मीठे वचन बोलिये :- मधुर भाषण सर्वोत्तम वशीकरण मन्त्र है। जो व्यक्ति मधुर वाणी के कौशल को जानता है, वह ममता के हृदय पर राज्य करता है। शत्रु भी उसके मित्र बन जाते हैं, तमाम प्रतिरोध नष्ट हो जाते हैं और पराये भी अपने बन जाते हैं। कहा भी है—
कागा का को धन हरे, कोयल का को देय।
मीठे वचन सुनाय के, मन बस में कर लेय॥
मीठे वचन बोलिये। कटु वचन ईर्ष्या से युक्त वाली, क्रोध से तपे हुये शब्द संसार के समस्त झगड़ों के जड़ मूल हैं।
महाभारत में कहा गया है—“गाली देने वाले को बदले में गाली न दे, बुरा करने वाले का भी बुरा न करे, क्रोध के बदले क्षमा करे, अन्याय पूर्ण नीच साधनों द्वारा किसी से कार्य न ले।”
‘दूसरों पर जलने वाला दुराग्रही व्यक्ति स्वयं अपने हृदय की जलन से दग्ध होता रहता है। किसी का हृदय दुखे ऐसी कठोर वाणी मुँह से न कहो। अपने कठोर वचन बाणों से जो दूसरे का हृदय बेधता है, वह सर्वथा भाग्यहीन हो जाता है, उसके मुख-मण्डल पर अलक्ष्मी, मनहूसियत के चिन्ह प्रकट होने लगते हैं।’
‘सत्पुरुष दुष्टों के द्वारा की हुई निन्दा और गर्व भरी कटूक्तियों को सह लेते हैं तथा सन्तों द्वारा निर्दिष्ट शान्तिमय मार्ग पर चलते हैं।’
‘दुष्ट पुरुषों के मुँह से निरन्तर कटु वचन रूपी तीक्ष्ण बाण निकल निकल दूसरों को अन्तर्वेदना प्रदान करते हैं। वे चोट लाये हुए मानव रोते और कलपते रहते हैं।’
अतएव उत्तम पुरुष को चाहिए कि वे भूलकर भी दूसरों को कष्ट, वेदना या अन्तर्वेदना पहुँचाने वाले कटु शब्दों का व्यवहार न करे। तीनों लोकों के समस्त जीवों के साथ दया, मैत्री, दान तथा मिष्ठ भाषण का व्यवहार करना चाहिये। यही सर्वोत्तम वशीकरण है”
मैत्री भाव का चमत्कार :— उपरोक्त प्रवचन में बड़ा मार्मिक सा संकेत है। यदि हम सबसे अधिक मैत्री भाव का व्यवहार करें, अपने तथा दूसरों के प्रति अकल्याण की बात त्याग दें, अन्तः करण में प्रबल संवेगों का काम, क्रोध, ईर्ष्या, लोभ इत्यादि के अनुचित भावों को एकत्र न होने दें, तो ये दूषित मनोविकार हमारे दैनिक व्यवहार में प्रकट न हों और हमारा सुसम्बन्ध बना रहे। अकल्याण के भाव हमारे अचेतन मन में ग्रंथियों का रूप ग्रहण कर लेते हैं। फलतः हमारा व्यवहार संशयापन्न, ईर्ष्यालु या क्रोधी होता है।
हमारे प्रत्येक कटु, निर्मम, दुष्ट या पाप कर्म के पीछे कोई दलित भावना होती है। यह भावना ग्रन्थि हमारे अनेक दुष्कर्मों, गालियों, बातचीत, शब्द चयन इशारों, अकारण भय, मारपीट में प्रकाशित होती है। प्रोफेसर लालजीराम शुक्ल ने इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि—‘जो व्यक्ति दूसरे के अकल्याण की बात सोचता है, वह पीछे अपना ही अकल्याण सोचता है। दूसरे के अकल्याण का विचार जिस समय अदृश्य मन में जाता है वह भावना ग्रन्थि बन जाता है; और इसी कारण अपने आप के प्रति अनेक कुविचार आने लगते हैं। आत्मघात की इच्छा उसी मनुष्य के मन में उठती है, जिसके मन में दूसरे को विनाश करने की इच्छा आई हो। दूसरे को मारने की प्रवृत्ति तथा आत्महत्या की प्रवृत्तिं के मूल में एक ही लक्ष्य है। जो मनुष्य दूसरे को मारने में असमर्थ रहता है, उसके मन में आत्म हनन के विचार स्वयं ही उदय होने लगते हैं।
