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February 1965

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सत्यं ब्रह्मा देवाः सत्यमेवोपासते।

- वृहदारण्यक 5। 5। 1

सत्य ही ब्रह्म है। देवता सत्य की ही उपासना करते हैं।

न संदृशे तिष्ठति रुपमस्य

न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम्

हदा हृदिस्थं मनसा य एन-

मेवं विदुर मृतास्ते भवन्ति।

-श्रोताश्रतरोपनिषद् 4। 20

उस परमात्मा का रूप आँखों के आगे नहीं ठहरता। उसे कोई आँखों से नहीं देख सकता। साधक उस अन्तर्यामी को भक्तिपूर्वक हृदय में स्थित देखते है और अमर हो जाते हैं।

ताकि अपना जीवन उद्देश्य भी पूरा हो, लोगों को प्रसन्नता-मिले और सामाजिक जीवन में खुशहाली लाने में अपना भी कुछ उपयोग हो । यदि यह न कर सके तो मनुष्य शरीर और पशुओं के शरीर में अन्तर ही क्या रहा। विवेक से मन पराकाष्ठा को पहुँचता है और इसी अवस्था में वैराग्य द्वारा उसका सन्तुलन होता है। इसलिये षट-विकारों के शमन और आध्यात्मिक आस्था प्रबल करने के लिये वैराग्य पूर्ण भावनायें बड़ी उपयोगी सिद्ध होती हैं। वैराग्य से मनुष्य का जीवन उन्नत होता है और अनेकों आध्यात्मिक अनुभूतियाँ प्राप्त होती हैं।


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