संस्कार तथा भावनाओं का महत्व

January 1952

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शिक्षा का नया दृष्टिकोण-

मानव स्वभाव में भावना का सबसे अधिक महत्व है। भावना ही वह उत्पादक शक्ति है, जो समग्र कार्यों, सामाजिक राजनैतिक तथा अन्य व्यवहारों के मूल में रहने वाली मूल चालक वृत्ति है। मनुष्य के प्रारम्भिक संस्कार इसी भावना से सम्बन्ध रखने वाले होते हैं। प्रायः देखा जाता है कि अबोध बालक के मन में प्रारंभ में जिन भावनाओं के संपर्क, अभ्यास, परिस्थिति, पुनरावृत्ति द्वारा भर दिया जाता है, वे ही भावनाएँ विकसित होकर उसके गुप्त मन के संस्कारों का निर्माण करती हैं। भावना ही मनुष्य है। हम जिस भाव से प्रभावित हैं, उसे हृदय से निकाल नहीं पाते हैं।

अंतर्मन में वर्तमान भावना हमारे कार्यों को आगे बढ़ा कर हमें नवस्फूर्ति अन्तःप्रेरणा को प्रदीप्त करती हैं। हम सोचते विचारते या कार्य करते हैं किन्तु इनके जड़मूल में कोई न कोई भावना जुड़ी रहती है।

भावना का व्यापक प्रभाव :-

तर्क, बुद्धि, विचार, दर्शन इत्यादि सब महत्वपूर्ण मानसिक व्यापार हैं किन्तु इन सबमें भावना का पद श्रेष्ठतम है। भावना बुद्धि पर राज्य करती है। जिस भावना के वश में हम होते हैं, उसी प्रकार बुद्धि तथा हमारा तर्क भी काम करता है। भावना कोई दलील नहीं सुनती। वह तर्क की दुनिया से ऊपर है। उसका सम्बन्ध मस्तिष्क से नहीं, हृदय से है।

मान लीजिए, किसी बच्चे के मन में देश प्रेम, माता पिता प्रेम की भावना अंतर्मन में जमा दी गई है। इस प्रकार के भावना युक्त व्यक्ति की बुद्धि यह तर्क उपस्थित करेगी, देश हमारा है, यह हमारी संस्कृति का आदि स्रोत, प्रतिष्ठा का सोपान है। हमें इसकी रक्षा करनी है; इसकी प्रतिष्ठा को निरन्तर ऊँचा उठाना है।’ आदि। इसके विपरीत यदि स्वदेश प्रेम की भावना अंतर्मन में न रहेगी तो बुद्धि इस प्रकार तर्क करेगी। “देश हुआ करे, हमारी जिन्दगी ही कितने दिन टिकने वाली है। हमें तो खाना पीना, मौज उड़ाना है। दुनिया का मजा लेना है, दूसरे मरें गलें चूल्हे में जायं। हमें देश, जाति से क्या प्रयोजन हैं?”

जर्मनी में हिटलर ने नाजियों की शिक्षा बचपन से ही भावना को लेकर की थी। वहाँ बच्चे बच्चे के हृदय में यह भावना भरी गई कि “तुम श्रेष्ठ हो, वीर हो, साहसी हो। जर्मन जाति संसार में सब जातियों से उच्च श्रेष्ठतम है। दूसरे तुम्हारे गुलाम हैं। तुम्हें उन पर राज करना है।” इन भावनाओं के संस्कार विकसित होकर जर्मन जाति उत्साह, वीरता, धैर्य, साहस के जीते जागते पुतले बने। यदि उनकी कहानियाँ, उनके नारे, उनके प्रारम्भिक गीत, राष्ट्र-प्रेम, स्वदेश भक्ति से भरे हुये न होते, तो उनकी बुद्धि कभी स्वदेश भक्ति के पक्ष में तर्क न करती।

आज शिक्षा संसार के सम्मुख सब से महत्वपूर्ण समस्या, भावनाओं की उचित शिक्षा, ठीक रीति तथा मार्गों में विकास, परिपुष्टि, उसी प्रकार का वातावरण निर्माण करने की है। यदि माता, पिता, देश, समाज, जाति हित, विश्व प्रेम, मातृत्व, की भावनाओं की शिक्षा हम प्रारम्भ से ही बच्चों में संस्कार के रूप में भर दें, तो उनकी बुद्धि भी विकसित होकर उसी प्रकार के तर्क उपस्थित करेगी।