अतः दूसरे की कल्याण की ही भावना मन में रखकर बोलिये, व्यवहार कीजिए या संपर्क बढ़ाइये। अपना कल्याण दूसरों के कल्याण में ही निहित है। कलुषित मन न बनाइये अन्यथा नर्क में पड़े रहेंगे। मन एक बार कलुषित विचारों से भरने पर नर्क हो जाता है। दूसरों से व्यवहार का एक गुरु मन्त्र इस प्रकार है :—
जो तोकूँ काँटा बुवे, ताहि बोइ तू फूल।
तो को फूल के फूल हैं, वाको हैं तिरसूल॥
दूसरों के हित की बातें सोचिये, मैत्री भाव बढ़ाइये :—
भव्यजनों की हृदय भूमि में, बढ़ता है शुभ मैत्रीभाव।
विश्व प्राणियों पर होता है, जिससे अनुपम प्रेम प्रभाव॥
मैत्री का क्रम :—
भगिनि, बन्धु, पुत्र, पत्नी; गृहजन संबंधीजन प्रियतम्। सहधर्मी निज जातिजनों पर, बढ़ता मैत्री भाव प्रथम॥ ग्राम निवासी और देशवासी समस्त जीवों के ऊपर।
बढ़ा पूर्ण मैत्री प्रभाव को, रखना मित्र! भाव सुखकर। पशु पक्षी कीड़ी वृक्षादिक सभी प्राणियों पर हितधार। दया भाव रख नित्य बढ़ाना अतिशय मैत्रीभाव उदार॥ जग में कोई जीवन जो पत्नी पितु पुत्र न हुए कभी। मैत्री भाव योग्य बाँधव सम हैं इस जग में जीव सभी॥
मैत्री भाव का कारण :-
आत्मशुद्धि होने से बढ़ता जग में मैत्री भाव प्रभाव। पूर्ण सिद्धि होने पर होता तीन लोक पर मैत्री भाव॥
दोष कहे अपमान करे या तन पर कोई करे प्रहार।
पूर्व कर्म का कोप जान कर रखना मैत्रीभाव अपार॥
बैर भाव रख क्लेश बढ़ाना रखना द्वेष कपट अभिमान। अति दुःखकर यह पशु प्रवृत्ति है रखते कभी न ज्ञान निधाम।
द्वेष रोष तज सम रस सर में कर विहार क्षमता ले भर। शत्रु न समझ किसी को जग में रख मैत्री सब जीवों पर॥
किसके द्वारा किसको जीते?
संकल्पों के त्याग से काम पर और काम के त्याग से क्रोध परः जिसे लोग अर्थ कहते हैं :—उसे अनर्थ समझ कर लोभ पर, और तत्व के विचार से भय पर विजय प्राप्त करें।
आध्यात्म विद्या से शोक एवं मोह पर, महापुरुषों की उपासना से दम्भ पर, मौन के द्वारा योग के विघ्नों पर और शरीर प्राण आदि को चेष्टारहित करके हिंसा पर विजय प्राप्त करें॥
दया के द्वारा आधिभौतिक दुःख पर, समाधि के द्वारा आधि दैविक दुःख पर, योग शक्ति के द्वारा आध्यात्मिक दुःख पर एवं सात्विक आहार, स्थान; संग आदि के द्वारा निन्दा पर विजय प्राप्त करें।
सत्वगुण के द्वारा रजोगुण और तमोगुण पर, उपरति द्वारा सत्वगुण पर विजय प्राप्त करें। श्री गुरु भक्ति के द्वारा पुरुष इन सब दोषों पर सहज ही विजय प्राप्त कर सकता है। (महाभारत 7। 15। 22-25)
मतभेद के समय क्या करें? समाज में आपको अनेक प्रकार के व्यक्तियों से संसर्ग पड़ता है। कहीं उसका मतभेद होता है, कहीं भावों में संघर्ष होता है; कहीं उसे शंका होती है, कहीं उसे उदासी, आक्षेप, प्रतिरोध या प्रतिकूलता जैसे अन्यान्य भावों का सामना करना पड़ता है।
ऐसे अवसरों पर आपको ठण्डे दिल से भावना शान्त कर पूर्ण रूप संयम से शिष्ट व्यवहार करना अपेक्षित है। सभ्य पुरुष की आँखें उपस्थित समाज में चारों ओर होती हैं। उसे संकोचशील व्यक्तियों के साथ विनम्र होना चाहिये; मूर्खों का उपहास न करना चाहिये। शिष्ट व्यक्ति से बात करते समय उससे पूर्व सम्बन्धों की स्मृति रखता है ताकि दूसरा व्यक्ति यह न समझे कि वह उसे विस्मृत किए हुए है और ऐसे वाद-विवाद वाले प्रसंगों से मुक्त रहे, जो दूसरों के चित्त में खीज, प्रतिशोध, कटुता, व्यंग दुरभिसन्धि, दुष्टता आदि की कुत्सित भावनाएँ उत्पन्न न करें।
