भयंकर - प्रेत - लीला

November 1940

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(ले.- श्री. अनन्तराम दुवे, सिवनी)

पढ़ा लिखा होने के कारण मैं भूत-प्रेतों के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता था। जब मेरे से कोई मनुष्य भूतों के बारे में कुछ कहता तो मैं उसका मजाक उड़ाता। मैं उनकी सब बातों को मिथ्या समझता और मैं भूत-प्रेतों को दुर्बल हृदयों की कल्पना मात्र समझता था। पर, जब आज से दो वर्ष पूर्व मैंने उनकी लीला अपनी आँखों से देखी तो मुझे उनके अस्तित्व पर विश्वास हो गया।

एक बार मैं अपने मित्र के घर गया। मैं उनका पता ठिकाना नहीं बताऊंगा क्योंकि ऐसा करने की मुझे इजाजत नहीं है। वे बस्ती के छोर में रहते हैं। उनका मकान पक्का दो मंजिल है। नीचे के खण्ड में तीन कमरे हैं और ऊपर का खण्ड एक बढ़े हाल के समान है। उनके घर के पीछे बहुत लम्बा चौड़ा मैदान है। पीछे एक नीम का तीन चार बिही और केले के पेड़ हैं। जिस समय की हम बात कह रहे है, उस समय मेरे मित्र की, स्त्री के अतिरिक्त, कोई सन्तान न थी।

आज मुझे मित्र के घर आये तीन दिन हो गये थे। ठण्ड के दिन थे। रात के 10 बजे थे। शीत ऋतु की रात बड़ी भयानक प्रतीत होती थी। मैं और मित्र बैठे यहाँ वहाँ की चर्चा कर रहे थे। हम लोग नीचे के खण्ड के प्रथम कमरे में बैठे थे। दूसरे कमरे में मित्र की पत्नी विश्राम कर रही थी। सहसा हमें ऐसा मालूम हुआ कि ऊपर मंजिले से कोई रो रहा है। आवाज धीरे-धीरे स्पष्ट हो गई। हमने महसूस किया कि कोई बच्चा रो रहा है। मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा था बच्चा रोने को यहाँ कैसे आया। मित्र का तो कोई बच्चा था ही नहीं। मैंने मित्र की ओर देखा वह ज्यों के त्यों पूर्ववत् बैठे थे न चेहरे पर उद्विग्नता थी और न दिल में भय। मैंने पूछा ‘कौन बच्चा रो रहा है? मित्र सुन कर हंस पड़े ‘कहाँ का बच्चा दुबे जी! ये सब उन्हीं बदमाशों की शरारत है। मैं बदमाशों का मतलब समझ गया, पर फिर भी भ्रम-निवारणार्थ पूछा क्या भूत-प्रेतों की। वे बोले ‘हाँ’ यह सब उन्हीं की शरारत है। यह बात शायद आपके लिये नई है, पर यह हमारे लिये तो रात दिन का धन्धा है। मैं अपने मित्र का विश्वास न कर सका मैंने स्वयं देख कर विश्वास करने की इच्छा प्रगट की। मित्र दिखाने को तैयार हो गये।

पैरों में जूते डाल कर और हाथ में बैटरी लेकर वे आगे बढ़े। उनने मुझे पीछे पीछे सावधानी से आने का कहा। भूतों को देखने का कौतूहल बढ़ता जा रहा था। हम लोग धीरे-धीरे ऊपर चढ़े। सीढ़ियाँ सिर्फ दस थीं। अंतिम सीढ़ी पर मैंने कमरे के भीतर का जो दृश्य देखा उसे देख मैं डर सा गया। एक दुर्बल भद्दी सी स्त्री काले केशों को फैलायें हरे रंग की साड़ी पहने बैठी थी। पास ही जमीन पर ज्यादा से ज्यादा एक वर्ष का बच्चा पड़ा रो रहा था। बच्चे की आंखें चमक रही थी। सहसा मुझे विश्वास न हुआ, मैंने आंखें मल कर फिर देखा वही दृश्य था मेरे मित्र ने उस पर बैटरी का प्रकाश फेंका। इस बार वहाँ कुछ न दीखा मित्र ने उसे स्थान को देखा पर वहाँ कुछ भी नहीं था। वे स्थान पर लात पटक दरवाजे की ओर बढ़े। मैंने महसूस किया मेरा हृदय डर से काँप रहा था। मेरे मित्र निर्भयता से कमरे में घूम रहे थे। मुझे अपनी दुर्बलता पर लज्जा आई और मैं दिल कड़ा कर पिछवाड़े के दरवाजे पर पहुँचा। मित्र ने दरवाजा खोल दिया। दरवाजा खुलते ही मुझे एक जोरदार धक्का लगा और मैं काँप उठा।

