समय बीत गया, अब हम बुड्ढे हो चले क्या करें, अब किस काम को पूरा कर सकते हैं। ऐसा कहने वालों के पास समय, शक्ति अथवा साधनों का अभाव नहीं होता, असल में उनमें उत्साह की कमी होती है। उत्साही मनुष्य के लिये अधिक उम्र होने का प्रश्न नहीं उठता, वह सीखने के लिए विद्यार्थी और काम करने के लिए नौजवान तब तक बना रहता है, जब तक कि वह जीवित रहता है।
डा. जाँनसन ने अपनी सर्वोत्तम रचना, ‘कवियों की जीवनिया अपनी 78 वर्ष की उम्र में लिखीं। डेनियल डेको जब 58 वर्ष का था, तो उसने अपनी ‘राबिन्सन क्रूसो’ पुस्तक छपाई। 83 वर्ष की उम्र में न्यूटन ने अपनी पुस्तक ‘प्रिंसिपिया’ के नये वर्णन लिखे। प्लेटो लिखते-लिखते मरा, मृत्यु समय में वह 80 वर्ष से भी अधिक उम्र का था। टामस्कार जब 86 वर्ष के थे तो उन्होंने हिब्रु भाषा को पढ़ना शुरू किया। 70 वर्ष की उम्र में गेलीलियो ने एक वैज्ञानिक ग्रन्थ लिखा। जेम्सवाल्ट ने 85 वर्ष की आयु में जर्मन भाषा पढ़ी। उम्वाल्ट ने अपना ग्रन्थ ‘कासमाम’ 60 वर्ष की उम्र में पूरा किया। एलिविट उस समय पाठशाला में भर्ती हुआ जब उसकी दाढ़ी मूँछें निकल आई थीं, आखिर उसने ‘ग्रेजुएट’ की उपाधि प्राप्त कर ही ली। महाकवि लागफेलो, टेनीसन, ह्वीठियर आदि ने अपनी उत्तम पुस्तकें 70 वर्ष बाद पूरी कीं। 80 वर्ष की उम्र में ग्लेडस्टन, बेलिंगटन और बिस्मार्क इतना काम करते थे, जितना 25 वर्ष का नौजवान मुश्किल से कर सकता है।
उत्साह एक अग्नि है, जो हमारे कार्यों को चलाने के लिये भाप तैयार करती है। यदि लोग समझ लें कि हममें कितनी शक्ति है और उस शक्ति का उत्साहपूर्वक उपयोग करें तो गजब के काम करके दिखा सकते हैं, परन्तु अड़ियल घोड़े के स्वभाव के मनुष्य अपनी शक्ति को निराशा और निरुत्साह पर बलिदान करते रहते हैं।