मानव के मानसिक संस्थान में “अहं” वृत्ति महत्वपूर्ण है। प्रत्येक व्यक्ति अपने गर्व की रक्षा के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सचेष्ट रहता है। मनुष्य का बाह्य बनाव शृंगार, रहन, सहन, व्यवहार इत्यादि इस “अहं” की तृप्ति के नाना विधान हैं। कोई व्यक्ति अच्छे वस्त्र पहिन कर दूसरों पर शान जमाता है, तो दूसरा अच्छे मकान में रहकर, पूँजी एकत्रित कर या विद्वता द्वारा अपने अन्तः करण की “अहं” वृत्ति को संतुष्ट करता है। गरीब लोग अच्छे बाल काढ़ कर, गीत गाकर, फूलों की मालाएँ पहिन कर, इत्र लगाकर, सिनेमा में जाकर अपने अपने उपायों से अहं भाव की पूर्ति करते हैं। वे अपने लिए स्वयं ऐसे अवसर उपस्थित करते हैं, जिसमें वे सबसे महत्वपूर्ण स्थान पर कार्य कर सकें , बड़े प्रतीत हों और दूसरे उनके अनुशासन में रहें।
हम कब रूठते हैं? इसका उत्तर यही है कि जब हमारे अहं को चोट लगती है, तो हम रूठ जाते हैं। अहं की चोट को हम सम्हाल नहीं पाते। किसी ने कोई तीखी बात कह दी, दूसरे से हमारी चुगली कर दी, हमें डाट दिया, या मानहानि कर दी तो हमारे अहं को चोट लगती है। “अहं” की चोट हमें आन्तरिक परिताप देती है। आन्तरिक दुःख को हम रूठ कर व्यक्त करते हैं। जिससे हम प्रेम करते हैं, उससे रूठ कर हम अप्रत्यक्ष रूप से अपने प्रेम का प्रतिदान चाहते हैं। हम समझते हैं कि दूसरा अवश्य हमें मनाने आवेगा।
रूठने का अभिप्राय है अहं की विग्दग्घता। “अहं” को यदि पुनः किसी प्रकार प्रोत्साहन प्रदान किया जा सके और आन्तरिक घाव को भर दिया जाय, तो रूठा हुआ व्यक्ति पुनः मनाया जा सकता है। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि रूठने की क्रिया में मनुष्य की भावना की तीव्रता रूठने की क्रिया तथा फल को और भी उद्दीप्त करती है। जिसकी अनुभूतियाँ जितनी ही अधिक सचेत और तीव्र होंगी, वह तनिक सी चोट पाकर उतना ही दुःखी होगा, उतने ही काल तक रूठा रहेगा।
अधिक देर तक या बार बार रूठने के कारण रूठना मानसिक स्वभाव बन जाता है। एक बार अहं की मरहम पट्टी करने पर पुनः पुनः तनिक सी आलोचना से वह व्यथित होता रहता है। अतिशय भावुकता एक अभिशाप बन जाती है। अतिशय भावुकता साधारण टीका-टिप्पणी को भी सम्हाल नहीं सकती। भावुक व्यक्ति प्रायः तनिक सी बात पर रूठ जाते हैं तथा अपने मानसिक संस्थान को दृढ़ नहीं रख पाते हैं।
बच्चों का रूठना तथा मनाना साधारण है। वे साधारण सी प्रशंसा तथा प्रलोभन से अपना रूठना छोड़ देते हैं। उनका अहं सरल और निर्मल होता है। उसके विचार क्षण भर में ही दूर हो जाते हैं। उसमें प्रायः बुद्धि का योग नहीं होता। बड़े व्यक्तियों के रूठने में भावात्मक तथा बौद्धिक समन्वय चलता है। इसलिए उन्हें मनाने के लिए दो पृथक-पृथक मानसिक उपचार करने पड़ते हैं।
(1) बौद्धिक उपचार :- मनाने के लिए आपको चाहिए कि अपने समस्त बुद्धि कौशल एवं युक्तियों से पीड़ित व्यक्ति के मन में यह स्थिर कर दें कि उनका रूठना असत्य तथा अदूरदर्शिता पूर्ण है। प्रायः दो प्रेमी एक दूसरे से रूठ कर अपने प्रेम का प्रतिदान चाहते हैं। आप अपनी समस्त युक्तियों से यह साबित कीजिए कि आपका प्रेम स्थिर, अडोल और सात्विक है।