शिष्ट व्यक्ति जानबूझ कर संभाषण में अपने आपको प्रमुख आकृति नहीं बनाना चाहता और न वार्त्तालाप में अपनी थकावट व्यक्त करता है। उसके भाषण और वाणी में मिठास होता है। वह अपनी प्रशंसा को अत्यन्त संकोच के साथ ग्रहण करता है। जब तक कोई बाध्य न करे अपने विषय में मुँह नहीं खोलता तथा किसी आक्षेप का भी अनावश्यक उत्तर नहीं देता है। अपनी निन्दा पर वह कान नहीं देता; न व्यर्थ किसी का हमला मोल लेता है। दूसरों की नीयत पर आक्रमण करने का दुष्कृत्य वह कभी नहीं करता प्रत्युत यथा संभव जहाँ तक बनता है, दूसरों के भावों का अच्छा अर्थ बैठाने का प्रयत्न करता है। यदि झगड़े का कारण उपस्थित हो जावे, तो वह अपने मन की नीचता कभी नहीं प्रदर्शित करता।
शिष्ट पुरुष ऐसी बात मुँह से उच्चारण नहीं करता जिसे प्रमाणित करने की सामग्री उसके पास सुरक्षित न हो। वह बात में अपने अपमान की कल्पना नहीं करता; अपने प्रति की गई बुराइयों को स्मरण नहीं रखता तथा किसी के दुर्भाव का बदला चुकाने का भाव मन में छुपाकर नहीं रखता। संक्षेप में शिष्ट व्यक्ति दूसरों के भावों, विचारों एवं आदेशों के प्रति अधिक से अधिक उदार और उचित व्यवहार करता है। ‘पड़ौसी से प्रेम करो’ इस स्वर्ण सूत्र से उसका प्रत्येक कार्य परिचालित होता है।
ईर्ष्या और घृणा से दूर रह कर मुक्त प्रेममय हृदय से दूसरे से व्यवहार कीजिए। जिसके लिए आपके मन में ऐसे भाव उत्पन्न हों उसकी इच्छाओं सद्गुणों चरित्रों के उज्ज्वल पक्ष पर ही दृष्टिपात कर उससे मृदु व्यवहार करें और स्वयं अपनी योग्यता बढ़ाते रहें।
आप जिस स्थिति में हैं, उसी को अच्छी मानकर मन में दूसरों से मैत्री सहानुभूति तथा गुण ग्राहकता को लेने का व्यवहार करें, यह प्रारम्भिक विचार है, जिसे आधार भूत मान कर चलें।
जो आपकी समालोचना करे, उससे मत बिगड़िये उसको अपना मित्र समझ कर उसकी कही हुई बातों पर विचार कीजिए और अपने आप में जो कमी है उसे दृढ़ प्रयत्न से उन्मूलित कीजिये।
प्रशंसा और यश के लिए अधिक उत्सुक न रहिये, क्योंकि यदि आप प्रतिभावान हैं, तो आपको बढ़ने से कोई भी आलोचना नहीं रोक सकेगी। दूसरे की आलोचना को आन्तरिक सच्ची प्रेरणा के सम्मुख कोई महत्व न दीजिए वरन् जितनी भी आलोचना हो उससे दुगुनी इच्छा शक्ति लगा कर कार्य को आगे बढ़ाते चलिए।
असफलता, निराशा, भूल और दुःखों से मन को पराजित न होने दीजिए। ये प्रतिकूलताएँ लोकव्यवहार में अति साधारण बातें हैं, जो प्रत्येक महान् व्यक्ति के जीवन में आई हैं। इनको जीत कर निरन्तर कार्य करते रह कर ही मनुष्य सफलता लाभ कर सके हैं।
सदा प्रफुल्ल चित्त रहने का प्रयत्न कीजिए। मित्रों के साथ सात्विक हास परिहास करने से आपके मन का बोझ हलका हो जायगा। वे भी आपके संग रह कर मनका भार हलका कर सकेंगे। तत्पश्चात् काम में जी भी एकाग्र हो सकेगा।
अपने परिश्रम, कर्त्तव्य, और शुभ भावनाओं पर विश्वास कीजिए तथा जो कुछ कर रहे हैं, उसको और भी अधिक शक्ति लगाकर पूर्ण कीजिए।