चौबीस घंटे का साथी।

November 1940

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“मुझे देखो- मेरे अंदर देखो; मैं तुम्हें दुनिया से बचा लूँगा” किसी धर्म पुस्तक में यह शब्द ईश्वर की ओर से कहे गये हैं। परमात्मा की प्रतिज्ञा है कि ‘तेषामहं समुद्धर्ता मृत्यु संसार सागरात्’ मैं उन्हें मृत्यु रूप संसार सागर से बचा लेता हूँ जो मुझे अपने में देखते हैं। उसे अपने में देखने से - अपने साथ अनुभव करने से, अपना सच्चा मित्र बनाया जा सकता है। और उस सच्चे मित्र की शक्ति भी इतनी है कि हमें क्षण भर में प्राणान्तक कष्टों से बचा लेता है उसे अपना न बनाना एक भयंकर हानि करना है।

हम लोग मित्रों की तलाश में रहते हैं। जिसके जितने अधिक मित्र होते हैं, वह उतना ही प्रसन्न रहता है क्योंकि साथियों से सहारा मिलता है। हमारी हंसी खुशी को वे बढ़ाते हैं, उन्नति का उपाय बताते हैं, कठिनाइयों में सहायता देते हैं और जो कुछ उनसे बन पड़ता है मित्र के लिए करते है। जिसकी स्त्री मित्र है उसके लिए घर स्वर्ग है, जिसके स्वजन सहायक हैं उसके लिए समाज स्वर्ग है और जिसकी जनता मित्र है उसके लिए देश स्वर्ग है। ‘शत्रु’ शब्द की कल्पना करते ही कलह, हानि, कष्ट, क्लेश की दुखदायी तस्वीर आँखों के सामने आ खड़ी होती है हम उससे घृणा करते हैं और इसीलिये मित्रों की तलाश में रहते है जिसने किसी योग्य व्यक्ति से मैत्री कर ली वह प्रसन्न होता है और जिसने सच्चा मित्र पा लिया वह अपने को धन्य समझता है। तुमने उन आदमियों के अभियान को देखा होगा जिन्होंने बड़े आदमियों को मित्र बना लिया वे खुद कुछ न होते हुए भी मित्र के बल पर फूले फिरते हैं। ऊंचे हाकिमों के अर्दली चपरासियों तक के मिज़ाज सातवें आसमान पर रहते हैं। कहावत है कि “हिमायत की गधी ऐरावत को लात मारती है” दूध के साथ पानी, फूल के साथ धूल, गेहूं के साथ में कोदों उन्हीं के पद को प्राप्त होते हैं यह सब जानते है।

तात्पर्य यह है कि मनुष्य जीवन में सहायकों-मित्रों का स्थान बहुत ऊंचा है। स्वजन, कुटुम्बी, परिवार, सहकारी, सेवक यह सब किसी प्रकार सहायक ही हैं इसीलिए हमारा जीवन प्रसन्नता से भरा हुआ है यदि यह सब या इनमें से अधिकाँश अपने शत्रु बन जायं तो देखिए कि जीवन कैसा क्लेशमय बन जाता है। एक दार्शनिक की दृष्टि में साँसारिक समस्त संपत्तियों में मित्र का मूल्य सबसे अधिक है।

हम जानते है कि अखण्ड ज्योति के पाठकों के अनेक मित्र होंगे और वे इस बात की तलाश में होंगे कि और भी कोई उपयोगी व्यक्ति मिले तो उससे मित्रता बढ़ावे। क्या तुम ऐसा नहीं चाहते? यदि चाहते हो तो तुम्हें एक ऐसे व्यक्ति से मित्रता करने की सलाह देते हैं जो चौबीस घंटे का साथी हो सकता हैं। दूसरे मित्र कुछ घंटे से तुम्हारे साथ रह सकते हैं वे एक परिमित समय में तुम्हारे साथ रह सकते है और जो मदद कर सकते हैं वह शरीर और मन तक पहुँचती है फिर उन बेचारों की सहायता की शक्ति भी बहुत सीमित है। जब तुम दुःख दर्द से छटपटाते हो तो मित्र पड़ोसी सान्त्वना देते हैं, सहानुभूति प्रकट करते हैं, पर उनसे कुछ विशेष लाभ नहीं होता तुम्हारी व्याकुलता में कोई अधिक कमी नहीं होती। क्योंकि उन की ताकत बहुत थोड़ी है, दैवी विपत्तियों में जैसे तुम किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाते हो वैसे ही वे भी हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाते हैं। नकली और खुशामदी मित्रों की बात तो छोड़ो जो श्रेष्ठ और अच्छे साथी मालूम पड़ते हैं, वे भी विपरीत परिस्थितियों में विपरीत विरोधी या उपेक्षा भाव धारण कर सकते हैं। किसी मित्र को हानि पहुँचाओ, खुद भ्रष्टाचारी हो जाओ, दरिद्र बन जाओ, और कुष्ठ आदि किसी घृणित रोग में फँस जाओ तो फिर अच्छे मित्रों में से भी शायद ही कोई कुछ मदद करेगा।

