इच्छाएँ और उनका सदुपयोग

February 1965

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मनुष्य इच्छाओं का पुतला है। उसके व्यावहारिक जीवन में प्रतिक्षण अनेकों आकाँक्षायें उठा करती है। स्वास्थ्य की, धन की, स्त्री और यश की अनेकों कामनायें प्रत्येक मनुष्य में होती हैं। इसके विविध काल्पनिक चित्र मस्तिष्क में बनते बिगड़ते रहते हैं। जैसे ही कोई इच्छा स्थिर हुई कि मानसिक शक्तियाँ उसी की पूर्ति में जुट पड़ीं, शारीरिक चेष्टायें उसी दिशा में कार्य करने लगती हैं। संसार की विभिन्न गतिविधियाँ व क्रिया कलाप चाहे वह भौतिक हों अथवा आध्यात्मिक, इच्छाओं की पृष्ठभूमि पर निरूपित होते हैं। रचनात्मक कदम तो पीछे का है, पहले तो सारी योजनाओं को निर्धारित कराने का श्रेय इन्हीं इच्छाओं को ही है।

स्थिर तालाब के जल में जब किसी मिट्टी के ढेले या कंकड़ को फेंकते हैं तो उसमें लहरें उठने लगती हैं। पत्थर के भार व फेंकने की गति के अनुरूप ही लहरों का उठना, तेजी व सुस्त गति से होता है। ठीक इसी प्रकार हमारी इच्छायें क्या हैं, यह हमारी शारीरिक चेष्टायें, चेहरे के हाव-भाव बताते रहते है। व्यभिचारी व्यक्ति की आँखों से हर क्षण निर्लज्जता के भाव परिलक्षित होंगे। चेहरे का डरावनापन अपने आप व्यक्त कर देता है कि यह व्यक्ति चोर, डाकू, बदमाश है। कसाई की दुर्गन्ध से ही गाय यह पहचान लेती है कि वह वध करना चाहता है।

इसी प्रकार सदाचारी, दयाशील व्यक्तियों के चेहरे से सौम्यता का ऐसा माधुर्य टपकता है कि देखने वाले अनायास ही उनकी ओर खिंच जाते हैं। विचारयुक्त व गम्भीर मुखाकृति बता देती है कि यह व्यक्ति विद्वान, चिन्तनशील व दार्शनिक है। प्रेम व आत्मीयता की भावना से आप चाहे किसी जीव-जन्तु को देखें, वह भयभीत न होकर आपके उदार भाव की अन्तरमन से प्रशंसा करने लगेगा।

अनन्त आनन्द के केन्द्र परमात्मा के हृदय में एक भावना उठी- “एकोऽहंबहुस्यामि” और इसी का मूर्तिमान रूप यह मंगलमय संसार बन कर तैयार हो गया। यह उनकी सद्-इच्छा का ही फल है कि संसार में मंगलदायक और सुखकर परिस्थितियाँ अधिक हैं। यदि ऐसा न होता तो यहाँ कोई एक क्षण के लिये भी जीना न चाहता। पर अनेकों दुःख तकलीफों के होने पर भी हम मरना नहीं चाहते, इसलिये कि यहाँ आनन्द अधिक हैं।

इच्छा एक भाव है, जो किसी अभाव, सुख या आत्मतुष्टि के लिये उदित होता है। इस प्रकार की इच्छाओं का सम्बन्ध भौतिक जगत से होता है। इनकी आवश्यकता या उपयोगिता न हो, सो बात नहीं। दैनिक जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये धन चाहिये ही। सृष्टि संचालन का क्रम बना रहे इसके लिये दाम्पत्य जीवन की उपयोगिता से कौन इनकार करेगा? पर केवल भौतिक सुखों के दाँव-फेर में हम लगे रहें तो हमारा आध्यात्मिक विकास न हो पायेगा।

तब सौमनस्यता व सौहार्दपूर्ण सदिच्छाओं की आवश्यकता दिखाई देती है। प्रेम, आत्मीयता और मैत्री की प्यास किसे नहीं होती। हर कोई दूसरों से स्नेह और सौजन्य की अपेक्षा रखता है। पर इनका प्रसार तो तभी सम्भव है, जब हम भी शुभ इच्छायें जागृत करें। दूसरों से प्रेम करें, उन्हें विश्वास दें और उनके भी सम्मान का ध्यान रखें। इन इच्छाओं के प्रगाढ़ होने से सामाजिक, नैतिक व्यवस्था सुदृढ़, सुखद होती है, पर इनके अभाव में चारों ओर शुष्कता का ही साम्राज्य छाया दिखाई देगा।

