आओ, गंगा में जौ बोवें

August 1941

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मनुष्य केवल आहार निद्रा और मैथुन के लिये ही जीवित नहीं है। यदि धन और भोगों की ही आवश्यकता उसके लिए पर्याप्त होती तो वह बहुत नीची श्रेणी का प्राणी कहलाता। जिन महान प्रयत्नों और ईश्वर की महती अनुकम्पा के कारण यह सुर-दुर्लभ मनुष्य शरीर प्राप्त हुआ है उनका तात्विक कारण यह है कि वह अपने उत्कर्ष के लिए इस अलभ्य अवसर का अच्छे से अच्छा उपयोग करके अपना भावी पथ निर्माण करे।

जीवन एक यात्रा है। हम एक महान लक्ष की ओर बढ़ने के लिए जीवन धारण करते हैं और उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए बहुत वर्षों तक जीते हैं। कुछेक जीवों को छोड़ कर सृष्टि के शेष समस्त प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य को इसलिए ईश्वर अधिक समय तक जीने देता है कि वह अपनी उन्नति के लिए इतने दिनों में पर्याप्त प्रयत्न कर लें। किन्तु हाय! हम कितने अभागे हैं जो कुच काँचन जैसे साधारण साधनों में ही पूरी तरह उलझ जाते हैं इस बात को बिलकुल ही भुला देते हैं कि हम कौन हैं। और किस कारण इस जीवन को कितनी कठिनाइयों के साथ प्राप्त करके उस को धारण किये हुए हैं।

भवसागर के अज्ञानाँधकार में मनुष्य बिलकुल ही अपने मार्ग को पहचानने में असमर्थ न हो जाय इसलिए प्रभु ने उसे एक दीपक देकर भेजा है जिसका नाम है ज्ञान! विवेक की सहायता से मनुष्य यदि जरा देखना चाहे तो उसे दिखाई पड़ता है कि उसका मार्ग क्या है और उसे क्या करना चाहिए। संसार के महापुरुष चिल्ला-चिल्ला कर हमें सचेत करते हैं कि मनुष्यों, अन्धकार की ओर नहीं प्रकाश की ओर चलो “तमसो मा ज्योतिर्गमय” अज्ञान में मत भटको, ज्ञान का आश्रय पकड़ो। इसी से तुम्हारा कल्याण होगा। जब मन के ऊपर कुविचारों और माया-मोह का पर्दा पड़ा होता है तब भी विवेक बुद्धि भीतर पुकार कर कहती है ‘आत्मन्! तेरा यह क्षणिक जीवन नष्ट हुआ ही चाहता है, जो कुछ करना हो जल्दी कर लो, फिर अवसर हाथ न आवेगा। यदि पेट ही भरना था तो अन्य योनियाँ भी प्राप्त थीं, प्रभु की महान अनुकम्पा से प्राप्त हुए इस जीवन को यों ही नष्ट मत होने दो, कुछ करो, अन्यथा मृत्यु मुख फाड़े सामने ही खड़ी है, न जाने दूसरा दिन आवे या नहीं।” अन्दर ही अन्दर यह आवाज हर मनुष्य के उठती है किन्तु कितने हैं जो उस आवाज को साफ कानों से सुनते हैं या सुन कर उस पर ध्यान देते हैं?

कई मनुष्य अपने भविष्य का चिन्तन भी करते हैं और उसके लिए जैसे-तैसे थोड़ा प्रयत्न भी करते हैं परन्तु अपने कर्तव्य को ठीक चुनने में गड़बड़ा जाते हैं और चक्करदार रास्तों में उलझ कर अपने बीज को ऐसी पथरीली भूमि पर बोते हैं जहाँ वास्तविक फल प्राप्त नहीं होता। तत्वज्ञानी योगी इस बात की खोज करते रहते हैं कि मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य क्या है। अपनी अनेक शंकाओं और असंख्य तर्कों के साथ इस देश के तत्वदर्शियों और जीवन मुक्त महात्माओं ने अनेक अनुसंधानों के पश्चात् यही निश्चित कर पाया है कि मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य आत्मकल्याण करना है। आत्मकल्याण का मार्ग यह है कि बुरे विचार और कर्मों को त्यागता हुआ हृदय को पवित्र बनावे इस पवित्र हृदय में ही परमात्मा का दर्शन होता है। जैसे-जैसे अपनी आत्मा निर्दोष होती जाती है वैसे ही वैसे उसमें भगवान के दिव्य स्वरूप की झाँकी स्पष्ट रूप से होती जाती है। कोई मनुष्य बुरे विचारों को धारण किये हुए आत्मोन्नति करना चाहे तो यह असंभव है। यह तो हुई आत्मसाधना की बात।

