दूसरों के कामों में हस्तक्षेप

January 1952

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अपनी महत्ता में अखण्ड विश्वास

कोई व्यक्ति अपने रहन सहन, चीजों के इधर उधर रखने, सोने-जागने या भोजन करने के तरीकों, बोलचाल वस्तुओं के चुनाव में जिस प्रकार से कार्य करता है, वे उसकी भावना से प्रायः परिचालित होते हैं। यदि आप अपने तर्क द्वारा उन बातों या असभ्यता या उत्तम मार्ग, अच्छी आदतों या दिनचर्या के विषय हस्तक्षेप करें, तो आपकी सर्वथा तर्कपूर्ण और पूर्णतः न्याय संगत बात भी दूसरे को बुरी मालूम होगी। कारण, कोई व्यक्ति यह पसन्द नहीं करता कि आप उसकी योजनाओं, रहन सहन के तरीकों या आदतों में हस्तक्षेप करें।

मान लीजिये, आप दूसरे के परिवार में मेहमान की हैसियत से जाते हैं। उसका कमरा, चीजों का इधर उधर रखना, कमरों में होने वाला कार्य, सामान, या उपयोग आपको पसन्द नहीं है। आप उसमें कुछ सुधार कराने के इच्छुक हैं। आप चाहते हैं, अमुक कमरे को स्टोर बनाइये, अमुक में बैठक रखिये, अमुक स्थान पर गाय-भैंस इत्यादि पशु बाँधा कीजिये, अमुक स्थान पर रसोई रखिये, या कुटी-सानी किया कीजिये—इन तर्कपूर्ण सलाहों के सम्बन्ध में स्मरण रखिये कि ये दूसरे व्यक्ति को मान्य नहीं हैं। आपको चाहे कितनी ही भली ये बातें प्रतीत होती हों, किन्तु दूसरा व्यक्ति कोई भी सलाह या योजना न मानेगा।

प्रत्येक व्यक्ति अपनी बुद्धि सर्वश्रेष्ठ मानता है :- मनोविज्ञान का यह विषय है कि बिना चाही हुई राय, आचरण योग्य बातें, शिक्षा, सम्मति, योजनाएँ या आलोचनाएं दूसरा कोई भी पसन्द नहीं करता, चाहे वह कितनी ही श्रेष्ठ क्यों न हो। दूसरे की योजना या राय स्वीकार करने में हमारे “अहं” को चोट लगती है और हम अपनी हेठी समझते हैं। अपने पराजय का भाव किसी को पसंद नहीं आता।

अनेक बार इसी बात को लेकर छोटे मोटे झगड़े उठ खड़े होते हैं। पिता पुत्र को कुछ बात, आचरण योग्य सिद्धान्त, अनुभव से निकली हुई बात समझाता है, नया खून उसे आचरण में नहीं लाता, पिता बुरा मानता है, पुत्र घर छोड़ कर पृथक हो जाता है।

अफसर क्लर्क को कुछ सुझाव देता है। लेकिन क्लर्क अपनी पुरानी आदतों को छोड़ नहीं पाता। संघर्ष होता है, और क्लर्क नौकरी छोड़ कर पृथक हो जाता है।

अध्यापक या प्रोफेसर विद्यार्थी को कुछ सुमति देता है; अध्यापक, मनन, शब्दों को याद करो, कुछ लिखने सीखने के विषय में कहता है किन्तु विद्यार्थी उसकी नहीं सुनता। फल, अशिष्टता या स्कूल कालेज छोड़ देना होता है।

सास या पति-पत्नी के आचरण में कुछ खराबियाँ निकालते हैं। “वह काम नहीं करती है, ठीक समय पर उठती नहीं है, आज्ञा पालन नहीं करती है, इसे भोजन बनाना नहीं आता है। यह अपने पीहर की बाबत ही सोचा करती है।” आदि आलोचनाएँ पत्नी को अप्रिय लगती हैं। ये निषेधात्मक संकेत हैं। इन्हें देने वाला पति और सास कभी नई बहू को नहीं सुधार सकते।

अपना अनुभव ही स्थायी रहता है :- जो जैसे रहता है, वैसे ही रहने में उसे अधिक से अधिक सुख और आत्म संतोष होता है। मनुष्य दूसरों के अनुभवों से लाभ नहीं उठाता। उसे दूसरे की विचारधारा अपनाने में आन्तरिक सन्तोष नहीं होता। अपने अनुभव का ज्ञान ही स्थायी लाभ करता है।

इसी प्रकार जो चीजें किसी को स्वयं बिना श्रम के मुफ्त में प्राप्त हो जाती हैं, उनके प्रति पाने वाले कभी सतर्क नहीं होते, न मूल्य ही समझते हैं। दूसरे की दी हुई चीजों में मनुष्य का “अहं”नहीं प्रविष्ट होता। “अहं” का लगाव न होने के कारण वे वस्तुएँ उसके व्यक्तित्व का एक अंश नहीं बन पाती।

पिता या ससुराल से पाई हुई बिना श्रम की वस्तुएँ कभी पुत्र या दामाद के पास नहीं टिकतीं, न उसका आदर प्राप्त करती हैं। धीरे-धीरे वे उसके बिना काम में आये हुए निकल जाती हैं, या विनष्ट हो जाती हैं। इसके विपरीत उसी पुत्र या दामाद की स्वयं बनाई या खरीदी हुई साधारण से साधारण वस्तु भी उसी का आदर प्राप्त करती है, अधिक दिन टिकती है, वह उस पर गर्व करता है। एक पुस्तक या मासिक पत्र के प्रति एक व्यक्ति जितना सतर्क और जागरुक है, दूसरे के लिए वह कागज का एक ढेर मात्र है।

एक विद्वान एक ग्राम में गये तो अनेक व्यक्ति उनके चारों ओर एकत्रित हो गये। विद्वान को अपनी विद्वता का गर्व था लेकिन वहाँ उससे जो प्रश्न पूछे गये, वे ये थे—

“आपकी क्या आमदनी है? आपने कितना रुपया जोड़ रखा है? आपकी पत्नी के पास तो बहुत से गहने होंगे? आपके पास कितने मकान हैं?”

किसी ने उसकी विद्वत्ता की परवाह न की, दूसरी ओर विद्वान् ने पूछा—

‘आप सज्जनों में कौन कौन राजनीति, अर्थशास्त्र या अध्यात्म को समझता है? आपकी समाज की रूढ़ियों के विषय में क्या क्या धारणाएँ हैं? राजनैतिक पुनः निर्माण की बाबत आपकी क्या क्या योजनाएँ हैं?’

ये प्रश्न ग्रामीणों तथा अशिक्षितों के लिए कुछ अर्थ नहीं रखते थे। दोनों की दृष्टियों में एक दूसरा मूर्ख था।

केवल सुझाव दीजिये :- यही बात संसार की अन्य रुचियों तथा मान्यताओं के विषय में हैं। अच्छा से अच्छा ज्ञान लोगों को अप्रियकर प्रतीत होगा। उत्तमोत्तम धाराएँ फेंक दी जायेंगी। यदि दूसरों के कमरों की वस्तुओं को आप अपनी रुचि के अनुसार जमावेंगे, तो वे नापसन्द की जायेंगी। यदि उग्रता पूर्वक आप अपने विचार दूसरों के ऊपर थोपेंगे, सख्ती करेंगे, तो दूसरा आपके हस्तक्षेप को अनुचित समझेगा, बुरा मानेगा और आप सदा के लिए उसकी मित्रता या स्नेह को खो बैठेंगे।

दूसरों के रहन सहन में हस्तक्षेप न करें। उनके विचारों को यकायक नहीं परिवर्तित किया जा सकता। दूसरों का सुधार करने का प्रयत्न अनेक बार कटुता और कलह का कारण बनता है।

घरों तथा परिवारों में जो जैसे रहता, उठता, बैठता, सोता, जागता है, उसको वैसे ही रहने देने में वह सबसे अधिक सुख-शान्ति का अनुभव करता है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी बुद्धि तथा योग्यता को सर्वोपरि समझता है। अपनी अक्ल के सामने वह किसी दूसरे की बात या सुझाव नहीं मानना चाहता।

गुप्त मन में संस्कारों का निर्माण एक प्रकार के मानसिक मार्ग उत्पन्न करता है। जैसे गाड़ी के चलने से लकीरें बनती हैं, वैसे ही ये मानसिक लकीरें बना करती हैं। जिस धीमी गति से इनका निर्माण होता है, उसी धीमी रफ्तार से इन्हें हटा कर नये संस्कारों को जमाया जा सकता है।


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