मानव जीवन गतिवान् बना रहे, इसके लिये स्व-प्रधान इच्छायें उपयोगी ही नहीं आवश्यक भी है। पर इनके पीछे फलासक्ति की प्रबलता रही तो उसकी तृप्ति न होने पर अत्यधिक दुःखी हो जाना स्वाभाविक है। इच्छाओं के अनुरूप परिस्थितियाँ भी मिल जायेंगी, ऐसी कोई व्यवस्था यहाँ नहीं। कोई लखपति बनना चाहे, पर व्यवसाय में लगाने के लिये कुछ भी पूँजी पास न हो तो इच्छा पूर्ति कैसे होगी। ऐसी स्थिति में दुःखी होना ही निश्चित है। जो भी इच्छायें करें वह पूरी ही होती रहें, यह सम्भव नहीं। इनके साथ ही आवश्यक श्रम, योग्यता एवं परिस्थितियों का भी प्रचुर मात्रा में होना आवश्यक है। किसी की शैक्षणिक योग्यता मैट्रिक हो और वह कलक्टर बनना चाहे, तो यह कैसे सम्भव होगा? इच्छाओं के साथ वैसी ही क्षमता भी नितान्त आवश्यक है। विचारवान् व्यक्ति सदैव ऐसी इच्छायें करते हैं, जिनकी पूर्ति के योग्य साधन व परिस्थितियाँ उनके पास होती हैं।

इसका तात्पर्य यह नहीं कि हम जिन परिस्थितियों में आज हैं, उन्हीं में पड़े रहें। जितनी हमारी क्षमता है, उसी से सन्तोष कर लें, तब तो विकास की गाड़ी एक पग भी आगे न बढ़ेगी। आज जो प्राप्त है उसमें सन्तोष अनुभव करें और कल अपनी क्षमता बड़े इसके लिये प्रयत्नशील हों, तो इसे शुभ परिणिति कहा जायेगा। नैपोलियन बोनापार्ट प्रारम्भ में मामूली सिपाही था। चीन के प्रथम राष्ट्रपति सनयात सेन अपने बाल्यकाल में किसी अस्पताल के मामूली चपरासी थे। इन्होंने अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिये क्रमिक विकास का रास्ता चुना और अपना लक्ष्य पाने में सफल भी हुये।

इस व्यवस्था में लम्बी अवधि की प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है, पर व्यक्तित्व के निखार का यही रास्ता है। अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिये पहले आप उस काम के करने की दृढ़ इच्छा मन में करलें, पीछे सारी मानसिक शक्तियों को उसमें लगा दें, तो सफलता की सम्भावना बढ़ जाती है। दृढ़ इच्छा शक्ति से किये गये कार्यों को विघ्न बाधायें भी देर तक रोक नहीं पातीं। संसार में जिन लोगों ने भी बड़ी इच्छाओं की पूर्ति की, उन्होंने पहले उसकी पृष्ठभूमि को अधिक सुदृढ़ बनाया, पीछे उन कार्यों में जुट पड़े। तीव्र विरोध के बावजूद भी सिकन्दर झेलम पार कर भारत विजय दृढ़ मनस्विता के बल पर ही कर सका। शाहजहाँ की उत्कृष्ट अभिलाषा का परिणाम ताजमहल आज भी इस धरती पर विद्यमान् है।

जीवन लक्ष्य की प्राप्ति भी ऐसे ही महान् कार्यों की श्रेणी में आती है। दूसरों से सिद्धियों सामर्थ्यों की बात सुनकर, आवेश में आकर आत्म-साक्षात्कार की इच्छा कर लेना हर किसी के लिये आसान है। पर पीछे देर तक उस पर चलते रहना, तीव्र विरोध और अपने स्वयं के मानसिक झंझावातों को सहते हुये इच्छा पूर्ति की लम्बे समय तक प्रतीक्षा की लगन हम में बनी रहे तो परमात्मा की प्राप्ति के भागीदार बन सकना भी असम्भव न होगा।

इसके विपरीत यदि हमारी इच्छा शक्ति ही निर्बल, क्षुद्र और कमजोर बनी रही तो हमें अभीष्ट लाभ कैसे मिल सकेगा? अधूरे मन से ही कार्य करते रहे तो लाभ के स्थान पर हानि हो जाना सम्भव है। इच्छायें जब तक बुद्धि द्वारा परिमार्जित होकर संकल्प का रूप नहीं ले लेतीं, तब तक उनकी पूर्ति संदिग्ध ही बनी रहेगी। इच्छा-शक्ति यदि प्रखर न हुई तो वह लगन और तत्परता कहाँ बन पायेगी जो उसकी सिद्धि के लिये आवश्यक है।