घना अन्धकार छाया हुआ था। चन्द्रदेव भी क्षीण किरणों द्वारा अन्धकार को दूर करने की बेकार कोशिश कर रहे थे। कुछ देर के बाद, लगभग 100 गज की दूरी पर मुझे एक प्रकाश-पिण्ड दीखा। उसे मैंने अपने मित्र को दिखाया। वे हंस पड़े। उनकी विकराल हंसी सुन मैं डर गया। सहसा मुझे बचपन की याद आ गई मेरी माँ अक्सर कहती थी कि भूत ‘आग के गोले के समान होते है। धीरे-धीरे वह बड़ा होने लगा और यहाँ वहाँ दौड़ने सा लगा मैं और भी डरा। शायद मित्र मेरी कमजोरी ताड़ गये वे बोले यदि भय मालूम होता है तो चलो नीचे चले चलें मैं शरमाया। यह दिखलाने के लिए कि मैं डर नहीं रहा मैं बोला, मैं देखना चाहता हूँ कि यह पिण्ड कैसा है। चलो मुझे बताओ।

हम लोक पीछे पहुँचे। हमें उस समय वह पिण्ड कहीं नजर नहीं आया मैं आश्चर्य से मित्र का मुँह देखने लगा। वे फिर हंस पड़े शायद उन्हें हंसने का रोग था। करीब 50 गज के फासले पर वह पिण्ड फिर दीखा। साहस बटोर कर मित्र के साथ मैं आगे बढ़ा। सहसा पिण्ड हमारी ओर बढ़ा। मैं चार कदम पीछे हट गया। पिण्ड 12 गज की दूरी पर गिरा और गायब हो गया। वह आग का धकधकाता पिण्ड था। मैं काँप रहा था। अचानक वह कुछ फासले पर फिर देखा। इस बार पिण्ड देखते ही मैं काँप कर गिर पड़ा। आगे क्या हुआ मुझे पता नहीं।

दूसरे दिन मैंने अपने को बिस्तर पर पड़ा पाया। मित्र उस समय भी मेरे पास बैठे थे। मुझे जागा देख वे हंस पड़े। सच कहता हूँ उस समय भी मेरा दिल भय से उछल रहा था। मैं आगे का हाल जानने के लिये उत्सुक था। मैंने आगे का हाल पूछा। मित्र बोले। ‘तुम्हारे गिरने के बाद वह पिण्ड उछला और मेरे बहुत पास गिरा। मैं भी अपने को अकेला पाकर डर रहा था।’ साहस कर मैंने उस पर ‘टार्च लाइट’ फेंका, पर वहाँ वह पिण्ड न दीखा। हाँ वह स्थान बहुत गरम अवश्य था। कुछ देर बाद वह मुझे फिर दीखा मैंने पास ही पड़े पत्थर को उठा कर उसे मारा पर कुछ न हुआ, होता ही क्या वहाँ कुछ तो था ही नहीं। मैं कुछ देर तक खड़ा देखता रहा पर वह फिर न दीखा। कुछ देर बाद तुम्हें उठा कर मैं ले आया। तुम्हें होश में लाने की हमने बहुत कोशिशें की पर उनसे कुछ लाभ न हुआ।

मैं अब भी कभी उस घटना की याद कर डर सा जाता हूँ।


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