सुख और सफलता

November 1940

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(ले. - श्री मन्नालाल शर्मा, बदनावर)

संसार के सभी ज्ञानधारी क्या राजा क्या रंक सुख प्राप्त करना चाहते हैं आच्छन्नकारी अन्धकार से बचने तथा किसी प्रकार उसके घटाने के अभिप्राय से नर-नारी अंधे होकर असंख्य उपायों और मार्गों की शरण लेते हैं, इच्छित सुख सबको निकट आता हुआ प्रतीत होता है और कुछ समय के लिए जीव भी अपने को सुरक्षित समझ कर दुख के आस्तित्व की विस्मृतिजन्य प्रसन्नता में पागल सा हो जाता है परन्तु अन्त को दिवस आ ही जाता है या अरक्षित जीव पर किसी बड़े शोक आगमन या विपत्ति का हटात आक्रमण हो ही जाता है, जिसके कारण हमारा काल्पनिक सुख चकनाचूर हो जाता है।

इसी तरह हम देखते हैं कि संसार के क्या छोटे क्या बड़े सभी किसी न किसी दुख से पीड़ित हैं। शिशु, युवा अथवा युवती होने के लिए चिल्लाता है। पुरुष तथा स्त्री बचपन के लिए हुए सुखों के लिए दीर्घ श्वास लेते हैं, दरिद्र धनाभाव की जंजीरों से जकड़ा होने के कारण तड़पता है और धनी प्रायः भिखारी हो जाने की आशंका से ही दुखी जीवन बिताता है।

हममें से अधिकाँश मनुष्य तो इतने दुखी हैं कि मानो जीवन की दौड़ में गिरते पड़ते मृत्यु के निश्चित मार्ग तक पहुँचना ही अपना ध्येय समझते हैं इस दुनियावी दौड़ में हम दुर्घटना की ठोकर खाकर गिरे पड़ते हैं और यदि कुचले जाने से बच जाते हैं तो कपड़े झाड़कर खड़े हो जाते है और उसी दुनिया में लग जाते हैं इस जीवन में सिर्फ हाँफना ही हाँफना है कहीं देखिये मन व शान्ति नहीं है। आज हम इच्छा राग, द्वेष, है। कल चुनाव के झगड़े में स्वरूप न कभी देखा गया जब पाने की कोशिश में जुट चिन्तन स्मरण बार एक दिन मृत्यु भीषण रूप देखा नहीं और यह भी रूप में हमारे सामने आ उपस्थित होती है और हमें इच्छा न रहते हुए भी मजबूर होकर एक सिटपिटाई हुई हालत में अपने मित्रों और सम्बन्धियों से विदा माँगनी पड़ती है, न इस जीने में ही सुख है और न मृत्यु में ही ............अब प्रश्न केवल इतना है कि क्या हम किसी उपाय से अपने जीवन को बना सकते हैं?

सबसे पहले हमें जानना चाहिये कि सुख क्या है और कहाँ है? सुख वास्तव में हमारी एक हार्दिक अनुभूति है, जिसको हम अनुभव करते हैं और वह हमारे अन्दर है बाहर नहीं लेकिन भ्रमवश वह हमको मृग तृष्णा के जल के समान बाहर वस्तुओं में प्रतिभासित होता है। यह कारण है कि रात-दिन प्रयत्न करने पर भी हम वास्तविक सुख से दूर होते गये, स्वामी रामतीर्थ ने एक बार अपने प्रवचन में कहा था कि “पृथ्वी पर कई एक धुरन्धर विद्वान बड़े-बड़े फिलॉसफर और राम और कृष्ण जैसे महान नेताओं का प्रादुर्भाव हो गया परन्तु संसार एक इञ्च भर भी नहीं सुधरा और मनुष्य आत्मिक सुख को अधिकाधिक खोता गया सच यह है कि जो चीज जहाँ पर है ही नहीं उसको वहाँ पर ढूंढ़ना पागलपन के सिवाय और क्या हो सकता है?”

यदि हम अपनी भ्रान्त धारणाओं से निर्लिप्त हो जावे तो हम अपने वास्तविक सुख को समझ सकते हैं आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने दृष्टिकोण को बदलें और हृदय की गहराई तक पहुँचने का प्रयत्न करें। यह कार्य सरल नहीं है। इसके लिए अभ्यास की आवश्यकता है। क्योंकि शाश्वत अथवा स्थायी सुख हमारे अन्दर आत्मा में है अथवा कहिए कि आत्मा ही आनन्द स्वरूप है हमको उसका अनुभव करना चाहिए। और इसके लिए चित्त को एकाग्र करने की अत्यन्त आवश्यकता है जो कि क्रमशः अभ्यास करने से ही प्राप्त होती है। आपको याद रखना चाहिए कि किसी भी बालक को पढ़ना सिखाने के लिए पहले से ही एक कविता वैज्ञानिक पुस्तक अथवा बीजगणित का अध्ययन नहीं कराया जाता, जब कि हमें चिरकाल से दौड़ने का अभ्यास नहीं है तो पहले से ही 20 मील की दौड़ में हम कैसे कामयाब हो सकते हैं। जब हमने दैनिक जीवन की छोटी-छोटी आदतों को वश में नहीं किया थोड़ी प्रतिकूलता से ही जब हम एक दम आपे से बाहर हो जाते हैं और हमारे दिमाग में मानो एकाएक विस्फोट हो जाता है, व दिन भर के कार्यों के बाद रात को सोते समय भी जिनको हम ही विस्तृत नहीं कर सकते एक मूर्ति का ध्यान करते ही जब सैकड़ों मूर्तियाँ हमारे हृदय पटल पर अनायास ही अंकित हो जाती हैं तो भला आत्मा जैसे गंभीर विषय का हम कैसे ध्यान कर सकते हैं।..........हम मूर्ख की तरह विश्वास कर लेते हैं कि आत्मा एक ऐसी वस्तु है कि जिसका नाम लेते ही हमारी सोई हुई सब शक्तियाँ जाग उठेंगी लेकिन जब हम अपने को असफल देखते हैं तो एकदम निराश होकर साधन को ही छोड़ देते हैं यह हमारी मानसिक दुर्बलता है।

पहले आपको उन निरर्थक तुच्छ बातों पर विजय प्राप्त करनी चाहिये जिनके आप अब तक स्वेच्छापूर्वक आखेट बन रहे थे अब आप चित्त से निश्चलता अर्थात् विचार शून्यता का क्रमशः अभ्यास कीजिये किसी भी एकान्त स्थान में नियमित समय पर (हो सके तो प्रातःकाल 4 बजे या सायंकाल) शाँत चित्त होकर बैठ जाइए और अपने मन को बिल्कुल विचारों से रहित कर दीजिए और सारी चित्तवृत्ति को किसी भी एक मनमानी वस्तु पर लगाइये यदि मन इधर उधर भटके तो उसे हठपूर्वक अपनी इच्छित वस्तु पर केन्द्रित कीजिये इस अभ्यास को आप पहले पहल एक मिनट से शुरू करें और फिर क्रमशः इसे बढ़ाते जावें और जब आप कुछ अधिक समय तक मन को विचार शून्य रखने का अभ्यास कर सकें तब “मैं। आनन्द स्वरूप आत्मा हूँ” इस भावना को दृढ़तापूर्वक हृदयंगम कीजिए, कुछ समय के पश्चात आप उस शाश्वत सुख का अनुभव करने लगेंगे जिसके लिए आप चिरकाल से उत्कंठित थे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: