ईश्वर का अस्तित्व

August 1941

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(महात्मा गाँधी)

जो आदमी स्वयं ही ईश्वर की उपस्थिति की परीक्षा करना चाहे वह जीवंत श्रद्धा से उसका अनुभव कर सकता है और चूँकि श्रद्धा और विश्वास बाहरी प्रमाणों से सिद्ध नहीं किया जा सकता, इसलिये, सब से सुरक्षित मार्ग है संसार के नैतिक शासन में विश्वास रखना और इसलिये नैतिक नियम-सत्य और प्रेम के नियम की सर्वोपरिता में श्रद्धा रखनी। जहाँ पर सत्य और प्रेम के विरुद्ध हर एक वस्तु को तुरंत ही इन्कार कर देता हो, वहाँ पर श्रद्धा या विश्वास का सहारा ही सबसे अधिक सुरक्षित है। मगर ईश्वर के अविश्वास की दलीलों का जवाब नहीं दिया जा सकता। मैं कबूल करता हूँ कि उन्हें इन पंक्तियों से विश्वास नहीं दिला सकता। श्रद्धा बुद्धि से परे है। मैं उन्हें इतनी ही सलाह दे सकता हूँ कि आप असंभव काम करने की कोशिश मत कीजिये। युक्तियों के जरिये मैं दुनिया में बुराइयों के अस्तित्व का कारण नहीं समझ सकता। यह करने की चाहना करना तो ईश्वर की ही बराबरी करनी है। इसलिये मैं बुराई को बुराई मान लेने की नम्रता रखता हूँ और ठीक इसीलिये मैं ईश्वर को बहुत ही सहनशील और धैर्यशाली कहता हूँ कि वह संसार में बुराइयों को भी रहने देता है। मैं जानता हूँ कि उसमें कुछ बुराई नहीं है, और तो भी अगर बुराई होवे तो वह उसका सृष्टा है, मगर तो भी उससे अछूता रहता है। मैं यह भी जानता हूँ कि अगर मैं ठेठ मौत तक का खतरा झेल कर भी बुराइयों के विरुद्ध युद्ध नहीं करूंगा तो मैं परमात्मा को कभी नहीं जान सकूँगा। मेरी श्रद्धा का कवच तो मेरा अपना ही मर्यादित और नम्र अनुभव है। मैं जितना ही शुद्ध विकार-रहित बनने का प्रयत्न करता हूँ मुझे परमात्मा उतना ही निकट जान पड़ता है। आज तो मेरी श्रद्धा महज़ नाम की ही है मगर जिस दिन वह हिमालय पहाड़ के समान अटल हो जायगी, हिमालय की चोटियों पर के बर्फ के समान ही चमकीली और शुभ्र हो जायगी, उस दिन मुझमें और कितनी शक्ति होगी? तब तक मैं तर्क करने वालों को यही कहूँगा कि आप भी न्यू मैन के समान परमात्मा का भजन कीजिये, जिससे अपने अनुभव से गाया था किः-

चारों ओर फैले हुये अन्धकार में,

हे प्रेमल ज्योति मुझे रास्ता बता, मुझे रास्ता बता।


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