स्नान तथा तैरने की कला

November 1940

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(ले. श्री रामकिशोरलाल मसीने, गोंदिया)

इस संसार में उत्तम स्वास्थ्य का होना व आरोग्य जीवन व्यतीत करना ही सर्व सुखों का मूल है। आरोग्यता व स्वास्थ्य उसी मनुष्य का ठीक है जिसके वातादिक दोष, अग्नि, रसादिक, धातु व मल क्रिया समान हों, जिसकी आत्मा तथा मन प्रसन्न हों, अब यह जानना आवश्यक है कि क्या स्वास्थ्य, आरोग्यता तथा रूप लावण्य ऊपरी बातों (साधनों) से आ सकते हैं व आकर टिक सकते हैं जैसे दवाओं के सेवन से व टूथपेस्ट साबुन, तेल, इत्र, क्रीम, पाउडर, शीशी, बढ़िया सैलून में फैशनदार कटे बालों में। फैशन से कटे सिले वस्त्र, छड़ी, सूट, टाई, अंगूठी, सुनहरी, घड़ी- सजाने के लिए; चश्मा, माँग अप-टू-डेट शेविंग- अच्छे दिखने के लिए वैज, कावर, पिन आदि यह सब लावण्य बढ़ाने को ही काम में लाये जाते हैं। किन्तु इन सब ऊपरी टीमटामों से रूप लावण्य नहीं आ सकता और न टिक ही सकता है। यह तो हमारे प्राकृतिक जीवन के बरतने से ही रह सकता है। प्राकृतिक जीवन से चलना मानो रूप लावण्य को खोना है। हमें प्रकृति के साथ नित्य व्यायाम करना तथा सफाई से रहना चाहिए। भोजन शुद्ध, ताजा, सादा, रसयुक्त, हल्का तथा प्रिय करना चाहिए। जहाँ तक हो हरी सब्जी का अधिक व्यवहार करो। “जो जैसा आहार करेगा वह वैसा ही बनेगा” यह बड़े-बड़े विद्वानों का कथन है। सर्वदा प्रत्येक ग्रास को खूब चबा-चबा कर खाना चाहिये। फलों का अधिक सेवन कर सको तो उत्तम है। क्योंकि वीर्योत्पादन की शक्ति दूध से भी ज्यादा फल में हुआ करती है कोई भी वस्तु जल्दी-जल्दी नहीं खानी चाहिए। भोजन दो वक्त करना चाहिए। पहला 10 बजे से 12 बजे के अन्दर तथा शाम को 8 बजे के अन्दर। रात्रि में सोते समय थोड़ा गुन- गुना दूध मिल सके तो अवश्य लेना चाहिये। बासी कभी न खाओ उससे बुद्धि, वायु तेज नष्ट होते हैं। थके हुए बदन पर भोजन कभी न करें। भोजन शान्त चित्त से रुचि सहित करना चाहिये तथा उस समय यह मन में ख्याल करना चाहिये कि जो कुछ हम खा रहे हैं उससे हम जीवन खींच रहे हैं और हममें शक्ति बढ़ रही है। भोजन के समय अधिक पानी नहीं पीना चाहिये बल्कि आधा घण्टा ठहर कर दूध के सहित थोड़ा-थोड़ा पीना चाहिए। भोजनोपरान्त 140 कदम चलना। बाद में दाहिने फिर बाएं करवट लेटकर आराम करना चाहियें।

शुद्ध जल का पर्याप्त मात्रा में सेवन करो। रेतीली जमीन का बहता हुआ जल उत्तम होता है। कुंए का भी जल शुद्ध है। परन्तु उसमें सूर्य की किरणें तथा यथेष्ट शुद्ध वायु प्रति दिन लगे।

प्रचुर सूर्य किरण का सेवन करना भी आवश्यक है। प्रातःकाल का सूर्य, बल और वीर्योत्पादक होता है। इससे आरोग्यता तो आवेगी ही, रूप−लावण्य भी बढ़ेगा व टिकेगा। प्रकृति सेवी मनुष्य के पास स्वाध्याय तथा रूप लावण्य दास बनकर रहते हैं। कम से कम आधा घण्टा अवश्य ही प्रातः सूर्य किरण का सेवन करो।

हर एक ऋतुओं का, वर्षा में वर्षा का शीतकाल में ठण्ड का ग्रीष्म में गर्मी का यथेष्ट सेवन करना चाहिए। सभी वस्तुओं में फलों का भी यथेष्ट सेवन करो। प्रकृति सेवी अपने समय का परिस्थिति के अनुसार विभाग करके नियमपूर्वक कार्य करता है प्रातः चार बजे ही उठना, नित्य क्रिया से निबटकर खुले मैदान में दो चार मील घूमने जाना। वहाँ एक प्रचुर शुद्ध वायु का सेवन करना और उसी समय खुले मैदान में एकाध कपड़ा पहिने हुए थोड़ा व्यायाम करता है। इससे उसके अंग प्रत्यंग सुडौल बनते व गहरी साँस द्वारा शुद्ध वायु का यथेष्ट सेवन भी होता है।

