‘ब्रह्म तेजो बलं बलम्’

August 1941

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विश्वामित्र तब तक एक क्षत्रिय राजा थे। उनका प्रचंड प्रताप दूर-दूर तक प्रख्यात था। शत्रुओं की हिम्मत उनके सम्मुख पड़ने की न होती थी। दुष्ट उनके दर्प से थर-थर काँपा करते थे। बल में उनके समान दूसरा उस समय न था।

एक दिन राजा विश्वामित्र शिकार खेलते-खेलते वशिष्ठ मुनि के आश्रम में जा पहुँचे। मुनि ने राजा का समुचित आतिथ्य-सत्कार किया और अपने आश्रम की सारी व्यवस्था उन्हें दिखाई। राजा ने नन्दिनी नामक उस गौ को भी देखा, जिसकी प्रशंसा दूर-दूर देशों में हो रही थी। यह गौ प्रचुर मात्रा में और अमृत के समान गुण दूध तो देती ही थी, साथ ही उसमें और भी दिव्य गुण थे, जिस स्थान पर वह रहती, वहाँ देवता निवास करते और किसी बात का घाटा न रहता। सुन्दरता में अद्वितीय ही थी।

राजा विश्वामित्र का मन इस गौ को लेने के लिए ललचाने लगा। उन्होंने अपनी इच्छा मुनि के सामने प्रकट की, पर उन्होंने मना कर दिया। राजा ने बहुत समझाया और बहुत से धन का लालच दिया पर वशिष्ठ उस गौ को देने के लिए किसी प्रकार तैयार न हुए। इस पर विश्वामित्र को बड़ा क्रोध आया। मेरी एक छोटी सी बात भी यह ब्राह्मण नहीं मानता। यह मेरी शक्ति को नहीं जानता और मेरा तिरस्कार करता है। इन्हीं विचारों से अहंकार और क्रोध उबल आया। रोष में उनके नेत्र लाल हो गये। उन्होंने सिपाहियों को बुलाकर आज्ञा दी कि ‘जबरदस्ती इस गौ को खोल कर ले चलो’ नौकर आज्ञा पालन करने लगे। वशिष्ठ साधारण व्यक्ति न थे। उन्होंने कुटी से बाहर निकल कर निर्भयता की दृष्टि से सब की ओर देखा। ‘अकारण मेरी गौ लेने का साहस किसमें है, वह जरा आगे तो आवे। यद्यपि उनके पास अस्त्र-शस्त्र न थे, अहिंसक थे, तो भी उनका आत्मतेज प्रस्फुटित हो रहा था। सत्य पर आरुढ़ और ईश्वर का दृढ़ विश्वासी पुरुष इतना आत्म तेज रखता है कि उसके सामने बड़े-बड़ों को झुकना पड़ता है। घर के मालिक एक बच्चे के खाँस देने मात्र से बलवान चोर के पाँव उखड़ जाते हैं। विश्वामित्र और उनके सिपाहियों की हिम्मतें पस्त हो गईं। उन्हें लगा कि उनका सारा बल पराक्रम बिदा हो गया है।

विश्वामित्र विचार करने लगे। भौतिक वस्तुओं का बल मिथ्या है। तन, धन की शक्ति बहुत ही तुच्छ, अस्थिर और नश्वर है। सच्चा बल तो आत्मबल है। आत्मबल से आध्यात्मिक और पारलौकिक उन्नति तो होती ही है, साथ ही लौकिक शक्ति भी प्राप्त होती है। मैं इतना पराक्रमी राजा-जिसके दर्प को बड़े-बड़े शूर सामन्त सहन नहीं कर सकते। इस ब्राह्मण के सम्मुख हतप्रभ होकर बैठा हूँ और मुझ से कुछ भी बन नहीं पड़ रहा है। निश्चय ही तन बल, धनबल की अपेक्षा आत्मबल अनेकों गुनी शक्ति रखता है।

उन्होंने निश्चय कर लिया कि भविष्य में वे सब ओर से मुँह मोड़ कर आत्मसाधना करेंगे और ब्रह्म तेज को प्राप्त करेंगे। ब्रह्म तेज पर वे इतने मुग्ध हुए कि अनायास ही उनके मुँह से निकल पड़ा कि-’धिग् बलं, क्षत्रिय बलं, ब्रह्म तेजो बलं बलम्’ क्षत्रिय बल तुच्छ है, बल तो ब्रह्म तेज ही है।

विश्वामित्र ने घोर तपस्या की और समयानुसार ब्रह्म तेज को प्राप्त कर लिया।

आजकल हमारा आधार आनन्द मंगल है। इससे प्रतीत होता है कि हम लोग निर्बल होकर कायरता में गिर रहे हैं।

कथा-


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