परमार्थ में स्वार्थ

August 1941

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(श्री धर्मपाल जी बरला)

किसी महापुरुष का वचन हैः-

मनसा वाचा कर्मणा जो नर एक समान

तामें और भगवान में, किंचित भेद न जान

इस पद से हमें यह शिक्षा मिलती है, कि मनुष्य जैसा मन से सोचे वैसा ही वाणी से कहे और जैसा वाणी से कहे वैसा ही कार्य रूप में करके दिखावे-यही सत पुरुषों के कार्य करने का मार्ग है। उनके यह तीनों स्थान एकता और सत्य की डोरी से बंधे हुए होते हैं, तभी उनके हृदय मन्दिर में भगवान आ विराजते हैं, जिनकी शक्ति से हर कठिन से कठिन कार्य आनन फानन में उनके द्वारा होता दिखाई देता है, जिसे देखकर दूसरे व्यक्ति जिनके मन, वाणी और कार्य में एकता नहीं है आश्चर्य में भर दाँतों में अंगुली दबाते हैं। इसी गुर को काम में न लाकर मनुष्य पापों की दलदल में फंसते रहते हैं, और अपनी हर प्रकार की उन्नति में स्वयं बाधा पहुँचाते हैं। हम जो कुछ भी करते है, वह सर्वप्रथम मन से होता है।

उपरोक्त पद में भी मनसा (मन) शब्द कवि ने प्रथम इसी लिए रक्खा है। कार्य का प्रथम स्थान मन है। आध्यात्मिक उन्नति के लिए तो मन का पवित्र करना अति आवश्यक कहा गया है? मन को पवित्र करने के लिए वेद में भगवान से अनेक प्रार्थना की गई है। मन से जैसा हम सोचते हैं, वास्तव में कार्य की वही आकृति है। पाप पुण्य का स्थान भी हमारा मन है। हानि, लाभ, सुख दुःख भोग वश प्राप्त होते हैं। ऐसा महात्मा तुलसी दासजी ने रामायण में कहा है। मनुष्य किसी का हानि लाभ नहीं कर सकता। यदि हम दूसरे को अपने मन से हानि पहुंचाना सोचते हैं, जो कि भोगवश उसको पहुँचना अवश्य थी, तो इस प्रकार मन से उसके लिये बुरा चाह कर हमने अकरण पाप मोल ले लिया, क्योंकि हानि तो हमारे बिना चाहे भी अवश्य उसे होती। इसी प्रकार यदि हम उन में से किसी की भलाई चाहते हैं और भलाई उसके भोगवश उसे मिलती है, तो हम अनायास ही पुण्य के भागी बन जाते हैं, इसलिये मन से सदा दूसरों का कल्याण ही सोचना श्रेष्ठ और हितकर है। दूसरों का हानि, लाभ विचारना अपना ही हानि लाभ विचारना है, जो दूसरों का लाभ सोच रहे हैं वह अपना लाभ ही कर रहे हैं। इसके द्वारा उनका मन शुद्ध पवित्र बन रहा है, मन शुद्ध होकर प्रभु के पवित्र प्रेम को प्राप्त करेगा, जो मुक्ति जैसे दुर्लभ सुख की प्राप्ति का हेतु होगा। अतएव मन से सदैव दूसरों का कल्याण सोचिये। होगा तो वही जो होना है, अकारण क्यों बात-बात में पापी बना जाय।


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