(श्री ‘बिकल’ कविरत्न)
देखा ही नहीं है कभी, कैसा तेरा रूप−रंग,
जो कुछ सुना है वैसा, चित्र खींच लूँगा मैं।
विकल विभूति भल, जग में तलाश करूं,
मिल जाय उर से लगाय भींच लूँगा मैं॥
आशा की सुबेल कभी, जीतेजी न सूखने दूँ,
नयनों से नीर नित, बहा सींच लूँगा मैं।
देखना निकल कहाँ, जायगा तू चितचोर,
आँख में बसा है जब, आँख मींच लूँगा मैं॥
(2)
हो गया निराश आश, रही न किसी की अब,
भूल कर भी न जग, और मैं निहारुंगा।
आओ हृदयेश बैठ जाओ हृदयासन पे,
अश्रुविंदुओं से पद-पड़ा मैं पखारुंगा॥
पत्र पुष्प भी तो नहीं, पूजन के रहे नाथ,
भव्य भावनाओं की सुमाल गल डारुंगा।
पत्र पुष्प भी तो नहीं, पूजन के रहे नाथ,
भव्य भावनाओं की सुमाल गल डारुंगा।
निश दिन जलती जो, बिकल वियोग ज्वाल,
उससे तुम्हारी देव, आरती उतारुंगा॥