महापुरुष विलियम कावेट किस प्रकार गरीबी और कठिनाइयों का जीवन बिताते हुए भी प्रकाण्ड पंडित बने और अपने कष्टमय जीवन को समुन्नत बना सके। इसका वर्णन करते हुए वे स्वयं लिखते हैं -
मैंने आठ वर्ष हल जोता है। मेरा मन पढ़ने के लिये बहुत ही व्यग्र रहता था इसलिए एक दिन मैं अपने गाँव से भाग खड़ा हुआ और लंदन आया, बहुत दिनों तक कागजों की नकल करके पेट पालता रहा। जब मुझे छः पैसा प्रतिदिन मजूरी मिलती थी तो भी मैं व्याकरण सीखता रहा। आखिर मैंने सिपाहियों में नौकरी करली। यहाँ कुछ पढ़ने लिखने की सुविधा न थी तो भी परिस्थितियों को मैंने अपने अनुकूल बनाया। झोले से अलमारी का काम और लकड़ी के तख्ते को गोद में रख कर मेज का काम चलाता था। लालटेन जलाने के लिये तेल खरीदने को पैसे नहीं बच पाते थे इसलिये आग जला कर उसके प्रकाश से काम निकालता। कागज स्याही के लिये, आटे में से पैसे बचाने पड़ते थे, इसलिए कई बार आधे पेट खाकर सो जाता।
हर सिपाही को प्रति सप्ताह दो पैसे जेब खर्च के लिए मिलते थे। मैं इन पैसों को पढ़ने की चीजें खरीदने में खर्च करता। एक बार कल के भोजन के लिए एक पैसा बचाकर मैंने जेब में रख लिया था। दूसरे दिन भोजन के समय जब जेब में हाथ डाला तो देखा कि पैसा कहीं गिर गया है, और जेब खाली है। भूख के मारे मेरा दम निकल रहा था, पर करता क्या? बिछौने पर सिर रख कर बच्चों की तरह बेकली के आँसू बहाता रहा।
जब मैंने इतनी कठिनाइयों में विद्याध्ययन किया है, और इतनी विपरीत परिस्थितियों को पार करते हुए उन्नति कर सका हूँ तो मैं पूछता हूँ इस दुनिया में कौन लड़का ऐसा है या होगा जो काम न करने के लिए कोई बहाना तलाश करे।