आपका कार्य केवल लोगों को प्रसन्न करना, केवल किन्हीं की आज्ञा का पालन करना, किन्हीं के इशारे पर नाचना या किन्हीं का अन्ध भक्त बनना नहीं होना चाहिए। वरन् यह होना चाहिए कि उचित, आवश्यक, लाभदायक, धर्म संगत, विवेक युक्त कार्य को करेंगे। इस नीति के अपनाने के पश्चात् आमतौर से लोगों की नाराजी, निन्दा, भर्त्सना, बुराई तथा विरोध का सामना करना पड़ता है। धर्म जीवन के मार्ग में प्रधान बाधा यही है। जिसने इस बाधा को तुच्छ समझ कर ठुकरा दिया वह आगे बढ़ जाता है, जो इस कागज के हाथी से डर गया उसको पश्चाताप और शोक में जलना पड़ता है। आप किसी बात को इसलिए स्वीकार मत कीजिए कि उसे बहुत लोग, बूढ़े लोग, धनी लोग कहते हैं। सत्य की कसौटी यह नहीं है कि उसे बहुत, बूढ़े और धनी लोग ही कहते हों। सत्य हमेशा उचित, आवश्यक, न्याय युक्त तथ्यों से एवं ईमानदारी से भरा हुआ होता है थोड़ी संख्या में कम उम्र के गरीब आदमी, भी यदि ऐसी बात को कहते हैं तो वह मान्य है। अकेला आपका आत्मा ही यदि सत्य की पुकार करता है तो वह पुकार लाखों मूर्खों की बक-बक से अधिक मूल्यवान है। जो उचित है वही कार्य करने योग्य है। वही स्वीकार करने योग्य है।