आत्मसाधना के अतिरिक्त शरीर, धर्म और बच रहता है। यह विभाजन हम समझने की सरलता की दृष्टि से कर रहे हैं, अन्यथा शारीरिक कर्मों और आत्म-साधना के दो भाग नहीं किये जा सकते। जैसे भोजन से रक्त और रक्त से वीर्य बनता है, वैसे ही शारीरिक कर्मों से विचार और विचारों से आध्यात्मिक स्थिति उत्पन्न होती है। यदि कोई यों भी कहना चाहे कि शुभ कर्मों से आत्म कल्याण होता है, तो भी एक ही बात है। मन और विचारों का पवित्र करना ही केन्द्र बिन्दु है, इसी में सफलता प्राप्त करने से मनुष्य जीवन का वास्तविक उद्देश्य पूरा हो सकता है। यही ताली है। शास्त्र कहता है मन एवं मनुष्याणाँ कारण बन्धमोक्षयोः।

शरीर से हमें ऐसे शुभ कर्म करने में सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिये जिनसे हृदय और विचारों में पवित्रता उत्पन्न हो। ऐसे कार्यों में ‘देना’ सर्वश्रेष्ठ है। इससे उत्तम कर्म विधान आज तक किसी ने खोज नहीं निकाला। यह प्रत्यक्ष देखिए कि अपनी वस्तु किसी को दे देने पर हम हलके हो जाते हैं, और यदि दूसरों से लें तो लद जाते हैं-भारी हो जाते हैं। निखिल विश्व में वही कर्म पुण्य की श्रेणी में रखे गये हैं, जिनमें लेना कम और देना अधिक होता है। उपनिषद् की कथा है कि जब देव दानव मनुष्य, अपने लिए श्रेष्ठ कर्म पूछने ब्रह्मा के पास गये तो ब्रह्मा ने उन्हें ‘द’ शब्द का उपदेश किया। सचमुच ‘देना’ प्रभु की सर्वश्रेष्ठ पूजा है। उनकी सृष्टि को यदि हम निरंतर वह सब देते रहें जो हमारे पास है, तो निश्चय ही हम मनुष्य जीवन को सफल बनाने योग्य कर्तव्य करते हैं।

