सम्बोधन ! (कविता)

November 1940

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(अन्जना देवी लूम्बा, विशारद, भेलसा)

रे मन! क्यों उस रूपलता पर, सुधा जानकर जाता।
वह तो गरल भरी है पागल, नाहक भरम गंवाता॥

तृष्णा से उनका उपवन, मत देखो आँखें मींचो।
अपनी सूखी हृदयलता को, शाँति सलिल से सींचो॥

देखो तो इस मनोगगन में, फिर न कालिमा छाये।
अब तक इसका मर्म न जाना, व्यर्थ फिरे बौराये॥

जीवन भार हुआ जाता है, जल्दी नशा उतारो।
आत्म त्राण की शक्ति जगा दो, उर में धीरज धारो॥

अब भी जो न संभल पाओगे, रे मूरख! अज्ञानी।
पीर बढ़ेगी, सूख जायगा, इन नयनों का पानी॥

जग में आकर मानव को है, देख देख ही चलना।
नयन मूँद कर चलने से तो, पड़ता है कर मलना॥

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