भावना विकास के नियम :-

भावना का यह नियम है कि प्रारम्भ में इसके मार्ग दर्शन तथा कुछ वस्तुओं से जोड़ने की आवश्यकता पड़ती है। यह अन्ध भक्ति है। बच्चे के सम्मुख कोई भी महान् पुरुष, देवता, गुरु, विद्वान या धर्म पुस्तक आती है तो हमारा कर्त्तव्य यह है कि इनके प्रति प्रारम्भ से ही उच्चतम भावनायें श्रद्धा, प्रेम, पवित्रता को जोड़ दें। माता-पिता गुरु के प्रति श्रेष्ठ, पूज्य भाव के अंकुर प्रारम्भ से ही जमा दें, देश भक्ति , स्वदेश की महत्ता भली भाँति उनकी भावनाओं में भर दें। शैशव की भावनायें हमारे वीर पूजा भाव का एक अंग बनती हैं। हम उनसे विलग नहीं रह सकते, वे गुप्त रूप से हमारे विचार तथा क्रियाओं को प्रभावित किया करती हैं। भावना सोचती समझती, तर्क वितर्क न कर अन्धे प्रेम जैसी जम जाती है। एक बार जम गई तो स्थायी रूप से जमी समझना चाहिये।

शोक है आज शिक्षा तथा आध्यात्म संसार में भावना की शिक्षा का महत्व कम हो गया है। इस दृष्टि से हमारी प्राचीन शिक्षा अधिक मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर निर्भर थी। बच्चों को गुरु, माता, पिता, बड़े व्यक्तियों, धर्म, धार्मिक कार्यों में रुचि उत्पन्न की जाती थी। उनके प्रति पूजनीय भाव प्रारम्भ से ही जोड़ दिये जाते थे, धार्मिक अंतःवृत्ति होने से बड़ा होने पर भी भारतीय भोगवाद की ओर प्रवृत्त न होते थे। ब्रह्मचर्य का संयम सदैव उन्हें संयमित किया करते थे, पवित्र भजन, पूजा, यज्ञ, चिंतन, अध्ययन, मनन आदि से जो गुप्त मन निर्मित होता था, वह पवित्रतम भावनाओं का प्रतीक होता था। घर का वातावरण भी उच्च नैतिकता से परिपूर्ण होता था, जिससे एक पीढ़ी के पश्चात् दूसरी पीढ़ी उन्हीं संस्कारों को निरन्तर विकसित करती चली आती थी।

जैसा बीज, वैसा वृक्ष, तथा फल। जब हमारी भावनाओं में नैतिकता, श्रेष्ठता, पवित्रता का बीज नहीं डाला जायगा, तो किस प्रकार उत्तम चरित्र वाले मानव तथा समाज की या देश की सृष्टि हो सकती है?

खेद का विषय है कि हमारे बच्चों के हृदय में प्रारम्भिक भावना का बीज बोने वाले अध्यापकों की उचित शिक्षा नहीं होती। वे स्वयं गलत भावनाओं के शिकार होते हैं। यह गलती बढ़कर शिष्य का जीवन नष्ट करती है।

बच्चे के हृदय में उचित भावना की सृष्टि—

यदि हम इस अंग को लेकर व्यावहारिक सभ्यता, शिष्टाचार, मर्यादा, संयम, अनुशासन का कार्य करें तो बच्चों तथा नवयुवकों के जीवन में क्रान्ति हो सकती है। आवश्यकता इस बात की है कि पहले माता पिता स्वयं भावनाओं की शिक्षा की उपयोगिता समझें; स्वयं आदर की भावनाओं को संस्कार रूप में शिशु मन पर स्थापित करें। प्रारम्भ में बच्चा विचार करना नहीं जानता। इन भावनाओं को बरबश उसके शैशव मन पर जमाना पड़ता है। बच्चे अनुकरण प्रिय होते हैं, वे वीर पूजा भाव से परिचालित होते हैं। अध्यापक तथा माता पिता बच्चों के सम्मुख एक आदर्श के रूप में उपस्थित होते हैं। उनकी रहन सहन, आचार व्यवहार, सत्यता, पवित्रता, सब कुछ अनुकरण किया जाता है। अतः बच्चों के सम्मुख आने वाले ये आदर्श उच्च चरित्र वाले, नैतिक बल से पूर्ण, उच्च संस्कार वाले होने चाहिये।

