ब्रह्मचर्य क्या है?

December 1944

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[श्री गोपाल प्रसाद ‘वंशी’ बेतिया]

ब्रह्मचर्य का अर्थ है—शक्तियों का संग्रह करना, उन्हें बिखरने न देना—उन्हें अपनी उन्नति में लगाना। इसका अर्थ शक्ति है, क्रियाशीलता है, तत्परता है, उत्साह है, ओजस्विता है, सहनशीलता है। इसका अर्थ मोटापन नहीं, पहलवानी नहीं है।

ब्रह्मचर्य शारीरिक स्वास्थ्य देता है, सहनशक्ति, उत्साह और साहस देता है; ब्रह्मचर्य से मानसिक शक्तियों का विकास होता है, आत्मा उन्नति के मार्ग पर चलने लगती है।

ब्रह्मचर्य का अर्थ है सभी इन्द्रियों और विकारों पर सम्पूर्ण अधिकार। इसकी विस्तृत व्याख्या ‘समस्त इन्द्रियों का संयम’ है।

ब्रह्मचारी बनने का अर्थ यह है कि स्त्री का स्पर्श करने में भी मुझमें किसी प्रकार का विकार उत्पन्न न हो, जिस तरह एक कागज को स्पर्श करने से नहीं होता। मेरी बहन बीमार हो और उसकी सेवा करते हुए मुझे ब्रह्मचर्य के कारण हिचकना पड़े तो वह ब्रह्मचर्य कौड़ी काम का नहीं। जिस निर्विकार दशा का अनुभव हम मृत शरीर का स्पर्श करके कर सकते हैं। उसी का अनुभव जब हम किसी सुन्दरी से सुन्दरी युवती का स्पर्श करके कर सकें तभी हम ब्रह्मचारी हैं। ब्रह्मचारी स्वाभाविक संन्यासी होता है।

ब्रह्मचर्य का पूरा वास्तविक अर्थ है, ब्रह्म की खोज। ब्रह्म सब में व्याप्त है। अतएव उसकी खोज अन्तर्ध्यान और उससे उत्पन्न होने वाले अन्तर्ज्ञान से होती है। यह अन्तर्ज्ञान इन्द्रियों के पूर्ण संयम के बिना नहीं हो सकता। इसलिए सभी इन्द्रियों का तन, मन और वचन से सब समय और सब नेत्रों में संयम करने को ब्रह्मचर्य कहते हैं।

जिसने स्वाद नहीं जीता, वह विषयों को नहीं जीत सकता। इसलिए ब्रह्मचारी को स्वादेन्द्रिय जीतने का भी पूरा प्रयत्न करना चाहिए।


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