धर्म का स्वरूप

August 1941

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(महामना पं. मदन मोहन मालवीय)

दूसरे के प्रति हमको वह काम नहीं करना चाहिये जिसको यदि दूसरा हमारे प्रति करे तो हमको बुरा मालूम हो या दुःख हो। संक्षेप में यही धर्म है, इसके अतिरिक्त दूसरे सब धर्म किसी बात की कामना से किये जाते हैं।

अहिंसा, सत्य, असत्य, धर्म जिनका सब समय में पालन करना सब प्राणियों के लिये विहित है और जिनके उल्लंघन करने से आदमी नीचे गिरता है, इन्हीं सिद्धान्तों पर स्थित हैं। इन्हीं सिद्धान्तों पर वेदों में गृहस्थों के लिये पक्ष महायज्ञ का विधान किया गया है कि जो भूल से भी किसी निर्दोष जीव की हिंसा हो जाय तो हम उसका प्रायश्चित करें। जो हिंसक जीव हैं, जो हमारा या किसी दूसरे निर्दोष प्राणी का प्राणघात करना चाहते हैं या उनका धन हरना या धर्म बिगाड़ना चाहते हैं, जो हम पर या हमारे देश पर, हमारे गाँव पर आक्रमण करते हैं या जो आग लगाते हैं या किसी को विष देते हैं-ऐसे लोग आततायी कहे जाते हैं। अपने या अपने किसी भाई या बहिन के प्राण, धन, धर्म, मान की रक्षा के लिये ऐसे आततायी पुरुषों या जीवों का आवश्यकता के अनुसार आत्मरक्षा के सिद्धान्त पर वध करना धर्म है। निरपराधी अहिंसक जीवों की हिंसा करना अधर्म है।

इसी सिद्धान्त पर वेद के समय से हिन्दू लोग सारी सृष्टि के निर्दोष जीवों के साथ सहानुभूति करते आये हैं। गौ को हिन्दू लोकमाता कहते हैं, क्योंकि वह मनुष्य-जाति को दूध पिलाती है और सब प्रकार से उनका उपकार करती है। इसलिये उसकी रक्षा करना तो मनुष्यमात्र का विशेष कर्तव्य है किन्तु किसी भी निर्दोष या निरपराध प्राणी को मारना, किसी का धन या प्राण हरना, किसी के साथ अत्याचार करना, किसी को झूठ से ठगना, ऊपर लिखे धर्म के परम सिद्धान्त के अनुसार अकार्य अर्थात् न करने की बाते हैं और अपने समान सुख-दुःख का अनुभव करने वाले जीवधारियों की सेवा करना, उनका उपकार करना, यह त्रिकाल में सार्वलौकिक सत्य धर्म है। मेरी यह प्रार्थना है कि ब्रह्मज्योति की सहायता से सब धर्मशील जन अपने ज्ञान को विशुद्ध और अविचल कर और अपने उत्साह को नूतन और प्रबल कर सारे संसार में इस धर्म के सिद्धान्तों का प्रचार करें और समस्त जगत को यह विश्वास करा दें कि सब का ईश्वर एक ही है और वह अंश रूप से न केवल सब मनुष्यों में किन्तु समस्त जरायुज, अण्डज, स्वेदज, उदिभज अर्थात् मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, वृक्ष और विटप सब में समान रूप से अवस्थित है और उसकी सब से उत्तम पूजा यही है कि हम प्राणीमात्र में ईश्वर का भाव देखें, सब से मित्रता का भाव रक्खें और सब का हित चाहें। सर्वजनीन प्रेम से इस सत्य ज्ञान के प्रचार से ईश्वरीय शक्ति का संगठन और विस्तार करें। जगत से अज्ञान को दूर करें, अन्याय और अत्याचार को रोकें और सत्य, न्याय और दया का प्रचार कर मनुष्यों में परस्पर प्रीति, सुख और शान्ति बढ़ावें।

विश्वास करो-कि अधर्मी जीवन बिना मतलब का होता है। बिना सिद्धान्त का जीवन बिना पतवार के जहाज के समान है। जैसे कि यह जहाज इतस्ततः फिरता रहेगा। ठीक स्थान पर नहीं पहुँच पाता । ऐसे ही अधर्मी जीवन भी संसार में मारा-मारा फिर कर अपने उद्दिष्ट स्थान पर नहीं पहुँचता है।

कथा-


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