दूसरों पर रहम करो

November 1940

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(लेखक - अध्यापक जहूरबख्श)

बदर के युद्ध में कुरैश लोग बुरी तरह परास्त हो चुके थे और हजरत मुहम्मद साहब के खून के प्यासे हो रहे थे। अनेक कुरैश युवकों ने बीड़ा उठाया था कि हम एक दिन जरूर मुहम्मद का सिर काट कर लायेंगे। दासूर उन्हीं कुरैश युवकों में से एक था।

एक दिन दोपहर के समय हजरत मुहम्मद साहब अपने खेमे से कुछ फासले पर एक वृक्ष की छाया में लेटे हुए थे। ठण्डी-ठण्डी हवा चली, तो उनकी आँख लग गई। दासूर उनके पीछे लगा हुआ था ही। यह मौका पाया, तो वह अपने घोड़े को तेजी से दौड़ा कर उनके निकट जा पहुँचा। घोड़े की टापों की भनक पड़ी तो हजरत मुहम्मद साहब जाग उठे। परन्तु, वे सम्हलने भी न पाये थे कि दासूर ने उनके कण्ठ पर तलवार रख दी और अभिमानपूर्वक कहा ‘मुहम्मद! बोल इस वक्त तुझे कौन बचायेगा?”

मुहम्मद साहब ने गरज कर उत्तर दिया- “अल्लाह!” उनकी आवाज में ऐसी कुछ शक्ति थी कि दासूर का हृदय हिल उठा और उसके हाथ से तलवार छूट कर भूमि पर जा गिरी। मुहम्मद साहब ने फौरन पैंतरा बदल कर तलवार उठा ली और उसे खींचते हुए पुनः गर्जना की- “ दासूर! बोल अब तुझे कौन बचायेगा?”

दासूर काँपते हुए उनके पैरों पर गिर पड़ा और गिड़गिड़ा कर बोला-”या हजरत, अब आपके सिवा मुझे कोई नहीं बचा सकता।”

यह सुनना था कि मुहम्मद साहब ने तलवार फेंक दी और दासूर से कहा- “ऐ बदनसीब इन्सान! इस वक्त भी तेरे मुँह से खुदा का नाम न निकला! उफ, तेरे माफिक मोहताज और कौन होगा? जा, आज से दूसरों पर रहम करना सीख।”

दासूर पर हजरत मुहम्मद के इस व्यवहार से ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह उसी समय उन पर ईमान लाया और उनका शिष्य हो गया।


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