अशिष्टता-सार्वजनिक जीवन का अभिशाप

January 1952

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भारत में आजकल अशिष्टता का जो व्यापक प्रचार है, उसे देख कर देश के गणमान्य नेता विक्षुब्ध हो उठे हैं। नेहरू जी ने सार्वजनिक जीवन में शिष्टता की आवश्यकता पर जोर देते हुए निर्देश किया है कि अशिष्टता जीवन का अभिशाप है और सर्वथा त्याज्य है।

अशिष्टता हमारे सार्वजनिक जीवन का अभिशाप है। अशिष्ट व्यक्ति पशु तुल्य है, जिसे दूसरे की मान प्रतिष्ठा आत्म सम्मान का कोई ध्यान नहीं है; जो अपने स्वार्थों में तो निरत है, किन्तु दूसरों के ‘अहं’ की ओर से निश्चित है। अशिष्ट व्यक्ति इस योग्य नहीं होता कि उसे सभ्य समाज में स्थान दिया जा सके।

जिस व्यक्ति को दूसरों से बातें करने का शिष्टाचार नहीं आता, उससे कौन बोलना पसन्द करेगा? जिसे दूसरों के व्यंग्य और मजाक उड़ाने, त्रुटियाँ निकालने, उपहास करने में ही आनन्द आता है, वह महा अज्ञानी है। वह मद के गहन अन्धकार में डूब कर दूसरों के अन्धकार मय पक्ष को ही देखता है तथा निज अन्तःकरण में आवृत हीनत्व की भावना का प्रदर्शन करता है।

अशिष्टता मानव जीवन का कलंक है। अशिष्ट पुरुष जहाँ जाता है, अनादर का पात्र होता है। योग्यता रखने पर भी अपनी बदतमीज़ी की वजह से वह नौकरी खो बैठता है, मातहतों के ऊपर निज प्रभाव नहीं डाल पाता, समाज में सभ्य व्यक्ति उसका तिरस्कार करते हैं।

छोटी-छोटी बातों से अशिष्टता प्रारंभ होती है। बचपन में प्रायः अविवेकी माता-पिता बालकों पर उचित नियन्त्रण नहीं करते। कुसंगति में पड़कर वे कुत्सित गालियों का प्रयोग सीखते हैं, गुप्त अंगों से सम्बन्धी कुवाक्य बात बात पर उच्चारण करते हैं, एक दूसरे से बातें करते समय कीचड़ उछालते, लज्जा का अनुभव नहीं करते। निम्न समाज में गाली-गलौज और मारपीट चलती रहती है। उसका प्रभाव कोमल हृदय बालकों पर निरन्तर पड़ता है। भाँति भाँति की कुप्रथाओं, अशिक्षा, कुसंग, सिनेमा, निम्न स्तर का साहित्य पढ़ने, अशिष्ट बातों के न रोकने से चरित्र में बदतमीज़ी का प्रारम्भ होता है।

माता-पिता को उचित है कि बच्चों के प्यार के नामों का प्रयोग कम करें; शिष्टता पूर्ण नाम का ही प्रयोग करें। मित्रों को भी शिष्टता पूर्ण नाम का उच्चारण करना चाहिए। “यह हमारा मित्र है, इससे हम जैसे चाहें संबोधन इस्तेमाल कर सकते हैं।”-यह अशिष्ट धारणाएं हैं। जिसका जो नाम हो, उसी का प्रयोग करना चाहिए। नाम के अन्त में “जी”का प्रयोग उत्तम है।

पत्र व्यवहार में अनेक व्यक्ति प्रारम्भ तथा अन्त में शिष्टतासूचक सम्बोधनों का प्रयोग नहीं करते हैं। पत्रों के प्रारम्भ में “पूज्य,” का प्रयोग अपने से बड़े व्यक्ति के लिए भी प्रायः नहीं किया जाता है। नौकरी पेशा अर्जियों के नीचे “आपका आज्ञाकारी” लिखना शान के खिलाफ समझते हैं। वे लिखते हैं-“आपका हितैषी“ या “भवदीय” । ये भी प्रायः अंग्रेजी में लिखा जाता है। अफसर ऐसे प्रार्थना पत्रों को रद्दी में फेंक देता हैं। किसी को आदर सूचक बातें कहना या बोलना आत्म-अभिमान को कम करना नहीं है।

आवेश में आकर प्रायः बदतमीज़ी की जाती है। आपके अफसर ने क्रोध में आकर डाट दिया। आप भी उद्विग्न हो उठे और दो-चार जलीकटी कह गये। फलतः नौकरी से हाथ धोना पड़ा।

सभा, समितियों, क्लबों, बैठक, रेल में टिकट खरीदते समय या रेल में प्रवेश करते समय अशिष्टता अपने गन्दे रूप में नजर आती है। सभी स्थान पाने के लिये बुरी तरह दौड़ते, गालियाँ देते हुए नजर आते हैं। देर से आने पर स्थान न होते हुए पर भी आने वाला सबको लाँघ कर आगे जाना चाहता है। इस बात की चेष्टा नहीं करते कि समय से पूर्व ही पहुँच जायं। बैठे रहने वाले व्यक्ति स्थान होते हुए भी फैल-फैल कर बैठते हैं और दूसरे को जगह देना पसन्द नहीं करते, चाहे वह बेचारा खड़ा ही क्यों न हो?

