सहस्राँशु यज्ञ की पुण्य प्रगति

January 1952

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प्रसन्नता की बात है कि सहस्राँशु यज्ञ की सन्तोष जनक प्रगति हो रही है। 1 हजार स्थानों में, सहस्रों ऋत्विजों द्वारा, 125 करोड़ गायत्री जप, 125 लाख आहुतियों का हवन, 125 हजार उपवास और 125 हजार (सवा लक्ष) सत्पुरुषों को गायत्री विद्या का समुचित ज्ञान कराना, यह सहस्राँशु यज्ञ का विशाल कार्यक्रम है। इतने बड़े आयोजन की पूर्ति इस वातावरण में-जिसमें धार्मिक कृत्यों की ओर व्यापक अश्रद्धा, एवं उपेक्षा परिव्याप्त है—साधारण तया कठिन ही दिखाई पड़ती है, परन्तु हर्ष की बात है कि सर्व शक्तिमान सत्ता की प्रेरणा से, इस युग का यह अभूत पूर्व यज्ञ अपने नियत समय के भीतर ही निश्चित रूप से पूरा होता दृष्टि गोचर हो रहा है। इस यज्ञ में प्रतिदिन नवीन ऋत्विज् उत्साह पूर्वक सम्मिलित होकर गायत्री तपश्चर्या में प्रवृत्त हो रहे हैं। कितने ही व्यक्ति ऐसे हैं जिनने अपने अब तक के जीवन में कभी पूजा उपासना की राह नहीं जानी थी वे उग्र तपश्चर्या में प्रवृत्त हो रहे हैं। जिनमें थोड़े से भी पूर्व संस्कार मौजूद थे, उनने तो इस यज्ञ में स्वयं ऋत्विज् बनने और दूसरों को बनाने में बहुत अधिक उत्साह दिखाया है।

यह सार्वजनिक यज्ञ है। किसी एक व्यक्ति को इसका श्रेय या पुण्य नहीं मिलेगा। वरन् साझे की खेती की तरह हर एक भागीदार को उसके परिश्रम के अनुसार उपयुक्त भाग प्राप्त हो जायगा। एक एक मनुष्य अलग अलग अपना काम करे तो वह छोटा, अधिक खर्चीला, अधिक श्रम साध्य, एवं कम लाभ-दायक होता है। किन्तु यदि अनेक मनुष्य एक साथ सम्मिलित होकर अपने श्रम; धन, कौशल, चातुर्य आदि को इकट्ठा करके कोई उत्पादन, या व्यवसाय करें तो वह कार्य भी बहुत विशाल होगा और उसमें लाभ भी हर एक भागीदार को अधिक होगा। किसी देश में बहुत बड़ी संख्या में योद्धा हों पर वे बिखरे हुए अपने अपने घरों पर रहें, और अपनी अपनी योजनानुसार देश की रक्षा करें तो उतना कार्य नहीं हो सकता जितना कि उससे चौथाई योद्धा एक फौज के रूप में संगठित होकर अनुशासित रूप से कर सकते हैं। जैसे थोड़ी थोड़ी पूँजी से एक एक आदमी दियासलाई बनाने का काम करे तो उससे दियासलाई बहुत थोड़ी बनेंगी, अधिक महंगी पड़ेंगी और उन्हें सर्वत्र भेजने की व्यवस्था भी न हो सकेगी किन्तु यदि उस व्यवसाय में लगे हुए व्यक्ति अपना धन और श्रम इकट्ठा करके दियासलाई का एक बड़ा कारखाना चलावें तो उन लोगों को भी अधिक लाभ होगा और देश की आवश्यकता भी बड़े पैमाने पर, सरलतापूर्वक पूरी हो जायगी। इस यज्ञ को भी ऐसा ही साझे की फैक्टरी, लिमिटेड कम्पनी, मुक्ति फौज, सार्वजनिक संस्था या सामूहिक तपश्चर्या समझना चाहिए। किसी पुण्य पर जैसे असंख्य लोग एक ही दिन; एक ही समय, एक ही स्थान पर, गंगा स्नान करके पुण्य लाभ करते हैं वैसे ही पुण्य पर्व यह यज्ञ भी है।

ऋत्विजों को यह न भूलना चाहिए कि इस यज्ञ के जप उपवास, हवन, आराधना, ब्रह्म संदीप यह 5 अंग हैं और वे पाँचों ही समान रूप से उपयोगी एवं आवश्यक है। इनमें से किसी की भी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। फोड़े का आपरेशन तो कर दिया जाय पर उसे धोना, दवा लगाना, पट्टी बाँधना, आराम देना आदि आवश्यक उपचार की उपेक्षा की जाय तो वह चिकित्सा उपयुक्त न मानी जायगी। इसी प्रकार जिन्हें साधना करनी हो, सम्मिलित होना हो उन्हें पूर्ण तत्परतापूर्वक ही सम्मिलित होना चाहिए।

ऋत्विजों को चाहिए कि वे जिस गायत्री शक्ति की उपासना करते हैं उसके सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी प्राप्त करने से वंचित न रहें। जो वैद्य निदान, निघंटु, नाड़ी परीक्षा, औषधि कूटना और गोली बनाना मात्र जानता है, उसे चिकित्सा के महत्वपूर्ण कार्य में कितनी सफलता मिलेगी, इसका अनुमान लगाना कुछ कठिन नहीं है। चिकित्सा शास्त्री की भाँति ही गायत्री विद्या का भी एक अत्यन्त महत्व पूर्ण विज्ञान है, उसकी जानकारी प्राप्त करने के लिए समुचित अध्ययन करने की आवश्यकता है। जो लोग उस ज्ञान की उपेक्षा करके जप करने मात्र को ही पर्याप्त समझते हैं, वे उपयुक्त लाभ प्राप्त नहीं कर सकते।

इसी प्रकार इस यज्ञ की वंश वृद्धि होना भी आवश्यक है। किसी का वंश डूब जाना अशुभ माना जाता है। जिसका कुटुम्ब परिवार है, पुत्र पौत्रों से घर भरा है उसे ही सौभाग्य शाली मानते हैं। उसी प्रकार प्रत्येक ऋत्विज् की सफलता अपना आध्यात्मिक वंश बढ़ाने में है। आध्यात्मिक तत्वों का व्यापक प्रसार करने के लिए अधिकाधिक व्यक्तियों को गायत्री की पारस मणि से स्पर्श कराना है, यदि ऋत्विज् अपना जप भाग पूरा करके चुपचाप संतुष्ट बैठे रहें तो उनका यह कार्य अधूरा ही रहेगा। बट, पीपल वृक्षों की पूजा इसलिए की जाती है कि उनमें उपकारी परम्परा की, वंश वृद्धि की विशेष शक्ति है। एक एक बट पीपल के फल में अगणित बीज छिपे रहते हैं। जबकि अन्य वृक्षों के फलों में एक ही बीज रहता है। गायत्री विद्या का प्रसार करना, अधिक लोगों में इस महान ज्ञान का विस्तार करना, एक उच्च कोटि का ब्रह्म दान है, जिसकी तुलना अन्न दान, वस्त्र दान, हेम दान आदि से नहीं हो सकती। ऋत्विजों के पास अपना जो गायत्री साहित्य है उसे बार बार स्वयं पढ़ें और गायत्री पुस्तकालय के रूप में अधिकाधिक व्यक्तियों को पढ़ाना चाहिए और इस बात का प्रयत्न करना चाहिए कि वे पढ़ने वाले भी अपना स्वतंत्र गायत्री पुस्तकालय स्थापित करके आपकी ही तरह अनेक लोगों को ज्ञान दान करें। इस प्रकार अपनी आध्यात्मिक वंश वृद्धि करना, अपनी आध्यात्मिक पुत्रों पौत्रों, प्रपौत्रों का मुख देखना आनन्द दायक मानें।

सहस्राँशु यज्ञ की प्रगति संतोष जनक है। सर्व शक्ति मान माता की प्रेरणा से इस युग का यह अभूतपूर्व यज्ञ पूर्ण सफलता के साथ सम्पन्न होगा ऐसा विश्वास है। इसके जो सूक्ष्म लाभ होंगे उनकी गुरुता का अनुमान लगाना भी कठिन है। इससे विश्वव्यापी दूषित वातावरण की शुद्धि होगी, जिन अगणित ताप तापों से प्राणि मात्र को भारी पीड़ाएं सहन करनी पड़ रही हैं, उनकी समाप्ति होगी, प्राचीन सात्विकता, धार्मिकता एवं शान्ति का पुनः अवतरण होगा, इसके अतिरिक्त इस महान अभियान में भाग लेने वाले ऋत्विजों को अनेक दृष्टियों से आशाजनक सत्परिणाम प्राप्त होंगे। इस परम कल्याणकारी यज्ञ की भागीदारी बहुत ही सरल है। इसमें भाग लेने के लिए हम सभी धार्मिक प्रवृत्ति के सत्पुरुषों का आह्वान करते हैं और जो ऋत्विज् इसमें संलग्न हैं उनसे अधिक तत्परता, दृढ़ता जागरुकता एवं उत्साह को अपने की प्रार्थना करते है।


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