स्वरयोग से रोग निवारण

November 1940

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(ले. श्री नारायणप्रसाद तिवारी ‘उज्ज्वल’ कान्हीबाड़ा)

इस बीसवीं शताब्दी में जन्मा मनुष्य उन्हीं बातों पर विश्वास करेगा जिनका समर्थन विज्ञान से होता है। पग-पग पर प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व विज्ञान की दृष्टि से देखा जा रहा है, किंतु जन समुदाय अब इन आविष्कारों से घबरा उठा है और ऐसी शक्ति की खोज में संलग्न हो गया है जिसके द्वारा अपनी कठिनाइयों को सरलतापूर्वक हल कर सके हम लोग अपने आस्तित्व तक को भूल बैठे हैं। हमारे भीतर जो शक्ति छिपी है उससे निरे अनभिज्ञ हैं मनुष्य स्वयं प्रकृति का अद्भुत जीव है, जिसके भीतर भौतिक विज्ञान की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली गुण छुपे हुए हैं, क्योंकि भौतिक भी तो मनुष्य के मस्तिष्क की ही उपज है।

प्रत्येक पुरुष की स्थिर अवस्था में अव्यक्त शक्ति रहती है, गतिशील किये जाने पर वह व्यक्त हुआ करती है। बिजली की बत्ती में cells मसाला भरा है, स्विच मौजूद है किंतु जब तक स्विच नहीं दबाया जाता, प्रकाश नहीं होता, क्योंकि उसकी शक्ति अव्यक्त है, बटन दबाते ही प्रकाश फैल जाता है और शक्ति व्यक्ति हो जाती है। गति का रुकना मृत्यु है, किंतु अव्यक्त शक्ति को व्यक्त रूप में लाना भी गतिशील जीवन द्वारा होना चाहिये जीव विज्ञान में विश्व पिता विधाता ने एक ऐसा अनोखा यन्त्र लगाया है कि जिससे समझ कर चलाने से साँसारिक असफलता और कष्ट पिस कर चूर्ण हो जाते हैं।

प्रत्येक मनुष्य संसार में सुखी जीवन व्यतीत करने की इच्छा करता है किंतु ऐसे कितने सौख्याभिलाषी जीव हैं जो यथार्थतः प्रकृति के नियमों की सफलतापूर्वक खोज कर उसका सद् उपयोग करते हैं। ईश्वर प्रदत्त उस अनोखे यन्त्र को सुचारु रूप से चलाने की पद्धति न जान कर हम अपना काम बिगाड़ लेते हैं।

प्रकृति के वायु तत्व उपभोगी को ‘जीव’ संज्ञा दी है। किंतु खेद है इस निःशुल्क उपादान का भी हम लोग ठीक उपयोग न कर कृत्रिम उपायों के इतने अधिक वशीभूत हो चुके हैं कि प्राकृतिक नियमों की अवहेलना ही नहीं वरन् उन पर अविश्वास तक करने लगे हैं।

वायु का स्थान जीवन में सर्वोपरि है क्योंकि अन्न जल बिना मनुष्य कुछ काल तक रह सकता है, किंतु वायु के बिना शीघ्र ही नहीं तब भी कुछ कालान्तर प्राणांत तक हो जाते हैं प्रत्येक मनुष्य का श्वास प्रश्वास ही जीवन है। जीवन को यदि श्वासों की शृंखला भी कहा जावे तो अनुचित होगा।

श्वास वायु फुफ्फुस तक ही सीमित नहीं है किंतु सम्पूर्ण शरीर में उसका आवागमन है। श्वास प्रश्वास तथा रोग निदान वैद्य नाड़ी से करते हैं नाडी देखने पर जब नाड़ी स्थान पर नहीं मिलती तो कहा जात है कि नाड़ी ने स्थान छोड़ दिया और उसका अर्थ होता है कि रोगी की आशा छोड़ दी जावे, यद्यपि यह नाड़ी वैद्य केवल कलाई के पास देखते हैं किंतु नाड़ी का जाल हमारे शरीर भर में फैला हुआ है शरीर में कुछ 72000 नाड़ियाँ हैं, और पुरुष दिन रात में 25600 बार श्वास प्रश्वास करता है इससे कम श्वास लेने वाला दीर्घजीवी होता है क्योंकि अपने धन का जितना कम व्यय होगा उतने ही अधिक काल तक संचित रहेगा कहावत है waste will bring in wants वास की पूँजी की भी यही दशा है। मेरा अभिप्राय यह है कि वायु को अधिकार में लाने से मनुष्य दीर्घजीवी हो सकता है। प्राणायाम का भी यही सिद्धान्त है। शरीर और मन का घनिष्ठ सम्बन्ध है, अतएव मन की एकाग्रता कर वायु पर अधिकार करने से मनुष्य अपने शरीर को भला-चंगा रख सकता है। योग के आधार पर उज्जैन, टिनाबल्ली, लोनावाला, बम्बई, औंध आदि अनेक स्थानों में रोग निवारण केन्द्र भी स्थापित हो चुके हैं।

(अपूर्ण)


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