मूर्ति पूजा का तत्व ज्ञान

November 1940

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(श्री स्वामी विवेकानन्दजी का एक भाषण)

अन्य धर्मावलम्बियों के कथनानुसार हिन्दू लोग अनेक देवताओं को पूजने वाले समझे जाते हैं परन्तु वास्तविक बात ऐसी नहीं है। आप किसी हिन्दू मन्दिर में जाइये, भक्त लोग देवता की, एक ही परमात्मा को लक्ष्यकर स्तुति करते हुए दीख पड़ेंगे। गुलाब का अनेक नामों में उल्लेख करने पर भी उसकी सुगन्ध में फर्क नहीं होता। नाम भेद समझ लेना ठीक नहीं है। मेरे बचपन की बात है। एक पादरी हिन्दुस्तान के किसी गाँव में गंवारों को उपदेश दे रहा था। बीच ही में वह लोगों से कह बैठा- “यदि मैं अपने डण्डे से तुम्हारे देवताओं की मूर्तियाँ तोड़ डालूँगा, तो वे मेरा क्या कर लेंगी?”इस पर एक गंवार बोला- “पादरीसाहब यदि मैं तुम्हारे आसमानी बाप को गालियाँ दूँगा तो वह मेरा क्या कर लेंगे?” पादरी ने कहा- “तेरे मरने पर वह तुझे दण्ड देगा।” गंवार नम्रता से बोला- “तुम्हारे मरने पर हमारे देवताओं की मूर्तियाँ भी तुम्हें दण्ड देंगी।” इस बात के बाद वितण्डा से क्या लाभ है? यदि मूर्तिपूजा करना पाप है, तो पाप से पवित्रता की उत्पत्ति कैसे हो सकती है? मैंने उन्हीं मूर्ति-पूजकों में से ऐसे ऐसे महात्मा और पुण्यात्मा देखे हैं, जिनकी तुलना किसी देश या धर्म के महापुरुष से नहीं हो सकती।

इसमें संदेह नहीं है कि धर्म का पागलपन उन्नति में बाधा डालता है, पर अन्धश्रद्धा उससे भी भयानक है। ईसाइयों को प्रार्थना के लिये मंदिर की क्या आवश्यकता है? प्रार्थना करते समय आंखें क्यों मूँद लेनी चाहिएं? परमेश्वर के गुणों का वर्णन करते हुए ‘प्राटेस्टएट’ ईसाई मूर्तियों की कल्पना क्यों करते है? ‘कैथोलिक’ पन्थ वालों को मूर्तियों की क्यों आवश्यकता हुई? भाइयों, श्वास निश्वास के बिना जीना जैसे सम्भव नहीं, वैसे ही गुणों की किसी प्रकार की मनोमय मूर्ति बनाये बिना उनका चिन्तन होना असम्भव है। हमें यह अनुभव कभी नहीं हो सकता कि हमारा चित्त निराकार में लीन हो गया हो, क्योंकि जड़ विषय और गुणों की मिश्र अवस्था के देखने का हमें अभ्यास हो गया है गुणों के बिना जड़ विषय और जड़ विषयों के बिना गुणों का चिन्तन नहीं किया जा सकता, इसी तत्व के अनुसार हिन्दुओं ने गुणों का मूर्ति रूप दृश्य स्वरूप बनाया है। मूर्तियां ईश्वर के गुणों का स्मरण कराने वाले चिन्ह मात्र है। चित्त चंचल न होकर सद्गुणों की मूर्ति ईश्वर में तल्लीनता होने के हेतु मूर्तियाँ बनाई गई हैं। हरएक हिंदू जानता है कि पत्थर की मूर्ति ईश्वर नहीं है। इसी से वे पेड़, पत्ती, आग, जल, पत्थर आदि सभी दृश्य वस्तुओं की पूजा करते हैं। इससे वे पत्थर-पूजक नहीं है। आप मुख से कहते हैं “हे परमात्मन् तुम सर्वव्यापी हो।” परन्तु कभी इस बात का आपने अनुभव भी किया है? प्रार्थना करते हुए आपके हृदय में आकाश का आनन्द विस्तार या समुद्र की विशालता क्या नहीं झलकती? यही ‘सर्वव्यापी’ शब्द का दृश्य स्वरूप है।

