गृहस्थ योगी

August 1941

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(ले. पं. भोजराज शुक्ल, ऐत्मादपुर, आगरा)

गृहस्थ, जिसने धर्म परायण होकर काम, क्रोध, लोभ और मोह को वश कर लिया है, सच्चा योगी है। गेरुआ वस्त्र धारण करने वाला लोक में मान, बड़ाई तथा मोह रखने वाला पुरुष, सच्चा योगी नहीं कहा जाता। क्योंकि गृहस्थ, अपने समस्त व्यवहारों को निरन्तर करता रहता है, यदि उसका चित्त क्षीण वासना वाला है, तो वह योगी ही है। संन्यासी का चित्त यदि समाधि स्थान में चंचल है, तो वह चंचलता ब्रह्म में सावधान उन्मत्त के नृत्य के तुल्य है। यदि कोई संन्यासी अपने शिष्यों तथा शिष्याओं से सेवा कराते हैं, तो धर्मिष्ठ गृहस्थ को अपने पुत्रों तथा पुत्र वधुओं से सेवा कराने में क्या हर्ज है? गृहस्थाश्रमी सब कर्मों की फलासक्ति का त्याग कर समय विभाग द्वारा अर्थ, धर्म, काम का अनुष्ठान करते हुए ब्रह्मपरायण होकर मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं, तभी तो गृहस्थों के लिये पंच महायज्ञ का विधान बतलाया गया है। इन सबका त्याग करके मोक्ष के लिये साधना करना कष्ट साध्य है। किन्तु फल की कामना छोड़ के इन कर्मों को करते हुए अन्तःकरण की शुद्धि द्वारा निश्श्रेयस् प्राप्त करना चाहिये। देवऋण, पितृ ऋण और ऋषिऋण को चुका कर ही मनुष्य बन्धन-मुक्त हो सकता है। जो बिना ऋण चुकाये भाग निकलता है, वह अवश्य पकड़ा जाता है, उसे येन-केन प्रकारेण ऋण को चुकाना ही पड़ता है। एक जन्म में न सही, तो अनेक जन्मों में। तीनों ऋणों से मुक्त होने के पश्चात् जिस दिन वैराग्य हो उसी दिन संन्यास ले सकता है। बिना ज्ञान और वैराग्य के संन्यास लेना निषेध है। आज कल प्रायः ऐसे संन्यासी देखने में आते हैं, जो कि दमड़ी चमड़ी से लगे हुए हैं। भविष्य पुराण का वचन है।

मिष्टान्न कामै रल्पज्ञैर्लोलुपै र्वञ्चकैः कलौ।

ज्ञान वैराग्य ही नैस्तु, संन्यासोस्तं गमिष्यति॥

अर्थ-कलियुग में जिह्वा लोलुप, अल्पज्ञानी, लोभी, बञ्चक तथा ज्ञान, वैराग्य हीन पुरुषों के कारण संन्यास नष्ट हो जायगा। इसी कारण योगेश्वर श्री कृष्ण भगवान् कलियुग के आने से प्रथम ही अर्जुन को उपदेश कर गए हैं।

संन्यासः कर्म योगश्च, निश्श्रेयस् करावुभौ।

तयोस्तु कर्म संन्यासार्त्कम योगो विशिष्यते॥

अर्थ-यद्यपि संन्यास और कर्म योग समान निश्श्रेयस्कर हैं, तथापि मेरे विचार में संन्यास की अपेक्षा कर्म योग ही अधिक उत्तम है।

यज्ञ, दान, तप तथा कर्मों के अनुष्ठान से ही विद्वान पवित्र होते हैं, अतः इनको हेय न समझना चाहिये। फलेच्छा तथा आसक्ति को त्याग कर ही मनुष्य कर्मों को करे, इसी में उसका कल्याण है। अतएव कल्याणभिलाषी पुरुषों को चाहिये कि जैसे हो वैसे अपने हृदय से वासनाओं को दूर करें और कामासक्त पुरुषों की संगति से बचते रहें। कामी (आसुरी सम्पति) का पुरुष वही कहा जाता है, जो यह चाहता है कि पृथ्वी में जितना धन है, वह किसी प्रकार से मेरे ही पास आजाए, मैं सम्पूर्ण ऐश्वर्यों का भोगने वाला हो जाऊँ, मैं ही सब पर आज्ञा करने वाला होऊँ। मेरे पर आज्ञा करने वाला कोई न हो इत्यादि ऐसे विचार के पुरुषों से बचना चाहिए। दैवी सम्पत्ति के पुरुषों से प्रेम रख के इसी सम्पत्ति को सदैव धारण करें, वही गृहस्थ सच्चा योगी है।


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