स्वास्थ्य के लिए व्यायाम अमृत समान है। व्यायाम करते समय सीना हमेशा ऊँचा रखो व्यायाम के समय नाक से ही श्वास लेना तथा मुँह से छोड़ना चाहिये कसरत के बाद एकाएक बैठ जाना या तुरन्त ही जल पीना अत्यन्त हानिकारक है। यदि मुँह सूखे तो कुल्ला कर लो या मिश्री चबालो। व्यायाम के बाद शीघ्र ही स्नान भी नहीं करना चाहिये, क्योंकि गरम शरीर को एकदम ठण्डा करना हानिकारक होगा। कम से कम आधा घण्टा ठहरकर घर्षण स्नान (मल-2 कर) अवश्य करें। ताकि चमड़े के छिद्र साफ हो जावें।

स्नान के समय यदि साबुन के स्थान में पीली व बिना कंकड़ की कोई भी शुद्ध मिट्टी रगड़ रगड़ कर लेपन करने के बाद 10-15 मिनट सूखने दें घर्षण से घिस-घिस कर धो डालो इससे मैल तो रहेगा ही नहीं, शरीर शुद्ध तथा चमड़े के सब छिद्र भी खुल जायेंगे। छिद्रों का साफ रहना अत्यन्त आवश्यक है।

कहीं एक लेख में मैंने पढ़ा है कि मुहर्रम के समय एक मनुष्य शेर बना। वार्निश मिलाया हुआ पीला पीला रंग सारे शरीर में पोता। दिन भर तो खूब खेला कूदा, रात्रि में आया तो थकावट के मारे वैसे ही सो गया। सूर्योदय के पश्चात भी 8-9 बजे तक सोकर न उठा। पुकारने पर भी वह न बोला। किवाड़ तोड़े गये तो अचल मुर्दे के समान पड़ा मिला। तुरन्त ही डॉक्टर बुलाया गया। डॉक्टर ने तारपिन तेल, गरम पानी और साबुन से रगड़ रगड़ कर उसे नहलवाया। जब शरीर शुद्ध हुआ- चमड़े के छिद्र खुले तब कहीं बाद में उसे होश आया। इससे साफ जाहिर होता है कि नाक और मुँह से हवा लेते रहने पर भी हमारे शरीर का चमड़ा छिद्रों द्वारा कहीं अधिक श्वास लेता है। छिद्रों के बन्द हो जाने से हम जी भी नहीं सकते। अतः शरीर की स्वच्छता में कभी आलस्य न करे। घर्षण से शरीर के चमड़े के सारे छिद्र खुल जायेंगे जिससे शरीर के अन्दर के सारे दूषित पदार्थ पसीने द्वारा निकल जाया करेंगे और बाहर की शुद्ध वायु भी भीतर जायगी जिससे शरीर निरोगी रहेगा। घर्षण स्नान से मनुष्य निर्विकारी ब्रह्मचारी तथा दीर्घजीवी सहज में ही बनता है। गन्देपन से रोगी, आलसी विषयी तथा अल्पायु होता है। स्नान के लिए प्रातःकाल ही श्रेष्ठ है। जब तक शिर ठण्डा न हो ले स्नान करना चाहिये। ठण्ड में 5 से 10 मिनट व गर्मी में कम से कम आधा घण्टा अवश्य घर्षण स्नान करें।

कुएं का जल सब ऋतुओं में स्नान के लिये अच्छा होता है। पर बहता हुआ तथा तालाब का जल जिसमें सूर्य का प्रकाश तथा शुद्ध वायु पर्याप्त मात्रा में लगते हों लाभदायक हैं। प्रचुर जल से स्नान करना अच्छा है - न कि एक लोटे जल से। शिर पर स्वच्छ ताजा शीतल जल छोड़ें, बाद में खुरखुरे मुलायम वस्त्र से पोंछ डालें ताकि खाज व दाद का भय न रहे। घर्षण स्नान से निश्चय ही मनुष्य आनन्द, उत्साह, आरोग्यता, शाँति व कान्ति के लक्षण प्रतिदिन बढ़ती पर पावेगा। नित्य अभ्यास करने से आरोग्यता व रूप-लावण्य अवश्य आवेगा तथा टिकेगा। जापानी लोग घर्षण स्नान को बहुत महत्व देते हैं इसी से वे उद्योगी, तेजस्वी व दीर्घजीवी होते हैं।