मनुष्य इच्छायें करें, यह उचित ही नहीं आवश्यक भी है। इसके बिना प्राणि जगत निःचेष्ट एवं जड़वत् लगने लगेगा, किन्तु इसका एक विषाक्त पहलू भी है, वह है इनकी अति और अनौचित्य। मनुष्य जीवन को क्लेशदायक परिणामों की ओर ले जाने में अति और अनुचित इच्छाओं का ही प्रमुख हाथ है। स्वामी रामतीर्थ कहा करते थे-मनुष्य के भय और चिन्ताओं का कारण उसकी अपनी इच्छायें ही हैं। इच्छाओं की प्यास कभी पूर्ण रूप से सन्तुष्ट नहीं हो पाती। बात भी ऐसी ही है। आज जो 100 रुपये पाता है वह कल 1000 रुपये की सोचता है और यदि यह इच्छा पूरी तो गई तो दूसरे ही क्षण 1 लाख की कामना करने लग जाता है। इच्छा वह आग है जो तृप्ति की आहुति से और प्रखर हो उठती है। एक पर एक अंधाधुंध इच्छायें यदि उठती रहें तो मानव जीवन नारकीय यन्त्रणाओं से भर जाता है।

अच्छी या बुरी, जैसी भी इच्छा लेकर हम जीवन क्षेत्र में उतरते हैं, वैसी ही परिस्थितियाँ, सहयोग भी जुटते चले जाते हैं। हमारी इच्छा होती है एम॰ ए॰ पास करें तो स्कूल की शरण लेनी पड़ती है, अध्यापकों का सहचर्य प्राप्त करते हैं, पुस्तकें जुटाते हैं। तात्पर्य यह है कि इच्छाओं के अनुरूप ही साधन जुटाने की आदत मानवीय है। पर यदि यही इच्छायें अहितकर हों तो दुराचारिणी परिस्थितियाँ और बुरे लोगों का संग भी स्वाभाविक ही समझिये। ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपनी कामना भले ही पूर्ण कर ले, पर पीछे उसे निन्दा, परिताप एवं बुरे परिणाम ही भोगने पड़ेंगे। व्यभिचारी व्यक्ति अपयश और स्वास्थ्य की खराबी से बचा रहे, यह असम्भव है। चोर को अपने कुकृत्य का दण्ड न भोगना पड़े, यह हो नहीं सकता। तब आवश्यकता इस बात की होती है कि हम अच्छी कामनायें ही करें।

विशुद्ध आत्मा से की गई सदिच्छायें बड़ी बलवती होती हैं। ऐसा व्यक्ति स्वयं तो स्वर्गीय सुख अहर्निश आस्वादन करता ही है, साथ ही अनेकों औरों को भी सन्मार्ग की प्रेरणा देकर उन्हें भी सदाचार में प्रवृत्त कर देता है। दूसरों की भलाई करने वालों को सदैव, सर्वत्र सम्मान सुख मिलेगा ही। औरों के दुःख में हाथ बटाने वाले ही सच्चे मित्र प्राप्त करते हैं। परमार्थ की जिनकी वृत्ति होती है, उन्हें औरों की आत्मीयता से वंचित रहते कभी किसी ने न देखा होगा।

दक्षिण के महान् सन्त तिरुवल्लुवर ने लिखा है- “योगी वही है जो साँसारिक इच्छाओं को वशवर्ती करे, औरों की हित-कामना में रत हो।” यह सच ही है कि मनुष्य इस धरती पर एक महान् उद्देश्य लेकर अवतरित हुआ है। यह सुयोग उसे बार-बार नहीं मिलता। आज जो शारीरिक, मानसिक और भावनाओं की क्षमता हमें मिली है, कौन जाने अगले जन्मों में भी मिलेगी अथवा नहीं। फिर हमें सच्चे हृदय से आत्म-कल्याण की ही कामना करनी चाहिये। अपना जीवन लक्ष्य भी पूरा हो सकेगा तथा औरों के प्रति कर्तव्य पालन भी हो सकेगा।

हम स्वास्थ्य, सद्गृहस्थ, धन और यश की कामना करें, पर परमार्थ को भी भुलायें नहीं। आत्म-तुष्टि का जहाँ ध्यान रहे, वहाँ यह भी न भूलें कि इस संसार में हजारों लाखों ऐसे भी हैं, जो हमारी परिस्थितियों से कोसो पीछे पड़े अभाग्य का रोना रो रहे हैं। इनके भी हित एवं कल्याण की इच्छा करना हमारा परम धर्म है। इसके अभाव में तो वह परिस्थितियाँ भी देर तक न टिक सकेंगी, जो आज हमें मिली है। कोई धनी व्यक्ति यदि सारा धन समेट कर बैठ जाय, आस-पास के लोग भूखे मरते रहें, तो वह व्यक्ति सुरक्षा स्थिर रखे रहेगा ऐसी आशा बहुत कम करनी चाहिये।

मनुष्य सामाजिक प्राणी है। अपने परिवार, पड़ोस, गाँव राष्ट्र की अनेक जिम्मेदारियाँ उस पर होती हैं। हम अपनी सुख सुविधाओं की बात सोचें, पर औरों के प्रति सच्चे हृदय से कर्तव्य पालन करने की इच्छा करे तभी हमारा भला होगा। जीवन लक्ष्य की प्राप्ति भी तभी सम्भव है, जब हम में सदिच्छायें जागृत हों, औरों के प्रति शुभ कामनाओं का विकास हो।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118