साधनों की पवित्रता भी आवश्यक है।

February 1965

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स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व जब लोग स्वर्गीय लोकमान्य तिलक से पूछा करते थे, “स्वराज्य को परिभाषा क्या है? आपके लक्ष्य का स्वरूप क्या है।” तब वे कहते थे “स्वदेशी ही स्वराज्य है, राष्ट्रीय शिक्षण ही स्वराज्य है विदेशी बहिष्कार ही स्वराज्य है”। स्वराज्य की कैसी परिभाषा थी उनकी! इसके लिए जो साधन मिलता था, उसी के बारे में कह देते थे कि यही स्वराज्य है, यही हमारा साध्य है।

ठीक इसी तरह जब गाँधी जी से लोग पूछते थे तो उस समय जो साधन उन्हें ठीक लगता था, उसी को बताते हुए कहते थे “खादी ही स्वराज्य है, हिन्दू-मुस्लिम एकता ही स्वराज्य है स्त्री शिक्षा ही स्वराज्य है, अस्पृश्यता निवारण ही स्वराज्य है।” इसी तरह की विभिन्न परिभाषायें वे करते चले जाते थे।

उक्त परिभाषाओं से स्पष्ट मालूम पड़ता है कि साधन ही साध्य है। साधन और साध्य की एकरूपता में ही सिद्धि निहित है। जैसे साधन होंगे वैसा ही साध्य परिणाम में मिलेगा। मंजिल पर पहुँचना इस इस बात पर निर्भर करता है कि यात्री पथ को कैसे पूरा करते हैं। राह चलना ही मंजिल को प्राप्त करना है। भली प्रकार अध्ययन करना ही परीक्षा में सफलता का जनक है और दोनों मिलकर सिद्धि बनते हैं।

बापू ने कहा है-”मैं जानता हूँ कि अगर हम साधनों की चिन्ता रख सकें तो साध्य की प्राप्ति लाजमी है। मैं यह भी अनुभव करता हूँ कि साध्य की ओर हमारी प्रगति ठीक उतनी ही होगी, जितने हमारे साधन शुद्ध होंगे।”

स्वामी विवेकानन्द ने और भी स्पष्ट करते हुए कहा है-”हम जितना साध्य पर ध्यान देते हैं, उससे अधिक साधन पर दें। यदि साधन ठीक होंगे तो सही परिणाम मिलेगा ही। कारण से ही कार्य की उत्पत्ति होती है। कार्य अपने आप नहीं आ सकता। कारण जब तक उपयुक्त , ठीक और बलशाली न होगा तब तक ठीक परिणाम नहीं मिल सकता। एक बार हम अपना लक्ष्य बना लेते है और ठीक-ठीक साधनों का निश्चय हो जाय, तो फल तो मिलेगा ही यदि साधन में पूर्णता है। यदि हम कारण की परवाह करते हैं तो फल अपने आप स्वयं की परवाह कर लेगा। साधन ही कारण है, इसलिए उन पर ध्यान देना ही साध्य का रहस्य है।”

गीताकार ने भी साधना, क्रिया पर जोर देते हुए कहा है-”स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानवः।” जो व्यक्ति सच्चाई के साथ अपना कार्य करता है, उसे ही सिद्धि मिलती है । कर्म साधना ही साध्य की अर्चना है।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि साध्य कितना ही पवित्र उत्कृष्ट महान् क्यों न हो यदि उस तक पहुँचने का साधन गलत है, दोषयुक्त क्यों है तो साध्य की उपलब्धि भी असम्भव है। जिस तरह मिट्टी का तेल जला कर वातावरण को सुगन्धित नहीं बनाया जा सकता, उसी तरह दोष-युक्त साधनों के सहारे उच्चस्थ लक्ष्य को प्राप्त करना असम्भव है। वातावरण की शुद्धि के लिए सुगन्धित द्रव्य जलाने होंगे। उत्तम साध्य के लिए उत्तम साधनों का होना आवश्यक है, अनिवार्य है। ठीक इसी तरह उत्कृष्ट साध्य-लक्ष्य का बोध न हो तो उत्तम साधन भी हानिकारक सिद्ध हो जाते हैं।

आज हमारी सबसे बड़ी भूल यह है कि हम साध्य तो उत्तम चुन लेते हैं, महान् लक्ष्य भी निर्धारित कर लेते है, लेकिन उसके अनुकूल साधनों पर ध्यान नहीं देते। इसीलिए हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में गतिरोध पैदा हो जाता है। और साध्य से हम दूर भटक जाते हैं हम जो कुछ भी लक्ष्य निर्धारित करते हैं, तो फिर हमारा ध्यान उस लक्ष्य पर ही रहता है। उसे कैसे जैसे भी प्राप्त कर लिया जाय, यही हमारी साधना होती है। और कई बार भ्रम में भटक कर हम गलत साधनों का उपयोग कर बैठते है। फलतः साध्य के प्राप्त होने का जो सन्तोष और प्रसन्नता मिलनी चाहिए, उससे हम वंचित रह जाते हैं।

चाहे सामाजिक क्रान्ति हो या व्यक्तिगत साधना, लक्ष्य की प्राप्ति तभी सम्भव होगी जब साध्य और साधन को जोड़कर मनुष्य साधननिष्ठ बनेगा।