स्नान के कुछ साधारण नियम :-

(1)- नित्य देश कालानुसार दो वक्त स्नान करना चाहिये। और कारणवश दो बार न हो तो प्रातः तैरना व घर्षण स्नान नित्य नियमपूर्वक हो। दूसरे वक्त तौलिया को गीला करके सारे शरीर को रगड़-रगड़ कर पोंछ डालों। इससे शरीर का दिन भर का जमा पसीना साफ हो जावेगा व चमड़े के छिद्र खुल जावेंगे तथा थकावट दूर होकर निद्रा आवेगी। इससे भोजन हजम होगा एवं शरीर निरोग, चुस्त तथा फुर्तीला होगा।

(2)- नित्य उष्ण जल से स्नान करो। यह अप्राकृतिक है : इससे शरीर कमजोर, नाजुक, चंचल व विषयी बनता है। ब्रह्मचर्य के लिये हानिकर है।

(3)- शास्त्रों में समुद्र-स्नान की महिमा है। कारण यह कि समुद्र जल में एक प्रकार की बिजली होती है जिससे मनुष्य निरोगी व चैतन्य रहता है। यदि सुभीता हो तो घर के पानी में समुद्री नमक डालकर स्नान करो। बाद में शुद्ध जल से नहा लो। इससे विशेष लाभ होगा।

(4)- स्नान भोजन के पहले करना चाहिये। भोजनोपरान्त तीन घण्टों के बाद नहाना चाहिये। नहाने के बाद तुरन्त भोजन करने से व भोजनोपरान्त तुरन्त नहाने से पित्त बढ़ जाता है। पाचनक्रिया भी बिगड़ जाती है- अनपच रह जाता है। इससे सावधान रहना चाहिये।

(5)- रोगी, दुर्बल व नाजुकों को भी कम से कम टावेलाबाथ (रुमाल भिगोकर) से घर्षण स्नान करना चाहिये व धीरे-धीरे ठण्डे जल से स्नान करने की आदत डालना चाहिये।

(6)- शरीर के गुप्त-गुप्त हिस्सों व जोड़-जोड़ के स्थानों को विशेष रगड़-रगड़ कर धोना चाहिये, ताकि वहाँ का जमा हुआ पसीना साफ हो जावे।

(7)- स्नान करते करते जब ठण्ड मालूम होने लगे व चमड़े के रोएं खड़े हो जावे (काँटा उठ आवे) तब शीघ्र ही स्नान बन्द कर बाहर निकल पड़ना चाहिये व सूखे कपड़े से रगड़-रगड़ कर पोंछना चाहिये। ठण्ड लगने व रोएं खड़े हो जाने के बाद जबर्दस्ती नहाते रहने से शरीर बिगड़ जायगा। सर्दी व बुखार का होना मामूली हो जावेगा।

(8)- स्नान के लिये हवादार खुली प्रकाशमय जहाँ सूर्य की किरणें पहुँचती हों, एकान्त जगह का होना जरूरी है। घाट भी एकान्त का चुनना चाहिये।

(9)- स्नान के समय शरीर पर कम से कम कपड़े रखना चाहिये। खुले शरीर पर स्नान करने से सर्दी-गर्मी असर नहीं करती। भारतवर्ष में लंगोट पहनकर नहाया जाता है। पाश्चात्यों में नग्न ही स्नान करना आरम्भ किया है किंतु यह भारत की सभ्यता के सर्वथा विरुद्ध है। वीर्यपात होने के बाद (कुछ देर ठहर कर) तुरन्त स्नान करना चाहिये।

(10)- व्यायाम के बाद शीघ्र ही स्नान मत करो; आधा घण्टा ठहरो।

सूर्योदय के पहले तैरने का नित्य का नियम करो चाहे 5 मिनट भी क्यों न हो। इससे बहुत लाभ होते हैं। शुद्धता तो है ही; सभी अंग प्रत्यंगों का व्यायाम हो जाता है। सीना पुष्ट तथा चौड़ा होता है फेफड़े शुद्ध व बलवान होते हैं। सम्पूर्ण शरीर निरोग चुस्त, फुर्तीला, दमदार उत्साही तथा शक्तिशाली बनता है। मस्तिष्क ठण्डे जल की धीमी-धीमी मार से शुद्ध, ठण्डा तथा निर्विकार हो जाता है। चेहरे की कान्ति दूनी होती है। इस विषय को स्वास्थ्य की ही दृष्टि से हर एक आम व खास, गरीब व अमीर सभी को सीखना जरूरी है। देश-सेवा के नाते भी इस कला को जानना ही चाहिये इससे न केवल अपने स्वास्थ्य का ही फायदा होता है किंतु दूसरों को डूबने से भी बचाया जा सकता है। सोचिये, इस विषय का जानकर जब डूबते हुए एक जीवन की रक्षा करता है तब उसकी आत्मा को कितना संतोष तथा मन को कितनी प्रसन्नता होगी?

कुछ लड़के मिल कर तैरने का अभ्यास आरम्भ कर सकते हैं। अध्यापक लोग इसका विशेष रूप से प्रचार करके बालकों को यह जीवनोपयोगी कला सिखा सकते हैं।


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