मानवजन्म और योग तत्व

August 1941

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(ठाकुर बलवीर शाही रेणु टिंहरी)

मानव जन्म क्यों हुआ?- यह प्रश्न जीवन की सब से बड़ी और पहली पहेली है। इस में सन्देह नहीं कि इस पहेली के निराकरण करने के लिये जाने कब से सारे विश्व भर के विभिन्न देशों में अनेक महात्माओं का आविर्भाव होता आया है। जिसने इसके जितने अंश तक गवेषणा पूर्ण विचार विमर्श किया एवं जितनी इसकी अपरोक्तनुभूति प्राप्त की उसने उतनी ही सीमा तक उसे सत्य रूप से अभिव्यक्त किया है। अतएव इस नानात्व मय संसार में इसी हेतु नाना मत, वाद, संप्रदाय, एवं पन्थों का आविर्भाव हुआ है और होता आ रहा है। फलतः यह नहीं कहा जा सकता कि कौन पथ इस पहेली के पूर्ण रूप का साक्षात्कार करा देने में सक्षम है, और कौन नहीं! वस्तु अपरोक्षानुभूति ही इस विषय में सत्य की कसौटी है-यह निर्विवाद है।

सृष्टि में हम देखते हैं कि अनन्त सागर का अपरिमित जल सूर्य की प्रखर किरणों से प्रतप्त होकर वाष्प रूप में परिणत हो जाता है। वह वाष्प वायु से उन्नत हुआ आकाश मण्डल में स्थिर होकर ‘बादल’ संबा को प्राप्त होता है। फिर वही बादल शीतल समीर से सम्पृक्त हुआ जल कणों के रूप में परिणत होकर भूमण्डल में गिर जाता है। वे जल-कण गिरिशिखर से निर्झर रूप में, नद रूप में, पुनः नदी रूप में होते हुए अन्ततः अपने उसी मूल स्रोत सागर में जाकर निज रूप को प्राप्त हो जाते हैं। जल-बिन्दु का यह अनादि क्रम अनन्तकाल से निरवच्छिन्न रूप से चला आ रहा है।

तद्वत् पूर्ण एवं अनन्त वर्णनातीत समष्टि चैतन्य से व्यष्ठि रुप चैयन्य की सृष्टि हुई है। इसी व्यष्टि चैतन्य की जीव संज्ञा है। जिस प्रकार उसकी परम क्रिया महाशक्ति भी अनादि और अनंत है। यह समष्टि पूर्ण चैतन्य स्वरुपतः निष्क्रिय है, किंतु जड़ नहीं वह तो सत्ता रूप से, साक्षीरूप से, सर्व-काल में, सर्व देश में, पदार्थ मात्र में नित्य रूप से विराजमान है। क्रिया मात्र तो वही परम क्रिया करती रहती है। यही परम क्रिया महामाया जीव की जननी है। भगवान् श्री कृष्ण गीता में इस तत्व को यों समझाते हैंः-

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम।

हेतुनानेन कौन्तेय! ज्गद् विपरिवर्त्तते॥

इस चराचर सृष्टि को उत्पन्न करने वाली महामाया प्रकृति ही कारण है। मैं तो उसकी इस क्रिया में अध्यक्ष (साक्षी मात्र) हूँ। इसी कारण हे कौन्तेय ! यह संसार गतिशील है और प्रति क्षण विशेष-2 परिवर्तनों को प्राप्त होता रहता है।

सत्व, रजस और तमस-इन तीनों गुणों से संयुक्त होने के कारण ही प्रकृति को त्रिगुणात्मिका, त्रिधाम जननी आदि कहा गया है। इन तीनों के उपादानत्व से यावत चराचर की सृष्टि होती है। सत्व, रजस, तमस, महत्तत्व, अहंकार, बुद्धि, चित्त, मन, पंचतन्मात्रा, पंच प्राण, पंच भूत, पंच ज्ञानेन्द्रिय, पंच कर्मेन्द्रियादि की क्रमशः सृष्टि होती हुई समस्त ब्रह्माँड का सृजन होता है। पराशक्ति महामाया वासना रूप से बीजाँकुरन्यायेन जीव के लगी रह कर जन्म-मरण, सुख दुःखादि अनंत द्वंद्वात्मक संसार-चक्र में उसे घुमाती रहती है।

यह सब क्यों और किस लिए ऐसा होता है? यही प्रस्तुत विषय का विशिष्ट सूत्र है। जीव और जगत की जो इस प्रकार की बंधन-कारिणी सृष्टि है, वह त्रिगुणात्मिका महामाया का विशुद्ध व्यष्टि चैतन्य पुरुष विशेष के निमित्त एक खेल है। किंतु यह खेल तब तक पूर्ण नहीं, जब तक जीव इस बंधन से निर्मुक्त न हो और वह स्वरूप को न प्राप्त हो जाय। इस खेल का वास्तविक अभीष्ट ही यह है कि वह प्रकृति के आवरणों का अतिक्रमण करता हुआ स्वाधिष्ठान रूप परम चैतन्य में पूर्णरूपेण विलीन हो सके। वह अपने को पहिचान सके, अन्त में वह जो है उसमें समरस हो सके,-यही मानव-जन्म का मूल प्रयोजन है।


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