मूर्ति पूजा में मनुष्य स्वभाव के विरुद्ध क्या हैं हमारे मन की रचना ही ऐसी है कि वह बिना किसी दृश्य पदार्थ की सहायता के केवल गुणों का चिन्तन नहीं कर सकता। मस्जिद, चर्च, क्रूस, अग्नि, आकाश, समुद्र, आदि दृश्य पदार्थ हैं। हिंदुओं ने उनके स्थान में मूर्ति की कल्पना की तो क्या बेजा किया? निराकार की स्तुति करने वाले लोग मूर्तियाँ पूजकों को घृणा की दृष्टि से देखते हैं, परन्तु उन्हें इस कल्पना की गन्ध तक नहीं है कि मनुष्य ईश्वर हो सकता है। वे बेचारे चार दीवालों की कोठारी में बंद हैं। पास पड़ोसियों को सहायता करने से अधिक दूर उनकी दृष्टि नहीं पहुँचती। कोई देवात्मा ग्रन्थ या मूर्ति तो उपासना के साधन मात्र ही हैं। एक बार हिन्दुस्तान में मैं एक महात्मा के पास जाता है। बाइबल, वेद, कुरान, आदि की चर्चा करने लगा। पास ही एक पुस्तक पड़ी थी। जिसमें पानी बरसने का भविष्य लिखा था। महात्मा ने मुझसे कहा इसे जोर से दबाओ, मैंने खूब दबाई वे आश्चर्य से बोले इसमें तो कई इंच पानी बरसने का भविष्य है, पर तुम्हारे दबाने से एक बूँद भी नहीं टपकी! मैंने कहा महाराज, यह पुस्तक जड़ है। इस पर उन्होंने उत्तर दिया कि इसी तरह जिस मूर्ति या पुस्तक को तुम मानते हो वह कुछ नहीं करती परन्तु इष्ट मार्ग को बताने में सहायक होती है। ईश्वर रूप हो जाना हिन्दुओं का अन्तिम लक्ष्य है। वेद कहते हैं कि बाह्य उपचारों से पूजा करना उन्नति की पहली सीढ़ी है। प्रार्थना दूसरी सीढ़ी और तन्मय हो जाना तीसरी सीढ़ी है। मूर्ति पूजक मूर्ति के सामने बैठकर कहता है- “प्रभो! सूर्य, चन्द्र या तारागणों का प्रकाश हम तुम्हें कैसे दिखायेंगे? ये सब ही तुम्हारे प्रकाश से प्रकाशमान हैं।” मूर्तिपूजक अन्य साधकों से पूजा करने वालों की निन्दा नहीं करते। दूसरी सीढ़ी पर चढ़े हुए मनुष्य का पहली सीढ़ी के मनुष्य की निन्दा करना, तरुण पुरुष का बच्चे को देखकर ‘वह अभी बच्चा है’ कहकर-हँसने के बराबर है। मूर्तिदर्शन के साथ- साथ यदि किसी के मन में पवित्र भाव उत्पन्न होते हों तो मूर्तिदर्शन करना पाप कैसा? हिन्दू जब दूसरे सोपान में पहुँचता है तब पहले सोपान पर स्थित समाज की निन्दा नहीं करता। वह यह नहीं समझता कि मैं पहिले कुछ बुरे कर्म करता था। सत्य की धुँधली कल्पना को पार कर प्रकाश में आना ही हिन्दुओं का कार्य है, वे अपने को पापी नहीं समझते। हिन्दुओं का विश्वास है कि जीवमात्र पुण्यमय-पुण्यस्वरूप के अनन्त रूप हैं। जंगली लोगों के धर्म मार्ग से लेकर अद्वैत वेदान्त तक सभी मार्ग एक ही केन्द्र के निकट पहुँचते हैं। देशकाल और पात्रतानुसार सब मानवी यत्न एक सत्य का पता लगाने के लिए हैं। नानाविध गरुड़ पक्षी एक सूर्य बिंब की ओर जा रहे है। हिन्दुओं का सिद्धान्त है कि कोई गरुड़ अशक्त होने से बीच के ही किसी मुकाम पर विश्राम कर लेगा, पर कालान्तर से वह, बिम्ब के पास अवश्य पहुँच जायगा। हिन्दुओं का यह हट नहीं हैं कि सब कोई हमारे विशिष्ट मतों को मानें। अन्य धर्मावलम्बी चाहते हैं कि एक ही नाप का अंगा सब कोई पहिने, चाहे वह ठीक बैठता हो या न हो। प्रतिमा या पुस्तक मूलरूप को व्यक्त करने वाले साधनमात्र हैं, यदि कोई उनका उपयोग न करे तो हिन्दू उसे मूर्ख अथवा पापी नहीं समझते। एक सूर्य की किरणें अनेक रंगों के काँचों से नानारूप की दीख पड़ती हैं, इसी तरह भिन्न-भिन्न धर्म सम्प्रदाय एक ही केन्द्र के भिन्न-भिन्न मार्ग हैं। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं:-

“हे धनंजय, मुझसे भिन्न कहीं कुछ नहीं है, मुझमें ही सब कुछ हैं। जैसे डोरे से मणि पोए हुए होते हैं, वैसे मुझसे संसार के सारे पदार्थ पोए हुए हैं।” “जिन 2 वस्तुओं में महत्ता, तेजस्विता अथवा बल है, उन उन वस्तुओं को मेरे ही तेज के अंश से उत्पन्न हुई जान।”

अनेक युगों की परम्परा से निर्माण हुए हिन्दु धर्म के मानव जाति पर अनन्त उपकार हुए हैं। “परमतासहिष्णुता” हिन्दुओं के हृदय में छूती तक नहीं। ‘अविरोधी तु यो धर्मों स धर्मों मुनिपुँगव।’ यह हिन्दुओं का सिद्धाँत है वे यह नहीं कहते कि हिन्दुओं को ही मुक्ति मिलेगी, बाकी सब नरक में जाएंगे। व्यास महर्षि का कथन है कि भिन्न जाति और भिन्न धर्म के ऐसे बहुत से लोग मैंने देखे हैं जो पूर्णता प्राप्त हुए हैं।


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