थोथा ब्रह्मज्ञान

August 1941

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एक वैद्य अपनी जीविका के लिए एक नगर में पहुँचा। वहाँ उसने अपना औषधालय स्थापित किया। सैकड़ों व्यक्ति दवा लेने आते और लाभ उठाते, किन्तु जब वैद्य जी दवा के दाम माँगते तो वे ब्रह्मज्ञान का उपदेश देने लगते। कहते हम सब ब्रह्म हैं। आप और हम एक ही हैं। औषधि भी ब्रह्म रूप है। फिर ब्रह्म को ब्रह्म से क्या लेना देना?

उस नगर में थोथे ब्रह्मज्ञान का शब्दाडम्बर लोगों ने खूब रट लिया था और बाहर के आदमियों को मूर्ख बनाने के लिए उन्होंने यह अच्छा बहाना ढूंढ़ रखा था। अपने मतलब में तो चौकस रहते, किन्तु जब किसी दूसरे को कुछ देने का अवसर आता, तो ब्रह्मज्ञान की बात बना कर छुटकारा पा जाते।

वैद्य जी इन ब्रह्मज्ञानियों के मारे बड़े चकराए जब दवा लेने आवें, तब ब्रह्मज्ञानी बन जावें। वैद्य जी इस व्यवहार से बड़े दुखी हुए और अपना औषधालय बन्द करके अपने देश वापिस चले जाने की बात सोचने लगे। वैद्यजी सोच विचार में बैठे ही थे कि उस नगर के राजा का एक दूत उन्हें लिवाने आया। वैद्यजी की प्रशंसा दूर-दूर तक फैल चुकी थी। राजा ने भी उनके सम्बन्ध में कुछ सुना था। राजकुमार की बीमारी अब अन्य वैद्यों से अच्छी न हुई, तो राजा ने इन परदेशी वैद्य को बुलवाया।

दूतों के साथ वैद्यजी राजा के यहाँ पहुँचे। और राजकुमार की बीमारी का इलाज करने लगे। धीरे-धीरे रोग अच्छा होने लगा। एक दिन राजा ने वैद्यजी से कहा-कोई ऐसी दवा बनाइये जिससे राजकुमार जल्दी अच्छा हो जाय।

वैद्य को यह अवसर बड़ा अच्छा जान पड़ा, उसकी समझ में आ गया कि यही मौका ब्रह्मज्ञानियों से बदला लेने का है। वैद्य ने कहा-राजन, आपके राजकुमार एक दिन में बिलकुल चंगे हो सकते हैं, इस प्रकार की मैं एक दवा जानता हूँ। पर उसके लिए एक कठिन वस्तु की आवश्यकता है, यदि आप उसे मंगा सकें, तो दवा बन सकती है। राजा ने उत्सुकतापूर्वक पूछा वह क्या वस्तु है? वैद्य ने कहा-’कुछ ब्रह्मज्ञानियों का तेल चाहिये। राजा ने प्रसन्नतापूर्वक कहा-यह क्या कठिन बात है। हमारी सारी प्रजा ब्रह्मज्ञानी है। अभी सौ दो सौ ब्रह्मज्ञानी पकड़ कर मांगता हूँ। राजा की आज्ञा पाते ही पुलिस के सिपाही ब्रह्मज्ञानियों को तलाश करने के लिये चल दिये।

नगर में यह खबर बिजली की तरह फैल गई थी कि राजकुमार के लिये ब्रह्मज्ञानियों के तेल की जरूरत है। इस समाचार से सब के कान खड़े हो गये। पुलिस के जत्थे बड़ी सरगर्मी के साथ खोजते फिर रहे थे कि ब्रह्मज्ञानी कौन है? परन्तु कुछ भी पता न चला, जिससे पूछते मना कर देता। बड़े बूढ़ों, मुखिया पंचों से पूछा गया, तो उन्होंने गिड़गिड़ा कर यही कहा-भगवान्! हमारे कुटुम्ब में सात पुश्त से कोई ब्रह्मज्ञानी नहीं हुआ। दूसरे मुहल्ले में तलाश कीजिये। दूसरे मुहल्ले वालों से पूछा गया, तो उत्तर मिला कि हम तो अन्न ज्ञानी हैं, ब्रह्मज्ञान का तो हमने कभी नाम भी नहीं सुना। जब सारे शहर में कोई ब्रह्मज्ञानी न मिला, तो वैद्य ने अपनी दुख गाथा राजा से कह सुनाई और बताया कि किस प्रकार लोगों ने उनके पैसे ब्रह्मज्ञान की आड़ में रख लिये हैं। वैद्य ने दूसरी दवा देकर राजकुमार को अच्छा कर दिया ओर राजा ने उन थोथे ब्रह्मज्ञानियों को बुला कर वैद्यजी के पैसे दिलवा दिये।

हम ऐसे लोगों की बहुतायत देखते हैं, जो अपने मतलब में कभी नहीं चूकते और बुरे-बुरे कर्म करते हैं। किन्तु जब भेद खुलता है तो या दण्ड मिलता है, तो कहने लगते हैं, भाग्य में ऐसा ही लिखा था, ऐसी होनी थी, होनहार को कौन मिटा सकता है। कलियुग का प्रभाव है, अच्छी बुद्धि को बुरी कर देता है, बुरे दिनों का चक्कर है, ईश्वर की ऐसी ही मर्जी है, इस प्रकार ब्रह्मज्ञान बघार कर अपने को निर्दोष साबित करना और दूसरों को मूर्ख बनाकर जीवन मुक्त परम् हंस का ज्ञान अपने ऊपर लागू करते हैं, जो ब्रह्म को सर्वत्र एक-एक समान देखने लगेगा, वह दूसरों के हित और लाभ को अपने लाभ से किसी प्रकार कम नहीं समझ सकता। वह पाप-पुण्य से बहुत ऊंचा उठ जाता है, किन्तु हम साधारण लोगों के लिये तो प्रेम और परोपकार यही ब्रह्मज्ञान है। स्वयं कष्ट सह कर दूसरों का भला करना, यही उत्तम वेदान्त है।


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