ईश्वर है या नहीं?

February 1965

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अनीश्वर-वादियों का कथन है कि विज्ञान द्वारा ईश्वर सिद्ध नहीं होता तो हम उसे क्यों मानें? विचारणीय बात यह है कि क्या हम केवल उन्हीं बातों को मानते हैं, जो प्रत्यक्ष या विज्ञानसम्मत हैं? जीवन के कितने ही आदर्श और तथ्य ऐसे हैं, जिनका सीधा सम्बन्ध अन्तरात्मा से है। नीति-शास्त्र का आधार यही है। धर्म, सदाचार, नीति, कर्तव्य, परमार्थ आदि को विज्ञान की कसौटी पर यदि कसा जाय, तो यह सभी कुछ व्यर्थ प्रतीत होगा और मनुष्य को पशु की तरह आचरण करना ठीक प्रतीत होगा।

विज्ञान के द्वारा ईश्वर को सिद्ध या असिद्ध करने का प्रयत्न हास्यास्पद है। जिसे विज्ञान कहा जाता है- वह वस्तुतः पदार्थ-विज्ञान है। पदार्थों के बारे में खोज करना, पदार्थों से जीवनोपयोगी प्रयोजन सिद्ध करना, इस भौतिक विज्ञान की मर्यादा है। इसके अतिरिक्त वह अधिक सूक्ष्म तत्वों तक पहुँच सकने में असमर्थ है।

नीति, शास्त्र, सदाचार, त्याग, बलिदान, परोपकार, संयम जैसे आवश्यक विषयों में विज्ञान की कोई पहुँच नहीं। यदि इन विषयों को विज्ञान के आधार पर हल किया जाय तो उन उपयोगी मान्यताओं को त्यागना पड़ेगा जो मानवीय सामाजिक जीवन के लिए मेरुदण्ड के समान आवश्यक हैं।

विज्ञान की दृष्टि में नर और मादा का यौन सम्बन्ध स्वाभाविक है। उसमें बहिन, पुत्री या माता का कोई विचार नहीं होता। जब सृष्टि के अन्य सभी जीव-जन्तु अपनी बहिन, पुत्री या माता के साथ यौन-सम्बन्ध करने में कोई संकोच नहीं करते, तो मनुष्य ही क्यों करें? इस प्रतिबन्ध का, इन मर्यादाओं का विज्ञान समर्थन नहीं करता, वरन् उन्हें व्यर्थ बताता है। यदि विज्ञान की कसौटी पर यौन-सदाचार व्यर्थ सिद्ध होता है, तो क्या हम उसकी व्यर्थता स्वीकार कर लेंगे और पशुओं की तरह बहिन, पुत्री, माता की मर्यादा को छोड़ देने के लिए उद्यत होंगे?

विज्ञान के अनुसार जीव, जीव का भोजन है। प्रत्येक प्राणी के लिए अपना स्वार्थ ही प्रधान है। फिर त्याग, बलिदान, उदारता, दान, सेवा और परोपकार का महत्व कहाँ रहेगा? जीवधारियों के गुण-धर्म के बारे में विज्ञान की कसौटी प्राणी की स्वाभाविक प्रवृत्ति ही है। सभी जीवों को अपनी क्षुधाओं और वासनाओं की पूर्ति के लिए जो भी अवसर मिलता है, उससे बिना उचित-अनुचित का विचार किए लाभ उठाते हैं, फिर मनुष्य भी यदि वैसा ही करता है तो उसमें क्या अनुचित है? स्वार्थपरता एवं स्वच्छंद भोगवाद का विरोध विज्ञान के द्वारा नहीं हो सकता, वरन् उसके आधार पर तो समर्थन ही करना पड़ेगा। ऐसी दशा में क्या हम विज्ञान को ही सब कुछ मानकर-परमार्थ की प्रवृत्ति को मानव-जीवन से बहिष्कृत करने को तत्पर होंगे? और यदि होंगे तो क्या उसके फलस्वरूप किसी सत्परिणाम की आशा करेंगे?

विज्ञान बताता है कि मौत से हर प्राणी डरता है, बचता है, लड़ता है और भागता है। यह इसका स्वाभाविक धर्म है। यदि मनुष्य को भी इस स्वाभाविक धर्म से बँधा हुआ मान लिया जाय तो, फिर मृत्यु के लिये हँसते हुए तैयार रहने वाले सैनिकों एवं देश-धर्म पर बलिदान होने वाले महा-मानवों को प्रकृति विरोधी एवं मूर्ख ही मानना पड़ेगा। फाँसी का हुक्म सुनने के बाद जिनके वजन जेल की कोठरियों में आठ-आठ पौण्ड बढ़ गए, उन क्रान्तिकारियों को मौत से डर न लगने का विज्ञान के पास क्या उत्तर है?