(2) भावात्मक उपचार :— आपको चाहिए कि रूठे हुए व्यक्ति की भावना को उभारें। इसमें उसके मन में अपने प्रति सहानुभूति, दया, तथा करुणा की भावनाएं उत्पन्न करना सर्वोत्कृष्ट साधन है। उसे यह अनुभव करने दीजिए कि वह आप पर अत्याचार कर रहा है। भावना की विदग्धता दूर करने के लिए आप अपने जीवन के पुराने सुखद संस्मरण, मृदुल स्मृतियाँ याद दिला सकते हैं। उसकी थोड़ी-2 प्रशंसा कीजिए। अन्य विषयों पर बातें कर उसे बोलने, हंसने, खुलने का अवसर प्रदान कीजिए। हंसने से वह रूठना छोड़ देगा।
रूठे को मनाना अभ्यास पर निर्भर है। किसी व्यक्ति को कितनी मानसिक वेदना लगी है? कितनी सहानुभूति की आवश्यकता है?—यह सब व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक अध्ययन से ही ज्ञात हो सकता है। कुछ व्यक्ति तनिक सी, भावात्मक सहानुभूति से पसीज उठते हैं, कुछ बड़े कट्टर और जिद्दी होते हैं व्यक्ति का “अहं” बड़ा जटिल होता है। वह सरलता से, जिस कारण से रूठा है, उसे भुलाना नहीं चाहता। उसके लिए पुनः पुनः बौद्धिक उपचार करने चाहिए।
बड़ा व्यक्ति भी भावात्मक विकास में एक प्रकार का शिशु ही है। उसकी भावनाएँ बच्चों की तरह सहानुभूति और प्रशंसा से पसीज उठती हैं। यदि आप उसकी दया प्राप्त कर सकें, उसे आप की दयनीय स्थिति पर करुणा हो उठे, तो उसके “अहं” को संतोष हो जायगा। वह एक बार पुनः मिथ्या गर्व से फूल उठेगा। गर्व के उभरते ही वह रूठना छोड़ कर प्रसन्न हो उठेगा।
भावना की जटिलता गहरी नहीं बैठ पाती। बुद्धि की जटिल ग्रन्थि अंतर्मन में गहराई तक प्रविष्ट हो जाती है। उसका मानसिक इलाज आसानी से नहीं हो पाता। भावना के ऊपरी केन्द्रों में सहानुभूति का संचार सरलता से हो सकता है।
रूठे के हृदय में यह बात बिठाने का प्रयत्न कीजिए कि बिना उसके आपकी कैसी दुर्दशा हो जायगी; आपका घर बिगड़ जायगा; भोजन इत्यादि का क्रम टूट जायगा; आपका स्वास्थ्य सुख, प्रतिष्ठा नष्ट हो जायगी इत्यादि। करुण, हास्य, दया, प्रेम, सहानुभूति, गौरव, की भावनाओं का उद्रेक कीजिए। आप जितना ही रूठे के हृदय में इन्हें स्थिर कर सकेंगे, उतना ही उत्तम है।
अनेक बार समय व्यतीत होने से हृदय के घाव स्वयं ठीक होने लगते हैं। दुखद प्रसंग विस्मृत होते हैं। रूठना स्वयं दूर हो जाता है। यदि जिद्दी रूठने वाला व्यक्ति हो तो उसे मनाना छोड़ कर नित्य प्रति जैसा व्यवहार प्रारंभ कर देना चाहिए। आप स्वयं भी भूल जाइये कि उसने क्या गलती की थी? कब किस बात पर रूठा था? धीरे धीरे समय के साथ वह साधारण स्थिति में स्वयं आ जायगा। रूठना मन की अस्वाभाविक और कृत्रिम दशा है। अपनी सहज स्वाभाविक गति में मन सरल निष्कपट रहना चाहता है। उसमें जो गुत्थियाँ आ रही हैं, वे अप्राकृतिक हैं। अतः कुछ समय पश्चात् धीरे धीरे लड़ाई झगड़े की कटुता स्मृति पटल से दूर हो जाती है। जिद्दी को मनाना आफत मोल लेना है। अतः साधारण सहानुभूति के पश्चात् उसे समय के लिए छोड़ देना ही श्रेयस्कर है।