साधना के विघ्न

November 1940

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(ले. श्री रामदयालजी गुप्त, नौगड़)

[क्रमागत]

विचार करो और शान्त मस्तिष्क से दृढ़ता पूर्वक कदम बढ़ाओ, आपका मार्ग सुगम हो जायेगा।

(8) आलस्य - उदासीनता, उपेक्षा व निराशा की भावनाओं के मिश्रण से आलस्य उत्पन्न होता है। यह आलस्य अत्यन्त तामसी और नीच कर्मों से भी नीच है। जो क्रियाशील है वह यदि आज बुरे कर्म करता है तो कल अच्छे कर्म भी कर सकता है किन्तु जिसके मन और शरीर को आलस्य ने घेर लिया है वह साँस लेता हुआ मुर्दा है। पृथ्वी का भार बढ़ाने के अतिरिक्त उसका और कोई प्रयोजन नहीं। उसके मन में अच्छे विचार उठ नहीं सकते। आलस्य का मुख पतन की ओर है जो उसे नीच योनियों में ले जाता है। जिसने आलस्य को अपनाया उसने अपने सबसे बड़े और अत्यन्त भयंकर शत्रु को घर में बसाया है। ऐसे व्यक्ति को सफलता कोसों दूर से नमस्कार करती है। आप अपने जीवन को नष्ट नहीं होने देना चाहते हैं तो उसे क्रियाशील रखें। स्फूर्ति, उत्साह, लगन और काम में लगे रहने की धुन हर समय अपने अन्दर होनी चाहिये।

(9) अल्प में सन्तोष - यह अवगुण क्षुद्र हृदय का द्योतक है। हर स्थिति में संतुष्ट रहना यह मन का दैवी गुण है, मानसिक शान्ति के लिये इसकी आवश्यकता है। किन्तु यदि ये बात काम करने के बार में उतर आवे तो समझना चाहिये कि इसका कारण या तो आलस्य है या क्षुद्र हृदयता। एक पुस्तक पढ़कर, एक मिनट भजन करके, जरा सा परिश्रम करके, तुच्छ सी जन सेवा करके, कुछ ही पैसे कमाकर, जो संतुष्ट हो जाता है वह संतोषी नहीं अकर्मण्य है। मनुष्य के करने के लिए अपार काम पड़ा हुआ है। जितना अधिक हो सके, काम करना चाहिए और अपने उद्देश्य के अनुसार ऊँची से ऊँची सीढ़ी पर पहुँचने का प्रयत्न जारी रखना चाहिएं।

(10) वासना - तरह-तरह के इन्द्रिय सुखों पर मन ललचाना और उनके सम्बन्ध में खयाली पुलाव पकाते रहना, मनुष्य जीवन की सार्थकता के बारे में एक बहुत बड़ा विघ्न है। इन्द्रियों के सुख अतृप्त हैं ज्यों-ज्यों उन्हें पूरा करते हैं त्यों-त्यों वह आग भड़कती है और साथ ही वह शरीर एवं मन को जलाती जाती है। सुस्वाद भोजन, शिश्नेन्द्रिय की परायणता तमाशे देखने की रुचि इनके प्रलोभन मन को अपना दास बना लेते हैं और दूसरे किसी महान कार्य की ओर जाने नहीं देते। यदि जाता है तो बार -बार उचट देते हैं जिसका मन बार-बार उचटता हो तो समझे कि इन्द्रियों के सुख उसे बार बार बहका रहे हैं। आपको किसी उपेक्षा की पूर्ति करनी है तो इन्द्रिय सुखों को फटकार दीजिये। क्योंकि वे जैसे-जैसे तृप्त किये जाते हैं वैसे ही वैसे उग्र रूप धारण करके आपको उल्टा खाते हैं और अन्त में अपने वश में करके नष्ट कर डालते हैं।