इसी प्रकार ईश्वर का आँखों से न दिखाई देना या वैज्ञानिक यन्त्रों से उसका प्रमाणित न होना इतना बड़ा कारण नहीं है कि जिसके आधार पर उस महान सत्ता के अस्तित्व से इनकार किया जा सके। इस संसार में सभी कुछ तो प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होता।

ईश्वर दिखाई नहीं देता, इसलिये उसे न माना जाय, यह कोई युक्ति नहीं है। अनेकों वस्तुएँ ऐसी हैं जो आँख से नहीं दीखती, फिर भी उन्हें अन्य आधारों से अनुभव करते और मानते हैं। कोई वस्तु बहुत दूर होने से दिखाई नहीं पड़ती, पक्षी जब आकाश में बहुत ऊँचा उड़ जाता है, तो दीखता नहीं। कोई वस्तु नेत्रों के बहुत समीप हो, तो भी वह नहीं दीखती। अपने पलक या आँखों में लगा हुआ काजल अपने को कहाँ दीखता है? यदि नेत्र न हों, कोई व्यक्ति अन्धा हो, तो भी उसे वस्तुएँ नहीं दीखेंगी, इसका अर्थ यह नहीं कि वे वस्तुएँ हैं ही नहीं। चित्र उद्विग्न हो, मन कहीं दूसरी जगह पड़ा हो, किसी समस्या के चिन्तन में लगा हो तो आँख के आगे से कोई चीज गुजर जाने पर भी वह दिखाई नहीं देतीं। बहुत सूक्ष्म वस्तुएँ भी कहाँ दिखाई देती है? परमाणु या रोग कीटाणु बिना सूक्ष्मदर्शी यन्त्र के दीखते नहीं। किसी पर्दे की आड़ में रखी हुई, सन्दूक आदि में बन्द की हुई, जमीन में गढ़ी हुई वस्तुओं को भी आँखें कहाँ देख पाती हैं? सूर्य के प्रकाश के कारण दिन में तारे नहीं दीखते। पानी में नमक घुल जाता है, तो फिर नमक दीखता नहीं, फिर भी पानी में उसका अस्तित्व तो रहता ही हैं।

जो वस्तु दिखाई न दे, वह है ही नहीं यह मान्यता किसी प्रकार भी उचित नहीं ठहराई जा सकती। केवल आँखें ही किसी वस्तु के अस्तित्व को प्रमाणित करने का एकमात्र साधन नहीं हैं।

ईश्वर को अस्तित्व से केवल इस कारण इनकार करना कि वह इस आज के अविकसित विज्ञान या बुद्धिवाद की कसौटी पर खरा नहीं उतरता, कोई ठोस कारण नहीं है। प्रत्यक्ष के आधार पर तो यह भी प्रमाणित नहीं किया जा सकता कि हमारा पिता वस्तुतः कौन है। माता की साक्षी को ही इसके लिये पर्याप्त प्रमाण मान लिया जाता है। मानव-जीवन की अनेकों महत्वपूर्ण अवस्थाएँ उस विज्ञान के आधार पर निर्भर हैं, जिसे अध्यात्म विज्ञान कहते हैं। पदार्थ विज्ञान से नहीं, अध्यात्म-विज्ञान से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध होता है।

ईश्वर का अवलम्बन करके ही मानव-जाति की अब तक की प्रगति सम्भव हुई हैं। प्रेम, करुणा, उदारता, दान, संयम, सदाचार, पुण्य, परमार्थ जैसे सद्गुणों का विकास आस्तिकता के आधार पर ही सम्भव हो सका है और इन्हीं गुणों के द्वारा सामाजिकता की प्रवृत्ति बढ़ी है यदि इस महान् आदर्श का परित्याग कर दिया जाय तो व्यक्ति का आन्तरिक स्तर इस प्रकार का ही बनेगा, जिससे द्वेष, घृणा, संघर्ष और आतंक का मार्ग अपनाने के लिए मन चलने लगे। हमारे पड़ोसी देश चीन का उदाहरण सामने है। वहाँ की जनता का कैसा नृशंस उत्पीड़न साम्यवादी सरकार ने किया है, पड़ोसी देशों के साथ कैसी आक्रमणात्मक नीति अपनाई है, आदर्शवाद से नितान्त पतित छल-छिद्र भरी कूट-नीति का सहारा लिया है, प्रचार में कितना सफेद झूठ अपनाया है, यह किसी से छिपा नहीं हैं। आदर्शवादिता का ही दूसरा नाम आस्तिकता है। जो आस्तिकता छोड़ चुका, उसके लिए छल, अपराध, आक्रमण, उत्पीड़न आदि नाम की भी कोई वस्तु नहीं रह जाती। पार्टी की नीति ही उसके लिए सब कुछ है, भले ही वह कितनी ही गलत क्यों न हो। नैतिक प्रवृत्तियों से रहित विचारधारा कितनी भयावह होती है, इसका अनुभव पग-पग पर होता रहता है। नैतिकता का बाँध आस्तिकता की चट्टानों से ही बनता है। यदि यह बाँध तोड़ दिया गया तो फिर व्यक्ति या सरकार अपनी-अपनी सनकें पूरी करने के लिए कुछ भी कर गुजरेंगे और शान्तिप्रिय लोगों के लिए जीवन धारण कर सकना भी एक समस्या बन जायगा।

आस्तिकता मानव जीवन की आधारशिला है। उसका परित्याग करना एक प्रकार से नैतिकता की व्यवस्था को ही चौपट कर डालने जैसी विपत्ति खड़ी करना होगा। मानव-जाति के भविष्य को खतरे में डालने वाली इस विभीषिका से हम जल्दी सावधान हो जावें उतना ही उत्तम हैं।


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