क्या दें? जो निर्धन है, वे कहते हैं हमारे पास देने को क्या है? जिनके पास धन है, वे उसे अपनी शेखी शान के कामों में खर्च करके दान का संतोष कर लेते हैं। यथार्थ में देने योग्य सब से उत्तम वस्तु है “ज्ञान”। मनुष्यों को इसी वस्तु की आवश्यकता है। ज्ञान के अभाव में ही सारा संसार नारकीय यातनाओं में झुलस रहा है। संपत्ति और बुद्धि इस युग में मनुष्यों के खून की कमाई है पर इससे लाभ कुछ नहीं हुआ जितने जितने दाँत पैने हुए उतनी ही उतनी काट खाने की शक्ति बढ़ गई। आज एक देश दूसरे देश को, एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को काट खाने के लिए दौड़ रहा है। इस लिये संपत्ति और बुद्धि का दान करने से काम न चलेगा। सदावर्त खोल देना अच्छा है, पर दूसरे ही दिन वह मनुष्य मल मार्ग से उसे निकाल कर फिर वैसा ही भूखा बन जावेगा। प्याऊ खोल देने से पानी की प्यास केवल कुछ घंटे के लिए बुझेगी। इन दोनों का हम विरोध नहीं कर रहे हैं, यह भी कर्तव्य हैं परन्तु अति उत्तम दान “ज्ञान दान” है। इसके लिए धनी या निर्धन का अन्तर कुछ बाधा नहीं डालता यदि हम दूसरों को सद्विचार बतावें, उनके जीवन का वास्तविक तत्व सिखलायें, कुछ काँचन की निस्सारता उनके सामने खोल कर रखें और समझावें कि प्रेम एवं सेवा ही जीवन का सार है तो इससे संसार का बड़ा उपकार हो सकता है। निरन्तर प्रयत्न करने पर यदि कोई किसी दूसरे एक भी मनुष्य का जीवन सुधार दे तो समझना चाहिए कि उसने एक बेल बो दी जिसके मीठे फल और बीज फिर इधर-उधर फैलेंगे। संसार में सद्ज्ञान का प्रसार हुए बिना कलह, पाप, दुराचार, हत्या, चोरी, अशान्ति आदि का अन्त नहीं हो सकता चाहे कितने ही भौतिक प्रयत्न किये जाए। जब तक मनुष्य के मन में शैतान बैठा रहेगा तब तक अन्य प्रकार के दान उसका कुछ भी भला न कर सकेंगे। इसलिए कोई विवेकशील महानुभाव यदि ऐसा दान करते हैं, जिससे संसार की सच्ची सेवा हो, दूसरों का सच्चा उपकार हो, और उसके बदले में उसे सच्ची आत्म शान्ति मिले तो अब तक के समस्त तत्वज्ञों के इस वचन को हम उद्घोषित करते हैं- “ज्ञान दान दीजिये ! संसार में सद्ज्ञान का प्रचार कीजिये।” इस दान का इतना फल तो निश्चय है कि इसका जन्म मनुष्य योनि में और किसी विद्वान परिवार में ही होता है, क्योंकि ज्ञान के दान का फल ज्ञान ही है। और यह फल मनुष्य योनि के अतिरिक्त अन्य कोई ज्ञान योनि नहीं है। इसलिये ज्ञान दान करने वाला कदापि नीच योनि में जन्म नहीं लेता।

सद्ज्ञान का प्रचार करने के लिए यह आवश्यक नहीं है, कि हर मनुष्य बड़ा भारी विद्वान, वक्ता या लेखक ही हो। संसार में अब तक अनेक महापुरुष हो चुके हैं, जिन्होंने युगयुगान्तरों की तपस्या से जो आत्मशक्ति प्राप्त की थी उनके फलस्वरूप उत्पन्न हुए ज्ञान को जनता के समक्ष रखा था इस ज्ञान को-उनके वचनों को उनकी पुस्तकों को, उनके मन्तव्यों को हम जन-साधारण में फैलाते रहकर एक श्रेष्ठ कर्तव्य करते रह सकते हैं। प्राचीन ऋषियों से लेकर अवतारों और महात्माओं ने जो उपदेश किये हैं, उनको भी हम जनता तक पहुँचाते रहें तो यह बीज कहीं न कहीं जमेगा ही। हिन्दू धर्म गंगा जी में जौ बोने का उपदेश करता है। क्योंकि वह जौ पानी की लहरों के सहारे कहीं न कहीं उपजेंगे ही और जहाँ उपजेंगे वहाँ किसी न किसी का भला होगा ही। उतावले लड़कों की तरह यह न देखना चाहिए कि कल जिसे उपदेश दिया गया था आज महात्मा बना या नहीं? विश्वास रखिये यदि आपने सच्चे हृदय से सन्देश पहुँचाया है, तो उन महात्माओं की दिव्य वाणी मनुष्य के हृदय में संस्कार जमावेगा ही और उसका कभी न कभी फल मिलेगा ही। अपने विचारों एवं वचनों से अथवा महापुरुषों की दिव्य वाणियों द्वारा संसार में ज्ञान मार्ग का प्रचार करना यह एक ऐसा कर्म है, जो विचारों को पवित्र करता है, दूसरा जन्म विद्वान परिवार में प्रदान करता है, आत्म कल्याण का मार्ग खोलता है, और एक दिन प्रभु के साक्षात दर्शन करा देता है। यह सरल और सत्य धर्म इस युग की आवश्यकता को देखते हुए बहुत उत्तम कहा जा सकता है।


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