दुष्टों से निपटना

January 1952

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दया, धर्म, सत्य, को स्थिर रखने के लिए जितनी शक्ति और तलवार की आवश्यकता है, उतनी ही कौशल, बुद्धि चातुरी और कूटनीति की भी है। राजनीति में कूटनीति का प्रयोग विकसित होकर एक विज्ञान बन गया है। सत्य और अहिंसा की सर्वत्र स्थापना स्पष्ट और खुले तरीकों से प्रायः संभव नहीं होती। संसार में कपटी, छली, चतुर, स्वार्थी, धोखेबाज, बगल में छुरी मुँह में राम राम कहने वाले व्यक्ति हैं। इनसे व्यवहार करने में मनुष्य को कूटनीति की आवश्यकता है।

संसार के व्यक्ति नवीनता से घबराते हैं, पुरानी कही सुनी, बातों पर पिष्ट पोषित मार्ग पर आरुढ़ रहते हैं। वह स्वयं अपने आप नहीं चलता, नाक पकड़ कर चलाया जाता है, जैसे हजारों भेड़ों को एक गड़रिया चराता है, उसी प्रकार संसार के मानव समाज को इने गिने पुरुषों पर भरोसा करना पड़ता है। संसार में बाहुबल का मूल्य पीछे है, बुद्धिबल का पहले, उसमें छल, कपट, नीति, आदर्श की स्थापना के लिए झूठ, फरेब, प्रतिशोध आदि सभी कुछ आ जाता है। कूटनीति को जानने वाला साम, दाम, दण्ड, भेद सभी का प्रयोग करता है। ऋषियों का वाक्य है-“शाठे शाठ्यं समाचरेत्”। संसार में जितने राज हैं उनमें अधिकतर छल मक्कारी की नींव पर खड़े हैं। जहाँ अहिंसा है, वहाँ हिंसा भी है; सत्य के साथ झूठ भी है।

वस्तु स्थिति को समझिये :- बुद्धिबल, कूटनीति, कौशल किसे कहते हैं? इसका उत्तर यही कि जो व्यक्ति वस्तु स्थिति, देश काल, निज शक्ति , सामर्थ्य इत्यादि को समझें, और तदनुकूल इस प्रकार व्यवहार करे कि किसी उच्च आदर्श की स्थापना हो; अधिक से अधिक व्यक्तियों का भला हो, संसार को अधिक सुख मिले, दुष्ट पापी अत्याचारी का नाश हो; “बहुजन सुखाय, बहुजन हिताय” आपको कूटनीति से कार्य लेना उचित है।

जब कर्ण ने अपना कवच दान में दे डाला और अपने व्यक्तिगत जीवन की रक्षा का आखरी उपाय भी सत्य, अहिंसा और दान शीलता के जोश में नष्ट कर लिया तो वह असमर्थ और निरुपाय हो गया। कूटनीति की दृष्टि से इन्द्र ने उसका कवच लेकर अपने बुद्धि कौशल का परिचय दिया था, किन्तु कर्ण की यह भारी मूर्खता थी। शकुनि ने उसे समझाते हुए कहा—

“अरे मूर्ख कर्ण दया! धर्म सत्य को स्थिर रखने के हेतु जितनी तलवार की अपेक्षा है, उतनी ही छल चातुरी की भी आवश्यकता है। यही राजनैतिक कौशल है। यही चातुरी राजनीति का गुप्त रहस्य है। सत्य बोलने के लिए कला और नीति की आवश्यकता है ...और तुम जिस सत्य अहिंसा की उपासना करते हो, वह तो एक कोरा आदर्शवाद है। वह व्यावहारिक नहीं है। कभी थके, माँदे, झुँझलाये हुए आदमी को शान्त करने के लिए उसे एक औषधि के रूप में अच्छा असर समझा गया है;पर उस मनुष्य के इतिहास को जब प्रारम्भ से अन्त तक फरेब, प्रेम के साथ क्रोध, अहिंसा के साथ साथ हिंसा, सजा, और खून का बदला खून, मनुष्य क्या चींटी से लेकर हाथी तक ने स्वीकार किया है। देखते हो एक बड़ी मछली रहती है। बुद्धिमान मनुष्य भी ऐसा ही करता है। दुर्गम पर्वतों को खंड खंड कर धराशायी कर दिया है, दुर्गों का निमार्ण किया है, प्रकृति की असंख्य दुष्ट शक्तियों, हिंसक पशुओं, भयंकर व्याधियों से युद्ध किया हैं। विश्व को विजय करने में मनुष्य ने बुद्धि, छल, कूटनीति का प्रचुर प्रयोग किया है।

निश्चय ही तुमने कवच देकर नादानी का कार्य किया है। तुमने हमारी नींव पर कुल्हाड़ा मारा है। तुम्हें बुद्धि से कार्य लेना उचित था।”

उपरोक्त वक्तव्य में शकुनि ने जो बातें प्रकट की हैं, उनमें से बहुत सी सत्य हैं। समय और परिस्थिति के अनुसार मनुष्य को अपने कार्य तथा फल का निर्णय करना चाहिये।

दुष्टों से सीधा संघर्ष मोल लेना, बहुधा उपयुक्त नहीं होता। उन्हें अवसर देखकर नीचा दिखाना चाहिए और सबक याद रखना चाहिए जिससे वे अपनी दुष्टता से बाज आवें, दुष्ट लोग बहुधा अशिष्ट होते हैं, न अपनी इज्जत प्यारी होती है न दूसरों की इसलिए उनसे प्रत्यक्ष संघर्ष तभी लेना चाहिये जब उनका मुँह भली प्रकार कुचल देने की स्थिति हो। अन्यथा उनके दुर्व्यवहार को विष के घूँट की तरह पीने में सहनशीलता और धैर्य का परिचय देना चाहिए ताकि अपने को भी लोग उस दुष्ट की श्रेणी का ही अशिष्ट न समझें। अपने धैर्य और तर्क द्वारा शिष्ट रहते हुए भी दुष्ट का विरोधी वातावरण तैयार कर अन्यों के सहयोग से उसकी दुष्टता का समुचित अतिकार किया जा सकता है।


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