परीक्षा में सफलता के लिए मनोयोगपूर्वक अध्ययन की आवश्यकता है। लेकिन बहुत से विद्यार्थियों की मनोदशा ऐसी बन गई है कि कैसे जैसे भी तिकड़म भिड़ाकर चोरी से, नकल करके परीक्षा में सफलता पास कर ली जाय। बहुत से विद्यार्थी अध्ययन में परिश्रम न करके इस तरह के हथकण्डों की खोज में रहते हैं, जिससे श्रम भी न करना पड़े और सफलता भी मिल जाय।

लोग धनवान बनना चाहते हैं, ठीक भी है। धनी बनना कोई बुरी बात नहीं हैं और इसके लिए पर्याप्त पुरुषार्थ बुद्धि, विवेक के साथ लगाया जाय, तो कोई कारण नहीं कि मनुष्य धनवान् न बने। लेकिन पुरुषार्थ न करके बिना श्रम किए ही लोग लक्ष्मी अर्जित करना चाहते हैं। जुआ, सट्टा, चोरबाजारी, मिलावट, अधिक मुनाफाखोरी, न जाने कितने ही अपराधी साधनों का अवलम्बन ये लोग लेते हैं और समाज को, साथ ही स्वयं को भी हानि पहुँचाते हैं, क्योंकि समाज के नुकसान में ही आज व्यक्ति की हानि निहित है। कमजोर छिन्न-भिन्न समाज व्यक्ति की भी रक्षा नहीं कर सकता । जिस तरह चोरी डकैती व्यभिचार से अर्जित धन को बुरा समझा जाता है, इसी तरह उक्त अनैतिक साधनों से धनोपार्जन गलत है। बहुत कुछ अंशों में ऐसे मनुष्य को असफलता और असन्तोष ही मिलता है। ऐसे व्यक्तियों को धन के द्वारा जो सुख आदि मिलना चाहिए, वह नहीं मिलता। परिणाम में वही उनके लिए क्लेश का कारण बन जाता है।

उच्च पद प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए मनुष्य के सामने विस्तृत संसार पड़ा हुआ है। पुरुषार्थ और प्रयत्न के साथ मनुष्य कुछ भी प्राप्त कर सकता है, लेकिन वह इस राज-मार्ग को न अपना कर दूसरों को नुकसान पहुँचाता है, बढ़ते हुओं की टाँग खींचता है, व्यर्थ ही संघर्ष पैदा करता है अथवा किसी की खुशामद मिन्नतें करता है। ये दोनों ही साधन गलत हैं। इस के लिए व्यक्तिगत प्रयत्न आवश्यक है। अपने पुरुषार्थ के बल पर मनुष्य क्या नहीं प्राप्त कर सकता? लोग चलते है जन-सेवा का लक्ष्य लेकर, लेकिन वे जनता से अपनी सेवा कराने लग जाते हैं। बहुत से ज्ञानी, उपदेशक धर्म पर चलने के लिए बड़े-लम्बे चौड़े उपदेश देते हैं, लेकिन उनके स्वयं के जीवन में हजारों विकृतियाँ भारी पड़ी रहती है। कई साधु-संन्यासी, सन्त महात्मा लोगों को त्याग, वैराग्य, मोक्ष, आत्म-कल्याण की बात कहते हैं, लेकिन वे जन-साधारण से भी अधिक माया, मोह में लिप्त पाये जाते हैं। देश सेवा के लिए राष्ट्र को उन्नति और, विकास की ओर अग्रसर करने के लिए लोग राजनीति में आते हैं, लेकिन अफसोस होता है जब वे पार्टी बाजी, सत्ता हथियाने के लिए, गुटबन्दी के लिए परस्पर लड़ते झगड़ते हैं, कूटनीति का गन्दा खेल खेलते है अपने घर भरते हैं, जनता की आँखों में धूल झोंकते हैं।

साधनों में इस तरह की भ्रष्टता व्यक्ति और समाज दोनों के लिए अहितकर सिद्ध होती है। इससे किसी का भी भला नहीं होता। सिद्धि बहुत दूर हट जाती है।

जिस तरह साधनों की पवित्रता आवश्यक है, उसी तरह साध्य की उत्कृष्टता भी आवश्यक है। साध्य निकृष्ट हो और उसमें अच्छे साधनों को भी लगा दिया जाय, तो कोई हितकर परिणाम प्राप्त नहीं होगा। उल्टे उससे व्यक्ति और समाज को हानि ही होगी। उत्कृष्ट साधन भी निकृष्ट लक्ष्य की पूर्ति के आधार बन कर समाज में बुराइयाँ पैदा करने लगते हैं। बुराइयाँ तो अपने आप भी फैल जाती हैं, लेकिन किन्हीं समर्थ साधनों का प्रयोग किया जाय, तो वे व्यापक स्तर पर फैलने लगती हैं। अतः जिनके पास साधन हैं, माध्यम हैं उन्हें आवश्यकता है उत्कृष्ट लक्ष्य के निर्धारण की।

सिद्धि का यही रहस्य है कि उत्कृष्ट लक्ष्य का चुनाव, फिर उसके अनुकूल ही उत्कृष्ट साधनों का उपयोग। साध्य और साधन की एकरूपता पर ही सिद्धि का भवन खड़ा होता है।


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