वातावरण का भारी महत्व है। वातावरण का अर्थ व्यापक है। घर, तथा संगति तो यह महत्वपूर्ण है हीं, घर की पुस्तकें, दीवारों के चित्र, हमारे गाने, भजन, इत्यादि भी बड़े महत्व के हैं। यदि इन्हीं से उन्नति तथा सुधार की भावना में चलाई जायँ, तो आचार व्यवहार के क्षेत्र में क्रान्ति हो सकती है।

आपके मुख से निकलने वाला प्रत्येक शब्द, आपके शरीर का अंग संचालन, आपके वस्त्र, घर पर माता पिता की गालियाँ, साथ खेलने वाले बच्चों के विचार, सभी हमारे, बच्चों पर गुप्त रूप से प्रभाव डाला करते हैं।

भावना की जड़ जमाने में बड़े सतर्क रहिए। पुनः पुनः प्रयत्न कीजिये कि अपने बच्चे में दया, कोमलता, मानवता, सच्चाई, प्रेम, सहानुभूति, अनुशासन की भावनाएं आती रहें। इन्हें बरबस बच्चों के कोमल मन में बसाइये। अच्छे-अच्छे भजन, पवित्र कर्त्तव्य की शिक्षा देने वाली कहानियाँ, उत्तमोत्तम व्यवहार द्वारा नये राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण हो सकता है। बचपन से ही शिशु के मन पर बड़ों के प्रति आदर प्रतिष्ठा सम्मान, छोटों के प्रति स्नेह, दया, सहानुभूति, सहकारिता, बराबर वालों से मैत्री, प्रेम, संगठन सहयोग की भावनाएं बच्चों के गुप्त मन में उत्पन्न करनी चाहिये। आचरण, आदर्श, तथा उचित निर्देशन से यह कार्य माता पिता, अध्यापक सभी कर सकते हैं।

मान लीजिये, एक बच्चा सिनेमा का एक भद्दा गाना अनजाने ही कुसंगति से सुनकर याद कर लेता है। वह उसका अर्थ नहीं समझता, किन्तु उसे पुनः पुनः दोहराता है। बड़ा होकर वह उसका अर्थ समझने लगता है और जीवन भर उससे प्रभावित हुये बिना नहीं रहता। यही बच्चा यदि कोई राष्ट्रप्रेम का गीत, उत्तम भजन, पवित्र विचार वाली उक्ति अनजाने में सीख ले, (जो माता-पिता सतत् अभ्यास, पुनरावृत्ति से सिखा सकते हैं,) तो वह बड़ा होकर निरन्तर उच्च मार्ग की ओर ही अग्रसर होगा। हमारी आदि शिक्षा में अनेक पवित्र श्लोक, भजन, इत्यादि मौखिक रूप से स्मरण रखने की परिपाटी रही है। गुरुगण प्रारम्भ से ही बच्चों को अच्छे विचार वाली रचनाएँ, सुन्दर कविताएं भजन, स्तुतियाँ, प्रार्थनाएं याद कराते थे; मन्त्रों का निरन्तर उच्चारण होता था । इन्हें सम्पूर्ण जीवन पर्यन्त बच्चा नहीं भूल सकता था। गुप्त रूप ये मंत्र हमारे संस्कारों में प्रविष्ट हो जाते थे। कालान्तर में हमारे नैतिक और धार्मिक जीवन की इस गहरी बुनियाद के कारण हमारे आचार व्यवहार श्रेष्ठ होते थे।

ऋग्वेद में लिखा है, (इला) मातृ-भाषा (सरस्वती) मातृ सभ्यता और (मही) मातृभूमि ये तीनों देवियाँ कल्याण करने वाली हैं। इसलिए तीनों देवियाँ अन्तःकरण में बिना भूले हुए स्थित हों।’ तात्पर्य यह है कि मातृभाषा, सभ्यता और मातृभूमि से प्रत्येक भारतीय बच्चे को अगाध प्रेम होना चाहिये। वह इसी भावना को सामने रख कर बड़ा किया जाय। ये ही बातें उसे प्रारम्भ से सिखाई जायें। वह इनके विषय में तर्क न करें, उसके मन में इनके प्रति संदेह उत्पन्न न हो। हम जब उपर्युक्त तीनों देवियों के प्रति पूजा भाव, श्रद्धा, जोड़ लेंगे तो इनके प्रति शुभ ही देखेंगे, शुभ ही सोचेंगे; शुभ योजनाओं को ही कार्यान्वित करेंगे, जो आपका हृदय स्वीकार करता है, वह बुद्धि या मस्तिष्क की परिधि से दूर है। यदि वे भावनाएं हृदय मजबूती से पकड़ लें तो भावी जीवन में वे विलग नहीं होतीं।


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