व्यवहार कुशलता तथा वाक्-चातुर्य

January 1952

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शिष्टाचार का महत्व-

हमारा दूसरों के प्रति व्यवहार, हमारी मान-प्रतिष्ठा एवं योग्यता का परिचायक है। हम समाज में अनेक प्रकार के व्यक्तियों के संपर्क में आते हैं। मूल रूप से इन व्यक्तियों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। (1) अपने से ऊँचे, (2) बराबर वाले, (3) अपने से वय, योग्यता, पद में छोटे। इन तीनों वर्गों के अंतर्गत हमारा शिष्टाचार, हमारी शिक्षा, सभ्यता एवं संस्कृति का द्योतक है। जब हम इनके संपर्क में आते हैं, तब हमें अनेक तत्वों को स्मरण रखना पड़ता है।

हमारी व्यवहार शिक्षा का प्रत्यक्ष प्रभाव हमारे चरित्र के सम्बन्ध में दूसरों पर पड़ता है। हमारा एक एक कार्य, रहन-सहन, वस्त्र, बोल-चाल का ढंग, उठने-बैठने तथा चलने की रीति निरन्तर हमारे चरित्र को प्रकट किया करता है। यदि हम तनिक भी असावधानी कर बैठते हैं, तो संसार में हमारे व्यवहार को लेकर टीका टिप्पणी होने लगती है। अच्छी से अच्छी योग्यता वाले व्यक्ति को अशिष्ट और असभ्य कह कर निकाल दिया जाता है। लोग उनसे बातें नहीं करना चाहते, कन्नी काटकर निकल जाते हैं। वे संसार में असफल होते हैं।

डॉक्टर जॉनसन अपने युग के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार हो गये हैं। अँग्रेजी का एक युग उनकी विचारधारा से प्रभावित और आतंकित रहा। यही विद्वान् व्यावहारिक कुशलता से अनभिज्ञ था। पार्टी में जाता, तो उसे भोजन करना, ठीक तरह बैठना, बातचीत करना या हाथ मिलाना तक न आता था। वह सब्जियों के छींटे आस पास बैठी हुई स्त्रियों के वस्त्रों पर छिड़क देता, डकार इस अशिष्टता से लेता की लोग हँसने लगते, चाय के तीस चालीस प्याले पी डालता। इसी प्रकार एक नहीं अनेक विद्वानों की मूर्खता के दिये जा सकते हैं।

एक बार इंग्लैण्ड में एक सहभोज हो रहा था। बहुत से व्यक्ति उपस्थित थे। उनमें से एक हिन्दुस्तानी भी वहाँ मौजूद था। चाहे और अनेक दुर्गुण उनमें हों अंग्रेज जाति सभ्यता और शिष्टता में बहुत ऊँची है। हमारे हिन्दुस्तानी भाई ने चाय को प्लेट में डालकर पीना प्रारम्भ किया। उसकी सम्मान रक्षा के लिये अन्य उपस्थितजनों को भी वैसा ही करना पड़ा।

आपकी शिक्षा का प्रथम चिन्ह आपका दैनिक व्यवहार ही है। अशिष्ट व्यक्ति चाहे कुछ काल के लिये कृत्रिम व्यवहार द्वारा अपनी असभ्यता को छिपाते, किन्तु उसकी अशिष्ट आदतों हँसने, बोलने चालने, खाने पीने में किसी न किसी रूप में प्रकट हो जाती हैं। हम अपनी आदतों को अकस्मात् ही नहीं परिवर्तित कर सकते क्योंकि उनकी जड़ें हमारे अंतर्मन में प्रविष्ट हो जाती हैं। हमारे माता-पिता या घरेलू परिस्थितियों का व्यापक प्रभाव हमारे अंतर्मन पर पड़ा करता है। एक अशिष्ट या असभ्य आदत जो माँ-बाप ने बच्चे को असावधानी से पालन पोषण करने में डाल दी है, इतनी जटिलता से जम जाति है कि विकसित अवस्था में उसका उन्मूलन कठिन हो जाता है। जो गन्दी गालियाँ या सेक्स सम्बन्धी घृणित आदतें, बचपन में कुसंगति द्वारा पड़ जाती हैं, वे बड़ेपन तक चलती रहती हैं।


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