जिस व्यक्ति को अपना साथी बनाने के लिये तुम्हें उत्साह दे रहे हैं वह ऐसा है जो चौबीस घंटे का साथी हो सकता है। सोते-जागते, खाते-पीते, मल-मूत्र विसर्जन करते, यहाँ और वहाँ सब जगह सर्वत्र साथ रहता है। भीतर अन्तस्थल तक पहुँच सकता है। उसका विरोध करने पर या दुर्दशा में फँस जाने पर भी विरोधी नहीं बनता। और उसकी शक्ति तो साधारण मित्रों की अपेक्षा कई गुनी है। फिर वह अपनी मित्रता की एवज भी कुछ नहीं माँगता। ऐसा अच्छा और सस्ता मित्र दूरबीन लेकर समस्त पृथ्वी को ढूंढ़ने पर भी और कोई नहीं मिल सकता।

वह मित्र परमात्मा है। वह चौबीस घंटे का साथी है। सचाई की तरह सच्चा और प्रेम की तरह पवित्र है। माता की तरह उसकी ममता है। खराब बालक अपनी ऐंठ में जब उलटा उलटा चलता है तो भी माता उसके पीछे पीछे रक्षा का प्रयत्न करती है किंतु जब वह सीधा हो कर माता की ओर देखता है तो वह प्रेम से गद् गद् हो जाती है और उसे उठा कर छाती से लगा लेती है। परमात्मा को हम भूले रहते हैं तब भी वह हमें नहीं भूलता किंतु जब उसकी ओर प्रेम की दृष्टि से देखते हैं तो उसकी छाया को अपने अन्दर मुसकराता हुआ देखते हैं।

तुम परमात्मा को अपना मित्र बनाओ। हर घड़ी अपने को उसकी गोदी में बैठा हुआ अनुभव करो। यह मत सोचो कि वह अदृश्य है शरीरधारी नहीं है इसलिये उससे मैत्री किस प्रकार की जा सकती है? जितना ही तुम उसे अपने निकट मानोगे उतने ही निकट वह आता जाएगा। जिस प्रकार अपने सच्चे मित्र के आगे अपनी समस्या रख देते हो और उससे सलाह माँगते हो उसी प्रकार उसके सामने अपना हृदय खोल कर रख दो अपनी उलझनें उसके सन्मुख विस्तारपूर्वक उपस्थित करो और पूछो कि अब क्या करना चाहिये।

जैसे-जैसे अपनी मित्रता बढ़ाते जाओगे, अपने को उसके ऊपर छोड़ते जाओगे वैसे ही वैसे वह तुम्हें अपने प्रगाढ़ आलिंगन में लेता जायगा। ऐसी स्थिति में सारे दुख दर्द ; सुख और शाँति में परिणित होते जाते हैं। तुम्हें उसके स्वर्गीय संदेश अपने अंदर से आते हुए सुनाई देंगे। ऐसे प्रसंग जिन्हें देख कर साधारण आदमी घबरा जाता है और पीड़ा एवं व्याकुलता से छटपटाता है, परमात्मा पर विश्वास रखने वाला अचल रहता है। उसे ऐसा मालूम होता है मानो मैं तो किसी के हाथ का खिलौना मात्र हूँ। अन्तरात्मा के आदेशों का वह निर्माण पूर्वक पालन करता है और जो कुछ भी प्रिय अप्रिय परिणाम मिलता है उसे प्रभु का प्रसाद समझ कर सहर्ष शिरोधार्य करता है।

तुम उस परमात्मा को अपनाओ उसे ही अपना सखा - चौबीस घण्टे का साथी बनाओ अपने हृदय मन्दिर में उसकी मुस्कराती हुई छाया देखो। हर घड़ी अपने को उसी की गोद में सुरक्षित बैठा हुआ देखो। एक शरीरधारी व्यक्ति की तरह उससे बात चीत करो और सम्पूर्ण शरीर को शिथिल करके अपने अन्तरात्मा में से आती हुई दैवी वाणी को सुनो वह तुम्हें हर मामले में चूल्हा फूँकने से लेकर योगाभ्यास तक के कार्यों में सच्ची सलाह देगा और पथप्रदर्शन करेगा। उसकी इच्छा को अपनी इच्छा बना दो। अपने चौबीस घण्टे के साथी पर अपना बोझ डाल कर निश्चिंत हो जाओ तुम पार हो जाओगे और वह तुम्हें पार कर देगा।


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