान व प्रमुख आचार्य टिनमैन अपने अनुयाइयों को सम्बोधित कर कहा करते थे-”जो आलस्य में अपना मूल्यवान् समय गँवाता है वह अभागा है। पृथ्वी पर परिश्रम से मुक्ति नहीं है । मनुष्य कर्म के लिये उत्पन्न हुआ है। उसे जीवन भर परिश्रम करना चाहिये।” एक कर्मशील महापुरुष का कथन है-”जीवन के उपरान्त चिर-काल तक मुझे विश्राम ही तो करना है।”

मनुष्य-जीवन का सच्चा सदुपयोग उसे सत्कर्मों में लगाने से ही होता है। कुछ दिन मौज-मजा लूटने में ही उसे बिता दिया तो इसमें श्रेय की कौन-सी बात रही। भावी सन्तति को सच्ची दिशा में ले जाने के लिये, प्रत्येक व्यक्ति को कर्म करना आवश्यक है। निष्क्रियता से व्यक्तित्व का विकास रुकता है, जिससे मानवीय पतन की सम्भावनायें बढ़ जाती हैं। शिकागो विद्यालय के शरीर क्रिया विज्ञान के प्रख्यात पण्डित डॉक्टर एलेक्जेंडर क्लीटमैन ने 35 वर्षों के अन्वेषण से आलस्य की प्रतिक्रियाओं का पता लगाया, उन्होंने लिखा है-”आलस्य का अर्थ है व्यक्ति की मानसिक अयोग्यता और इसका परिणाम विनाश ही हो सकता है।”

आलस्य से शरीर का तापमान गिरता है। यह ह्रास एक-दो डिग्री तक होता है, इससे शिथिलता बढ़ जाती है।” आलस्य में जीवन बिताने वाले लोगों की उम्र इसीलिये कम हो जाती है। इसके विपरीत श्रमिकों, मजदूरों की आयु अधिक होती है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों की राय भी यही हैं कि संसार की अधिक उम्र वाली जातियाँ वही हैं, जहाँ काम की प्रतिष्ठा होती है।

सन्त विनोबा ने अपने एक प्रवचन में काठियावाड़ के मध्यम वर्ग को सम्बोधित करते हुये बड़े महत्वपूर्ण शब्द कह थे । उन्होंने बताया “मैं इतना ही कहूँगा कि काम के लिये आपमें इज्जत और प्रेम का भाव होना चाहिये। इसके अभाव में अच्छी सेवा न हो सकेगी। काम तो होगा, लेकिन जिस हेतु से वह काम शुरू हुआ है, वह हेतु पूरा नहीं होगा। इसलिये काम के लिये शरीर अच्छा,मजबूत बनाओ और काम के लिये प्रीति और आदर रखो। इसके लिए अपनी चेष्टाओं को निरन्तर जागृत रखने और शक्ति शाली बनाने की अधिक आवश्यकता प्रतीत होती है। शक्ति शरीर की बिजली है और कर्म प्रकाश। हमारी शक्ति जितनी प्रगाढ़ होगी, क्रिया की रोशनी उतना ही जगमगायेगी और दूसरों को रास्ता बतायेगी।

श्रमशीलता को असम्मान तथा हीनता का बोधक मानना नासमझ लोगों को शोभा दे सकता है। आज के शिक्षित वर्ग में यह बुराई गहराई तक प्रवेश कर गई है, जिससे सभी ओर दुःख और निराशा, आत्म-प्रवंचना और आत्महत्याओं के दृश्य दिखाई देते हैं। इससे जन-जीवन बड़ा अस्त-व्यस्त हुआ है। पाश्चात्य देशों की, जिनमें अमेरिका, रूस, ब्रिटेन आदि प्रमुख हैं, उन्नति का एक ही रहस्य है कि वहाँ काम की इज्जत है, आलस्य की नहीं। संसार के बड़े-बड़े महापुरुषों, सन्त-महात्माओं, समाज सुधारकों ने व्यवहारिक जीवन में इस बात के उदाहरण प्रस्तुत किये है कि काम बड़प्पन का चिन्ह है। भगवान कृष्ण, राम, बुद्ध, नामदेव, सुकरात, मुहम्मद आदि सभी महापुरुषों ने कर्म की महत्ता प्रतिपादित की है। महात्मा गान्धी जी स्वयं चक्की पीस कर उसका आटा खाते थे। इनमें से किसी की इज्जत कम नहीं हुई। आज भी लोग इन्हें श्रद्धा से माथा टेकते हैं ।

काम करने से प्रसन्नता, सन्तोष व शान्ति मिलती है। मानसिक या शारीरिक दोनों ही श्रम समान रूप से आवश्यक हैं। दोनों में समन्वय बना रहे तो ही काम चलेगा। किन्तु इनमें में किसी एक को प्राथमिकता देना, दूसरे को गौण मानने की बात न्याय संगत नहीं लगती। खेती का कार्य भी मानवता के विकास में उतना ही उपयोगी है, जितना आफिस के क्लर्क का कार्य। शारीरिक श्रम का महत्व कम नहीं। स्वास्थ्य का सन्तुलन बना रहे, इसके लिए बुद्धि जीवियों को शारीरिक और शारीरिक श्रम करने वालों को बौद्धिक कार्य भी करने चाहिये। दोनों में तालमेल बनाये रखने से ही मनुष्य जीवन के सच्चे आनन्द की उपलब्धि सम्भव है।

लाचारी से, बेमन काम करना एक भारी दुर्गुण है। इससे सफलता का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। वृद्धावस्था में नितान्त निष्क्रिय होकर बैठ जाने की नीति गलत है। ढलती उम्र में भी सक्रिय बने रहने से दुःखद परिस्थितियाँ नहीं टकराती। दार्शनिक सुकरात का कथन है-”मनुष्य की सक्रियता का चरम उत्कर्ष तीसरे प्रहर, अर्थात् जीवन के सन्ध्या काल वृद्धावस्था में होता है। इस समय तक मानसिक शक्तियाँ पूर्ण परिपक्व हो जाती है।” प्रबुद्ध ज्ञान और जीवन के लम्बे अनुभवों के आधार पर महत्वपूर्ण कार्य जीवन के अन्तिम दिनों ही होते हैं। हमारे यहाँ चतुर्थ आश्रम संन्यास का अधिक महत्व इसी दृष्टि से माना गया है। लोक सेवा का यह सब से अच्छा समय होता है।

आज की परिस्थितियों में नैतिक उत्थान की, मानवीय कल्याण की जो-योजनायें चलाई जा रही हैं, उनका पूरा किया जाना तभी सम्भव है जब लोग श्रम की सार्थकता समझें, कर्म के महत्व को पहचाने। श्रम धरती का देवता है। कर्म मनुष्य का आभूषण है। यह वह कसौटी है, जिसमें रगड़ खाकर अनेक सद्गुणों का विकास निखर आता है। श्रम के सहारे धरती से सोना पैदा करते हैं। कर्म से ही यहाँ सुख-शान्ति, समृद्धि और सफलता का अवतरण होता है। धरती में स्वर्ग की-सी परिस्थितियों का निर्माण जिन सद्गुणों से सम्भव है, उनमें से कर्मशीलता प्रमुख है। आइये हम सब मिलकर श्रम-पूर्वक निरन्तर कर्म करने की आदत डालें और व्यक्तिगत जीवन को समृद्ध एवं सामूहिक वातावरण को उल्लासमय बनाने की एक आवश्यक शर्त पूरी करें। ताकि आसमान के स्वर्ग को अपनी वसुन्धरा में उतार कर ले आयें, युग की यही माँग है, होना भी यही है।


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