स्वयंसेवकों तथा स्वयंसेविकाओं की अशिष्टता देख कर दंग रह जाना पड़ता है। उनमें सहानुभूति, मृदुलता, दूसरे की सहायता करने की भावना, नहीं होती प्रत्युत निज महत्ता का मिथ्या प्रदर्शन होता है। वे शान के साथ इधर से उधर घूमते हैं, सैनिकों के अनुरूप रौब प्रदर्शित करते हैं। निज इष्ट मित्रों के निमित्त समरत सुविधाएँ तथा सर्व साधारण के निमित्त डाट फटकार और जबरदस्ती का पालन करते हैं। यहाँ तक कि लड़ाई झगड़ों, हाथापाई और कुशब्दों के व्यवहार तक की नौबत आ जाती है।

अधिकाँश अफसर अपने मातहतों के प्रति अशिष्ट व्यवहार में ही शान समझते हैं। जैसा देखा समय-असमय डाट दिया, कुशब्दों का उच्चारण कर दिया, ऊँचा-नीचा कहने में कुछ हर्ज नहीं समझते। यह उनकी शिक्षा, सभ्यता तथा उच्च संस्कृति का एक उपहास है।

कालेज स्कूलों में छात्रों में अशिष्टता अभिवृद्धि पर है। गुरुजनों के “प्रणाम” या “नमस्ते” तो दूर की बात है, साधारण शिष्टाचार भी नहीं किया जाता, बोलने में अक्खड़पन दिखाया जाता है। अध्यापक की अनुपस्थिति में कुर्सी पर बैठने में कोई अशिष्टता नहीं मानी जाती। इसके अतिरिक्त कमीज के बटन खुले रखना, नेकर इतना ऊँचा पहनना कि जाँघ दिखाई दे, खुले आम सिगरेट पीना, गन्दे अश्लील शब्दों का प्रयोग; स्कूल की दीवारों, या डेस्कों पर अश्लील चित्र बनाना, लिख देना, कुशब्द बोल देना, सिनेमाओं की वेश्याओं के चित्र पास रखना, शोर मचाना, अध्ययन तथा अनुशासन के नाम पर उत्तेजित हो जाना, सभा में बैठ कर सीटी बजाना, शोर करना, तालियाँ पीटना, बच्चों की तरह चिल्लाना आदि नाना प्रकार की अशिष्टताएं चल रही हैं।

विद्यार्थी वर्ग अनीति और अशिष्टता के मार्ग पर चल रहा है। उन्हें यह विदित नहीं है कि ये ही आदतें आगे बढ़ कर पक जायेंगी और फिर उन्हें निकालना दुष्कर हो जायगा। विद्यार्थी वर्ग की अनुशासनहीनता देश के लिए कलंक है।

अभिवादन करना विद्यार्थी वर्ग में लुप्त होता जा रहा है। पश्चिमी देशों में चाहे कोई कितना ही कुशल कारीगर क्यों न हो, अपनी योग्यता का घमण्ड रखता है किन्तु अपने अफसर के पास जा कर उसे अभिवादन करना नहीं भूलता।

समय सम्बन्धी अशिष्टता के लिए भारत बदनाम है। क्लर्क दफ्तर में, विद्यार्थी स्कूल कालेजों में, मुसाफिर स्टेशन पर, दर्शकगण सिनेमा नाटकों में, समय की पाबन्दी का कोई भी ध्यान नहीं रखना चाहता। शोक का विषय है कि हमारे उठने-बैठने, सोने-जागने, दूसरों से मुलाकात करने तक का समय निश्चित नहीं है। भोजन सम्बन्धी नाना प्रकार की असभ्यता चलती रहती हैं। सम्पूर्ण पश्चिमी संसार में एक ही समय पर भोजन के लिए भिन्न-2 प्रकार के नामों की व्यवस्था है। अंग्रेज धनी हो या निर्धन, मजदूर हो या क्लर्क—उसके भोजन का समय निश्चित है। संयोग से यदि कोई अतिथि आ जाय, तो उसे भी नियत समय पर भोजन प्राप्त होगा। हमारे देश में रात हो या दिन, उचित समय हो या अनुचित आतिथ्य सत्कार चलता रहता है। जो देश खाने के समय का पालन नहीं कर सकता, उससे यह आशा नहीं की जाती कि वह जीवन के अन्य कार्यों में समय के पालन का ध्यान रखेगा।

यह कहना युक्ति संगत नहीं है कि विद्या से ही शिष्टाचार आता है। अनेक अशिक्षित व्यक्ति भी शिष्ट जन समुदाय की संगत में प्रविष्ट हो शिष्टता सीखते हैं।

अशिष्टता किसी भी राष्ट्र, देश, जाति, वर्ण के लिए अशोभनीय एवं त्याज्य है। बदतमीज आदमी शिष्ट समाज में प्रविष्ट नहीं कर पाता क्योंकि सर्वत्र उसका निरादर होता है। अनुशासन की अवज्ञा करने वाला, दूसरों के अधिकारों एवं कर्त्तव्यों के प्रति निश्चेष्ट, वीतराग स्वार्थी व्यक्ति , दुर्व्यवहार करने वाला आदमी कभी शिष्ट समाज में आदर प्राप्त नहीं कर सकता। दैनिक सामाजिक जीवन की छोटी-2 बातों से हमारा चरित्र प्रकाशित हुआ करता है, जो हमें सभ्य, शिष्ट एवं सुसंस्कृत या अशिष्ट प्रमाणित करता रहता है।


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