(11) ब्रह्मचर्य का अभाव - प्राणशक्ति, स्फूर्ति बुद्धि और ओज यह वस्तुएं वीर्य से ही बनती हैं इसलिए उसे अमूल्य रत्न समझते हुए जी-जान इसकी रक्षा का प्रयत्न करना चाहिये। शरीर और मन का स्वास्थ्य वीर्य की शक्ति से प्राप्त होता है इसलिए क्षणिक इन्द्रिय सुख के लिए नष्ट करना धूति के बदले हीरा बेचना है। अखण्ड ब्रह्मचर्य धारण कीजिये। यदि विवाहित हैं तो केवल सन्तान उत्पन्न करने के उद्देश्य से धर्मपूर्वक उसका उपयोग कीजिए। इससे आपकी शक्ति सुरक्षित रहेगी।

(12) कुसंग- मनुष्य शरीर एक प्रभावशाली विद्युत धारण किये हुए है जो अपने पास वालों पर अनिवार्य रूप से असर डालती है मजबूत विचारों से दूसरों पर जरूर असर पड़ता है अगर आप आरम्भिक अभ्यासी हों तो बुरे चरित्र और अपने दुष्ट विचार वालों से दूर रहिये उनके कार्यों में कोई दिलचस्पी मत लीजिये। हो सके तो अरुचि प्रकट कीजिये इससे आप उनके संक्रामक असर से बचे रहेंगे। सत्संग की महिमा अपार है श्रेष्ठ पुरुषों का साथ गंगा के समान है जिसमें गोता लगाने से क्लेश कटते हैं श्रेष्ठ पुरुषों के साथ रहने से, उनके मौखिक या लेखबद्ध विचारों के मनन करने से आत्मोत्थान होता है। हाँ, यदि आप अपने को अत्यन्त सुदृढ़ समझते हैं तो सुधार की दृष्टि से बुरे विचार वाले को अपने साथ ले सकते हैं परन्तु सावधान! कहीं उसका उलटा असर आप पर न हो जाय।

(13) परदोष दर्शन - दूसरे के अवगुण देखना अपनी बुद्धि को दूषित करना है। फोटो खींचने के कैमरे के सामने जो चीज रखी जाती है उसी का अक्ष भीतर प्लेट पर खिंच जाता है। यदि आप दूसरों की बुराइयाँ ही देखेंगे तो उनके चित्र अपने अन्दर अंकित करके उन्हें खुद भी ग्रहण कर लेंगे। इसलिए दूसरों के सद्गुणों पर ही दृष्टि रखिये। सब में परमात्मा का स्वरूप देखिये और उन्हें प्रेम की दृष्टि से देखिये आपका हृदय प्रसन्न रहेगा। यदि किसी में बुराई दिखाई पड़े तो उससे घृणा मत कीजिये और जहाँ तक हो सके सुधारने का प्रयत्न कीजिये। परदोष दर्शन के कारण जो घृणा और द्वेश मन में उत्पन्न होते हैं वह भीतर ही भीतर अशान्ति उत्पन्न करके मन को निश्चित पथ से डिगा देते हैं। साधना को सुरक्षित रखने के लिए जरूरी है कि किसी की गन्दगी टटोलकर अपनी नाक को दुर्गन्धित न किया जाय।

(14) संकीर्णता - अपने मजहब, विचार या विश्वासों पर दृढ़ रहना उचित है। परन्तु दूसरों के विश्वासों को घृणा की दृष्टि से देखना या झूठा समझना अनुचित है। हम सब सत्य के आस-पास चक्कर काट रहे हैं किन्तु कोई पूर्ण सत्य तक नहीं पहुँच सका है। इसलिए हमें एक दूसरे के दृष्टिकोण को ध्यानपूर्वक देखना चाहिए। कट्टरता एक ऐसा दुर्गुण है जिसके कारण आदमी न तो अपनी बुराइयों को छोड़ सकता है और न अच्छाइयों को ग्रहण कर सकता है।


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