(श्रीकान्त शास्त्री, नारायणपुर)
अपनी बीती क्या कहूँ तुझे, वह करुण कथा ‘उड़ते पंछी’।
इस रुद्ध कण्ठ से करुण गान, कैसे गाऊं ‘उड़ते पंछी’॥
आया था मैं इस नगरी में, जीवन का नव उल्लास लिए।
यौवन का विमल विकास लिए, औ वैभव, विपुल विलास लिए॥
पर कहाँ छिपा वह कला-लास, अपना अनुपम आभास लिए।
वह जोर, जवानी, जर, जाया, सब कहाँ गई सुख साँस लिए॥
हैं याद नहीं, मैं गया भूल, क्या बतलाऊँ ‘उड़ते पंछी’।
इस रुद्ध-कण्ठ से तरल-गान, कैसे गाऊँ ‘उड़ते पंछी’॥
चल ले चल इस चल - जगती से, हो जहाँ शाँति का शुभ्र धाम।
हो सत्य अहिंसा का सुराज्य, जावें न जहाँ कमनीय काम॥
मानवता का हो जहाँ राज, रह सकें साथ भीलनी- राम।
जिस जगह न बतलाते होंवे, नर के महत्व को चाम, दाम॥
विचरूँ मैं सुख से सात्विक बन, वन, वन, उपवन ‘उड़ते पंछी’।
इस रुद्ध कण्ठ से करुण गान, कैसे गाऊँ ‘उड़ते पंछी’॥
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