दैनिक व्यवहार की कुछ अशिष्टताएं

January 1952

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राशन की दुकान है। खरीददारों की लम्बी भीड़ खड़ी है, “पहले मैं, पहले मैं” की चिल्लाहट सुन पड़ती है। धींगा मुश्ती चल रही है। लोग एक दूसरे के ऊपर गिरे पड़ते हैं, भीड़ में श्वास तक नहीं आता है। किसी की गठरी बिखरती है, तो किसी को कम तोल माल मिलता है। इसमें किसका दोष है? कम तोलना, वाक्-युद्ध होने तथा गालियों, गठरी बिखरने, घंटों बैठने का उत्तरदायित्व किस पर है? यह हमारे राष्ट्रीय चरित्र की कमजोरियाँ ही हैं।

व्यवहार की छोटी-छोटी भूलें हमें नीचे लाती हैं। हमारे राष्ट्रीय चरित्र को कमजोर करती हैं। कोई भी राष्ट्र अपने बड़े आदमियों के चरित्र पर नहीं, अपनी साधारण जनता के व्यवहार में बड़प्पन पाता है आचरण सभ्य है, सहृदय है, सज्जनता पूर्ण है, तो वह राष्ट्र उन्नत है। भारत में राष्ट्रीय चरित्र की निम्न कमजोरियाँ विशेष रूप से हटाने योग्य हैं :—

समय सम्बन्धी भूलें :- समय की पाबन्दी को पालन न करना। स्कूल, कालेजों, ऑफिसों रेल के स्टेशनों, गाड़ियों का समय पर न पहुँचना। विद्यार्थियों को समय की पाबन्दी का जरा भी ध्यान नहीं रहता। क्लर्क ऑफिसों में देर से पहुँचते हैं, डाकिया देर से डाक बाँटता हैं। यहाँ तक कि सिनेमा का मनोरंजन देखने वाले दर्शक भी समय की परवाह नहीं करते चाहे आधी फिल्म निकल जाय।

वायदे का पालन न करना :- जिस समय पर आने का वायदा किया जाय, उस समय पर न पहुँचना बड़ी अशिष्टता है। या तो वायदा ही न किया जाय, अन्यथा चाहे कुछ हो नियत समय पर, नियत स्थान पर अवश्य पहुँचा जाय।

पुलिस का निर्देश न मानना :- जब सड़क पर पुलिस मैन आपको एक ओर जाने को कहता है, तो उस ओर न बचकर दूसरी ओर बचना, फुटपाथ पर छोड़कर बीच सड़क पर चलना, सड़क पर छिलके कूड़ा करकट, गन्दी वस्तुओं को एकत्रित करना, सड़क या नालियों पर बच्चों को टट्टी बिठाना, अपने घर का पाखाना गन्दा रखना अशिष्टताएँ हैं। पुलिस की आज्ञा का उल्लंघन करना नागरिकता के नियम की अवहेलना करना है।

मनोरंजन के स्थानों में शोर—स्कूल, कालेज, सिनेमा, या खेल के मैदान हमारी सामाजिक आदतों तथा चरित्रों के प्रतिबिम्ब हैं। इनमें हम अनुशासन और शिष्टाचार की अनेक भद्दी भूलें करते हैं। सबसे पहली बात शोर मचाना है। न जाने लोगों के पास कितनी बातें और विषय व्यर्थ की टीका-टिप्पणी करने के लिए आ जाते हैं। विद्यार्थी समुदाय कक्षाओं तक में इतना शोर करता है कि कुछ कहना कठिन हो जाता है। सिनेमा हाल की गन्दी गालियाँ, गन्दे गाने, अशिष्ट आचरण तो सर्वत्र आलोचना का विषय बन गये हैं।

पंक्तियों में खड़े न होना :- स्टेशनों पर टिकट घर की खिड़कियों पर जो धक्का मुक्की चलती है, उसे कौन नहीं जानता। सिनेमा घरों में लोगों के चोटें तक आती हैं, पर कोई पंक्ति में खड़ा नहीं होना चाहता यह नागरिकता का अभिशाप है।

स्त्रियों का मान अपमान :-सम्पूर्ण पाश्चात्य संसार में नारी जाति श्रद्धा और आदर की वस्तु समझी जाती है। प्रायः उन्हें उचित स्थान देने के लिए बस या रेल के डिब्बे में बैठे हुए व्यक्ति को उठकर अपनी सीट उन्हें दे देनी पड़ती है। इसे गर्व का विषय माना जाता है। हमारे यहाँ यह परवाह नहीं की जाती कि कौन स्त्री कितनी देर से कहाँ खड़ी है? क्या चाहती है? उसे किस वस्तु की आवश्यकता है? या लज्जावश वह क्या नहीं कह पाती है। न जाने कब हम यह प्रतिष्ठा सीखेंगे?

दूसरों की सीट पर अधिकार :- बस, या रेल के डिब्बे से आप पानी पीने या किसी जरूरी वस्तु को लेने के लिए उतरते हैं, जब वापस आते हैं; तो क्या देखते हैं कि कोई दूसरा व्यक्ति उस स्थान पर जमा बैठा है। इसे अपने कृत्य पर जरा भी ग्लानि विक्षोभ नहीं है। आप उससे अपने स्थान के विषय में इंगित करते हैं, वह कुछ नहीं सुनता, यह है हमारे राष्ट्रीय चरित्र की नीचाई, असत्यता, चोरी, हठधर्मी।

गुप्त अंगों को खुले रखना :- सभ्य समाज मैं बैठकर जाँघें खोलना, गले के बटन खोल कर नंगा गला दिखाना, या छाती उघाड़े रखना, गुप्त अंगों का स्पर्श करते रहना भारी असभ्यता है इसी प्रकार नेत्रों का संचालन, विभिन्न अभिनयों की भूषा, अनुकरण हमारी असभ्यता की छाया है।

गालियाँ हमारा कलंक :- बात बात में अनेक भारतीय तकियाकलाम के रूप में अशिष्ट शब्दों, अश्लील अंगों, गालियों का प्रयोग करते रहते हैं। अनेक गन्दे शब्द तो समाज में निरन्तर व्यवहार में आ रहे हैं जब कि जनता उनका अभिप्राय नहीं समझती। आवश्यकता इस बात की है कि माँ बाप बच्चों को इन गालियों से बचावें। कुसंगति में रहकर प्रायः यह गन्दी आदत लगती है।

स्वतन्त्रता प्राप्त हो जाने के पश्चात् हमारा यह कर्त्तव्य हो जाता है कि अपने भाई बहिनों को सुसंस्कृत और सभ्य बनावें, जिससे हमारी नागरिकता का स्तर उच्च हो सके। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने आचरण का ध्यान रखे, तो आने वाली पीढ़ी सुसंस्कृत हो सकती है।


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