पंद्रह आने का पिंजड़ा

November 1940

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(लेखक- श्रीरामनिवास शर्मा अम्बाह)

मनुष्य शरीर जिस पर इतना अभिमान किया जाता है, जिसकी तड़क भड़क के लिए जमीन आकाश के कुलाबे एक किये जाते हैं असल में क्या है यह जान कर आश्चर्य होता है।

लोग ‘आत्मा’ शब्द को मुँह से रटते तो हैं पर वास्तव में शरीर को ही आत्मा मानते हैं। हमारे प्रयत्न जीवन भर ऐसे रहते हैं जिनसे शरीर को सुख पहुंचे, शरीर सुन्दर मालूम पड़े शरीर की इन्द्रियाँ तृप्त रहें। माया से लिपटे रहना और ईश्वर तथा आत्म तत्व को उपेक्षा की दृष्टि से देखना इसका प्रमाण है।

यह शरीर जिसके लिये अपना अमूल्य जीवन नष्ट कर डालते हैं साँसारिक दृष्टि से बहुत ही तुच्छ वस्तु है। पशुओं का मृत शरीर चाम, हड्डी, माँस व खाद इन सब का मूल्य आँकने पर कई रुपये का होता है पर मनुष्य का शरीर उनके मुकाबले में बहुत ही हीन है।

वैज्ञानिकों ने मनुष्य शरीर का विश्लेषण करके पता लगाया है कि इसमें एक बैटरी लायक नाइट्रोजन, एक छोटा गुब्बारा भरने लायक हाइड्रोजन, एक पैकिट पिन बनाने वाला लोहा, दस हजार दियासलाइयां बनाने लायक फास्फोरस, साबुन के 5-6 बार बनाने लायक चर्बी, सात हजार पेंसिलों में भरने लायक कार्बन, तीन दिन की दाल बनाने लायक नमक, दो बाल्टी पानी एक दीवार पोतने लायक चूना और इतना गन्धक है जिसे लगाने से एक कुत्ते की जूँ मर सके। इतना सामान यदि बाजार से खरीदा जाय तो इस महंगी के जमाने में भी पौने पन्द्रह आने का मिल सकता है।

यह पौने पन्द्रह आने का पिंजड़ा? जो आज अमूल्य रत्न बना हुआ है वह पंछी कौन होगा, जिसकी बात है कि हम उस पंछी के पिंजड़े को सजाने में ही सारी शक्ति लगाए हुए है।


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