मन को अस्वस्थ न रहने दिया जाय :-

February 1965

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हमारे जीवन व्यापार का बहुत कुछ आधार हमारा मन ही होता है। मन की प्रेरणानुसार ही जीवन की गतिविधियाँ चलती हैं। जिस तरह मोटर, इंजन या कोई मशीन उसके ड्राइवर की प्रेरणा पर चलती है, उसी तरह हमारा जीवन हमारे मानसिक-संस्थान की प्रेरणा पर चलता है। किसी भी व्यक्ति के जीवनक्रम से उसकी मनोस्थिति को सहज ही जाना जा सकता है। मानसिक स्थिति पर ही जीवन की सफलता -असफलता निर्भर करती है। जिस तरह कुशल ड्राइवर गाड़ी को सही सलामत मंजिल तक पहुँचा देता है, उसी तरह स्वस्थ मनः स्थिति मनुष्य के जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सफलता का कारण बन जाती है। लेकिन जिस तरह अनाड़ी ड्राइवर गाड़ी को कहीं भी दुर्घटनाग्रस्त कर सकता है उसी तरह असन्तुलित और अस्वस्थ मन जीवन नैया को मझधार में ही डुबो देता है, नष्ट कर देता है। इस मनः स्थिति का शोधन, सुधार जीवन की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है, एक अनिवार्य शर्त है, सफलता की कामना रखने वाले श्रेयार्थियों के लिये। मन की साधना ही जीवन सिद्धि का मूलमन्त्र है।

लेकिन मनः शक्ति का परिशोधन करना सामान्य बात नहीं है। जीवन भर के लिए साधना और अभ्यास करना पड़ता है, इसलिए हमारा सारा उपासना विधान, कर्मकाण्ड, योगशास्त्र आदि सभी मनः शोधन पर ही आधारित हैं। जिस तरह पहलवान बनने के लिए, शरीर को शक्ति शाली बनाने के लिए नित्य-प्रति व्यायाम और पौष्टिक भोजन की आवश्यकता पड़ती है उसी तरह मन को शक्ति शाली बनाने के लिए, मनः शक्ति के शोधन के लिए मानसिक साधनाएँ, मानसिक व्यायाम करने पड़ते हैं, मन को भी पौष्टिक भोजन देना पड़ता है, उत्कृष्ट विचार और उदात्त भावनाओं का। सचमुच सधा हुआ, निर्मल, स्वस्थ मन जीवन सिद्धि के लिए एक वरदान है।

स्वस्थ और सबल मन के लिये शरीर का स्वस्थ होना प्राथमिक आवश्यकता है। कहावत है, स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। योगशास्त्र के प्रणेता ने सर्वप्रथम शरीर-शोधन के कार्यक्रमों को ही महत्व दिया है। शारीरिक अस्वस्थता एवं असमर्थता में चित्त की एकाग्रता की साधना सम्भव नहीं होती। जब मोटर के अंचर-पंचर, कील-काँटे ही ढीले-ढाले, टूटे-फूटे होंगे, तो कोई भी ड्राइवर अपनी क्षमता का उपयोग नहीं कर सकता। छिद्रयुक्त घड़े में दूध का दोहन सम्भव नहीं होता। अस्वस्थ शरीर में मनःशक्ति के प्रकट होने की आशा नहीं की जा सकती, क्योंकि शरीर की शिकायत पर ही मन बारबार लगेगा। इसके अतिरिक्त अस्वस्थता के कारण मानसिक संस्थान भी ठीक-ठीक काम नहीं कर सकेगा। अस्वस्थ शरीर अपार मनोबल को धारण नहीं कर सकता। इसलिए उचित आहार-विहार, नियमित जीवन, व्यायाम आदि के द्वारा पहले अपना शरीर स्वस्थ, शक्तिशाली और निरोग बनाना आवश्यक है।

हमारे दैनिक जीवन और कार्य-क्रमों का भी मानसिक स्थिति पर भारी प्रभाव पड़ता है। हम क्या करते हैं, कैसे करते हैं, इससे ही मन का अभ्यास बनता है। यदि हम बुरे कामों में लगे रहेंगे, अनैतिक कार्यक्रमों में लगे रहेंगे, तो मन भी हीन बनता जायगा। इसके विपरीत हम शुभ कार्य में लगेंगे तो मन का अभ्यास भी शुभ ही बनेगा। जिनका जीवन-क्रम जितना क्लिष्ट, अशुभ, अनैतिकतापूर्ण होता है, उतनी ही उसकी मानसिक स्थिति भी उलझी हुई, क्लिष्ट बन जाती है। सेवा, दूसरों की सहायता, जनकल्याण के कार्य, नैतिकता और सदाचारपूर्ण जीवन आदि में लीन व्यक्ति का मनःशोधन स्वयमेव होता जाता है। उनके मन की निर्मलता बढ़ती जाती है और मन अपनी महान् शक्तियों का स्रोत सहज ही खोल देता है उसके लिये।

जीवन क्षेत्र में मिलने वाली विभिन्न सफलताएं भी मनः शक्ति को बढ़ाने के लिए बड़ी कारगर सिद्ध होती हैं। अक्सर लोगों का मन सफलताओं से उत्साहित होता है और असफलताओं से मारा जाता है। जिन्हें जीवन में असफलतायें मिलती हैं, उनमें से अधिकाँश का मन हार मानकर बैठ जाता है। ऐसे लोग मानसिक दृष्टि से निर्बल हो जाते हैं, इसलिए जीवन संग्राम में जहाँ तक बने, हमारा प्रयास ऐसा होना चाहिए कि असफलताओं का विशेष सामना न करना पड़े। दरअसल बहुत से लोग यह भूल करते है कि अपनी शक्ति , सामर्थ्य, साधनों का ध्यान रखे बिना बड़े-बड़े कामों का बोझा उठा लेते है। विवेकहीन महत्वाकाँक्षायें उन्हें ऐसी गलती करने के लिये मजबूर करती है, लेकिन इनका परिणाम तो असफलता के सिवा और कुछ मिलने से रहा।

मन का सबसे बड़ा स्वभाव है इसकी चंचलता। यह किसी एक विषय पर केन्द्रित नहीं रहता। बारबार एक को छोड़कर दूसरे विषय पर दौड़ता है। मन कितने ही संस्कारों का आगार होता है और वे समय-समय पर मन को प्रेरित करते रहते हैं। इन संस्कारों को हटाकर उसको अंचल बना देना सामान्य बात नहीं है। स्वयं महारथी अर्जुन ने ही इस तथ्य का अनुभव करके कहा था-

चंचलंहि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवदृढ़म्।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥

“हे कृष्ण! यह मन बड़ा चंचल है, मनुष्य को मथ डालता है। यह बड़ा शक्तिशाली है। वायु की तरह ही मन को वश में करना भी मैं कठिन मानता हूँ।”

ऐसे चंचल और प्रमथन स्वभाव वाले मन को शोधन करने का मार्ग बताते हुए भगवान् कृष्ण ने अर्जुन से कहा था-

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥

“हे महाबाही! निःसन्देह मन बड़ा चंचल है, यह रुक नहीं सकता। परन्तु हे कौन्तेय! अभ्यास और वैराग्य से यह वश में किया जा सकता है।

जीवन का एक निर्दिष्ट लक्ष्य, कार्यक्रम बनाया जाय। उसी के अनुरूप सद्विचारों और उदात्त भावनाओं के चिंतन में मन को एकाग्र कर दिया जाय। मन चाहे या न चाहे, वह कितना ही भागे, उसे उस लक्ष्य और कार्यक्रम पर ही पकड़कर बार-बार लगाइये। इसके सिवा जो भी विरोधी विचार, भावनायें मन में उठे, उनकी ओर ध्यान न दें, उनसे विरक्त रहें। थोड़े समय में मन की चंचल दूर होकर मन एकाग्र हो जायगा। आप ऐसे एकाग्र मन की शक्ति का जिस दिशा में भी उपयोग करेंगे, उधर ही यह आश्चर्य उत्पन्न कर दिखायेगा। बाह्य क्षेत्र में उपयुक्त कार्यक्रम और आन्तरिक क्षेत्र में तद्नुसार भाव, विचारों के चिन्तन का अभ्यास परिपक्व होने पर मन की चंचलता से छुटकारा मिल जाता है। शुभ के चिन्तन, मनन, अभ्यास से मन की अशुभ वृत्तियाँ बुरे संस्कार भी क्षीण हो जाते हैं और एक दिन मन शुद्ध निर्मल बन जाता है।

मन में शुद्ध भावनाओं को प्रोत्साहन दीजिए। शुभ विचारों के चिन्तन में मन को लगाए रहिए। इस पर भी यदि वह उच्छृंखलता बरते तो उस पर ध्यान न दीजिए। आपने जो निश्चय किया है, जो लक्ष्य और कार्यक्रम बनाया है, उसी की धुन निरन्तर सुनते रहे। अपने मन को आप देखेंगे एक दिन आपका मन अपनी समस्त उच्छृंखलता, उद्दण्डता, चंचलता छोड़कर आपका दास बन जायगा। मन की साधना के लिए उपयुक्त वातावरण, अनुकूल परिस्थितियों का होना भी आवश्यक है। जिस तरह चीनी के भण्डार में रखकर सामान्य मनुष्य से चीनी खाने की आदत छुड़ाई नहीं जा सकती, उसी तरह मन की चंचलता को बढ़ाने वाले वातावरण में रहकर उनको साधना प्रायः कठिन ही होता है। इसलिए जहाँ तक बने साधना के अनुकूल, शान्त, निर्विघ्न परिस्थितियों में रहकर मन को एकाग्र करने की साधना की जाय, तो अपेक्षाकृत जल्दी सफलता मिलेगी।

अपने दैनिक जीवन-क्रम में भी जहाँ तक बने स्थिरता, धैर्य और शान्ति के साथ काम करना चाहिए। चंचलता भागदौड़, अस्तव्यस्तता, आवेश और उद्वेग को तो जीवन में किसी भी शर्त पर स्थान नहीं होना चाहिये। इससे मन की शक्ति नष्ट होती है। हम जो भी कुछ करें, वह व्यवस्थित शान्त होकर करें।


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